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युवा ही भविष्य हैं

दाजी
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युवा ही भविष्य हैं उनका मार्गदर्शन करें, उन पर दबाव न डालें। 

 

'द विज़्डम ब्रिज' श्रृंखला

सितंबर 2022 में दाजी ने अपनी सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक,‘द विज़्डम ब्रिज’, प्रकाशित की थी जिसका हिंदी संस्करण अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है। वर्ष 2023 के दौरान हम इस गहन ज्ञान से परिपूर्ण पुस्तक के विभिन्न अध्यायों से कुछ अंश प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे आपको इससे मिलने वाले व्यावहारिक ज्ञान की झलक मिल सके। इस माह का अंश 18वें अध्याय से है जो 7वें सिद्धांत - युवा ही भविष्य हैं - उनका मार्गदर्शन करें, उन पर दबाव न डालें - से उद्धृत है। 

इंजीनियरों में एक बहुत पुरानी कहावत है, “आधे खाली और आधे भरे हुए गिलास को देखने के बीच, यह संभावना भी हो सकती है कि गिलास दोगुनी धारिता वाला बनाया जाए।” जब युवाओं की ऊर्जा बुज़ुर्गों के विवेक द्वारा मार्गदर्शित होती है तब कई नए दृष्टिकोण सामने आते हैं। युवा कोई जंगली घोड़े नहीं हैं जिन्हें आपको बलपूर्वक नियंत्रित करना है। उन्हें हमेशा प्रेरित करने और उन्हें एक बल के रूप में खुली छूट दिए जाने की ज़रूरत है।

युवाओं की सबसे बड़ी ताकत उनकी ऊर्जा है। उनकी ऊर्जा ही उन्हें रचनात्मक बनाती है। यह आग कोई नहीं बुझा सकता। जीवन के इस चरण में कोई निष्क्रियता नहीं होती। जब युवा ऊर्जाएँ सही दिशा में मार्गदर्शन पाती हैं तब ऐसी ऊर्जा रचनात्मक ऊर्जा बन जाती है। युवाओं की ऊर्जा हुल्लड़बाज़ी के लिए नहीं है। युवावस्था तो आकांक्षा से युक्त जोशपूर्ण गतिविधि की अवस्था होनी चाहिए। प्रश्न यह है कि ऐसी कौन सी आकांक्षा है जिससे उन्हें प्रेरणा मिल सकती है?

उन्हें सीखना चाहिए कि वे सौम्य और प्रेममय कैसे बनें, विवेकवान कैसे बनें। स्वयंसेवा करना, ध्यान करना, बुज़ुर्गों से मार्गदर्शन पाना — ये सब युवाओं के लिए उनके विकास में सहायक होते हैं।

परवरिश के लिए सुझाव - विचारों में सुनम्यता जब बच्चों की आयु छह से दस वर्ष के बीच होती है तब उनकी सहज योग्यता सक्रिय होती है और उसकी वजह है कि उनके मन लचीले होते हैं। थोड़ी-बहुत झुंझलाहट के अलावा बच्चे किसी कड़े नतीजे पर नहीं आते और यह नहीं कहते, “यह काम ऐसे ही होना चाहिए।” जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं, दुनिया के लिए उनका अपना एक दृष्टिकोण बनने लगता है। मिसाल के लिए, नन्हे बच्चों में किसी चीज़ के लिए दिलचस्पी पैदा करना आसान होता है। अगर बच्चे को गणित पसंद नहीं तो खेलों और गतिविधियों के माध्यम से गणित को मज़ेदार बनाया जा सकता है। लेकिन जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते जाते हैं, उनकी रुचि जगाना मुश्किल हो जाता है क्योंकि वे पहले ही अपनी प्राथमिकता तय कर चुके होते हैं। इसलिए उस समय माता-पिता को रचनात्मक और धैर्यवान होना चाहिए।

किशोरवय मस्तिष्क का निर्माण होता रहता है

युवाओं के साथ भविष्य के लिए बहुत सी आशाएँ जुड़ी होती हैं और उनमें अपार क्षमता भी होती है, उसके बावजूद बुजु़र्ग अक्सर उनके बारे में, खासकर किशोरों के बारे में, सोचते हैं कि इनका हार्मोन उफ़ान मार रहा है, ये उद्देश्यहीन विद्रोही हैं या लापरवाह बेवकूफ़ हैं। ऐसा क्यों है? किशोरावस्था इतनी उथल-पुथल से क्यों भरी होती है? इनमें से कुछ उत्तर स्वयं मानव मस्तिष्क की संरचना में ही छिपे हैं।

न्यूरोसाइंस यानी तंत्रिका-विज्ञान को सरल तरीके से बताने की कोशिश करते हुए मैं आपको कुछ जानकारी दे रहा हूँ जो आपको यह समझने में सहायक हो सकती है कि एक किशोर के मस्तिष्क में क्या चल रहा होता है। किशोरों का मस्तिष्क अभी विकसित हो रहा होता है। विकसित होने से मेरा तात्पर्य है कि इस अवस्था में मस्तिष्क इस बात पर केंद्रित रहता है कि उसे कौन से तंत्रिका के जोड़ बनाए रखने हैं और कौन से छोड़ देने हैं। सिनेप्टिक छँटाई की यह प्रक्रिया, विकास का एक स्वाभाविक हिस्सा है। जब हमारा जन्म होता है तब हमारे पास बहुत सारे जोड़ होते हैं और समय के साथ मस्तिष्क फ़ालतू जोड़ों को हटा देता है।/span>

यहाँ सवाल यह है कि मस्तिष्क यह कैसे तय करता है कि उसे कौन से जोड़ रखने हैं और कौन से जोड़ हटाने हैं? यह निर्णय उस समय तक जमा हुए जीवन के अनुभवों के आधार पर होता है। जैसे जब आप छोटे थे और कला के प्रति रुझान रखते थे तो आपके बड़े होने पर भी वे न्यूरल सर्किट (तंत्रिका परिपथ) आपके मस्तिष्क में मौजूद रहेंगे जिनका निर्माण बचपन में हुआ था। यह नियम हैबियन लर्निंग के नाम से जाना जाता है। जब हम कुछ नया सीखते हैं तब हमारे दिमाग के न्यूरॉन (स्नायु) दूसरे न्यूरॉन से संपर्क कर एक न्यूरल नेटवर्क (स्नायु जाल) बनाते हैं। ये न्यूरॉन जितना ज़्यादा सक्रिय होते हैं, जोड़ उतने ही मज़बूत होते हैं और काम उतना ही अधिक सहज होता जाता है। हैब के नियम को एक वाक्य में समेटा जा सकता है, “जो न्यूरॉन एकसाथ सक्रिय होते हैं, वे एकसाथ जुड़ते हैं।” [1],[2]

छंटनी के अलावा, किशोरों के मस्तिष्क में माइलिनेशन भी होता है। माइलिन नामक वसीय पदार्थ मस्तिष्क की कोशिकाओं के तंतुओं पर लगा होता है। माइलिनेशन दिमाग के अलग-अलग हिस्सों को जोड़ता है ताकि मस्तिष्क में जानकारी बहुत तेज़ी से आगे बढ़ सके। माइलिनेशन को आप कीचड़ से भरी देहात की सड़कों से काँच की तरह जगमगाते राजमार्गों तक उन्नत होना मान सकते हैं जिससे आपकी कार तेज़ी से चल सके।

माइलिनेशन मस्तिष्क के पिछले हिस्से से शुरू होता है और धीरे-धीरे आगे की ओर आता है। मस्तिष्क के पिछले हिस्से में भावात्मक और आवेग से जुड़े केंद्र हैं। पहले इनमें ही माइलिनेशन होता है। पर मस्तिष्क के अगले हिस्से में, प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स अब भी देहाती सड़कों पर ही चल रहा है और उसे उन्नत होने में कुछ वर्षों का समय लगेगा। मस्तिष्क का आगे वाला हिस्सा तर्क से जुड़ा होता है। निर्णय-निर्धारण, आत्म-नियंत्रण, तार्किक चिंतन और परिपक्वता से जुड़े विभाग भी प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स में होते हैं। इस तरह जहाँ मस्तिष्क में प्रसन्नता, उदासी, उत्साह, अजेय होने का भाव जैसे रोमांचकारी आवेग तेज़ी से यात्रा करते हैं, वहीं निर्णय-निर्धारण और आत्म-नियंत्रण की गति धीमी होती है। इससे पता चलता है कि किशोर ऐसे काम क्यों करते हैं जो वयस्कों को असंगत लगते हैं। एक पल के लिए अपनी किशोरवस्था के कारनामों को याद करें। मुझे यकीन है कि आपको कई बातें याद करके हैरानी होगी और आप सोचेंगे, “मैं उस दौर में क्या-क्या सोच रहा था?” किशोरों के अतार्किक व्यवहार का जैविक कारण इस बात का परिणाम है कि उनके विकासशील मस्तिष्क दुनिया के बारे में क्या विचार बना रहे हैं।

आप यह भी सोच सकते हैं कि दिमाग में पीछे से आगे की ओर माइलिनेशन एक दोष है पर यह हमारे क्रम-विकास के अनुरूप ही है। जब हम शिकारी-संग्रहकर्ता थे तब सामना करने या पलायन करने का भाव ही हमारे अस्तित्व पर हावी था। उस समय लंबे दाँतों वाले बाघ को देखते ही उसका सामना करने या भाग जाने का तुरंत निर्णय लेना होता था और उसके लिए हमें उसी पल भावनात्मक आवेग की ज़रूरत पड़ती थी। प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स का विकास तो बहुत बाद में होने लगा, जब मनुष्य विकसित हुआ और उसने खाद्य-श्रृंखला में अपने लिए सबसे ऊँचा स्थान हासिल कर लिया।

अध्ययनों से पता चलता है कि किशोरावस्था अरक्षितता का समय भी होता है। लगभग 70 प्रतिशत मानसिक रोग जैसे व्याकुलता, खान-पान व मनोदशा संबंधी विकार और अवसाद आदि, किशोरावस्था में या वयस्कावस्था की शुरुआत में ही सबसे पहले प्रकट होते हैं। यही वह समय होता है जब युवाओं की नशे का शिकार होने और किसी अन्य लत में पड़ने की संभावना सर्वाधिक होती है। इस समय मस्तिष्क की पुरस्कार प्रणाली यानी रिवार्ड सर्किट में पूरी क्षमता होती है इसलिए अगर उनका मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य ठीक नहीं होता तो किशोर असुरक्षित हो जाते हैं। साथ ही किसी सदमे (जैसे उपेक्षा, हिंसा, बुरे बर्ताव का शिकार होना या घर से बेघर होना) की वजह से भी बच्चे के दिमागी विकास में कमी आ सकती है, जो अक्सर किशोरावस्था में सामने आती है। दुख या यातना में बीते बचपन से मस्तिष्क का तंत्र वैसा ही विकसित होगा जो तनावों को झेलने के लिए अनुकूलित होगा। नतीजतन, उस बच्चे में प्रतिक्रिया देने और आक्रामक होने के आवेग भी अच्छी तरह विकसित होंगे। परंतु हो सकता है कि आत्मनियंत्रण और शांति के लिए बने पूरक तंत्र पूरी तरह से विकसित न हों। अतः यह संभव है कि बच्चे को किशोरावस्था के दौरान अपनी इन प्रवृत्तियों को सुधारने के लिए सलाह और मदद की आवश्यकता हो।

किशोर मस्तिष्क की इस समझ के साथ, उतार-चढ़ाव से भरी किशोरावस्था के दौरान आप अपने बच्चों को अपना सहयोग कैसे दे सकते हैं, इस बारे में कुछ सुझाव प्रस्तुत हैं -

 

परिवर्तन को स्वीकार करें और बदलाव में सहयोग दें

दुनियाभर की संस्कृतियों में युवाओं में आने वाले परिवर्तन को औपचारिक मान्यता दी जाती है। यहूदी लोग ‘बार एंड बात मित्ज़वा’ मनाते हैं। भारत के कुछ हिस्सों में ‘लांगा-वोनी’ और ‘ऋतु कला’ संस्कार मनाया जाता है। हिस्पेनिक लोग ‘क्विनसिनेरा’ और ‘क्विनसिनेरो’ मनाते हैं। हर संस्कृति की अपनी परंपराएँ और रिवाज़ होते हैं जिन्हें सारा समुदाय एकसाथ मिलकर मनाता है।

ये रिवाज़ किशोरों को समुदाय के लिए अपनी ज़िम्मेदारी समझने में सहायक होते हैं। बड़ों से मिलने वाला सम्मान भी अपने बारे में उनकी समझ को ढालने में मदद करता है।

आज, भले ही हम जवान होने से संबंधित रीत मनाते हों पर हम इनके असली महत्व को भूल गए हैं। और कई बार बाहरी दिखावे के बीच प्रसंग का महत्व कहीं छिप सा जाता है। जवान होने को सामान्यतः अधिकारों के साथ जोड़ा जाता है - गाड़ी चलाने का अधिकार, वोट देने का अधिकार, पीने का अधिकार आदि। लेकिन हम इन अधिकारों के साथ आने वाले कर्तव्यों पर बल नहीं देते। जब अधिकार और कर्तव्य दोनों को उचित महत्व मिलता है तब बचपन से युवावस्था में बदलाव आसानी से हो जाता है। अगर ऐसा नहीं होता तो यह परिवर्तन लंबे समय तक चलता रहता है। ऐसे मामलों में बच्चे बड़े तो हो जाते हैं, परंतु परिपक्व नहीं होते। अगर वे अपनी किशोरावस्था में कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते तो यही उनके शेष जीवन का स्वरूप भी बन सकता है।

 

नम्र व्यवहार और पैनी दृष्टि रखें

जब बच्चे छोटे होते हैं तब वे अपने पिता और माता जैसा बनना चाहते हैं। यह स्वाभाविक है। पर किशोरावस्था आते-आते वे ऐसा सोचना बंद कर देते हैं। इस दौरान उनके मन में माता-पिता के लिए पहले जैसा सम्मान का भाव नहीं रहता। वे अपने माता-पिता से प्रेम तो करते हैं लेकिन माता-पिता को अपने लिए आदर का भाव फिर से अर्जित करना पड़ता है। उन्हें नैतिक और आध्यात्मिक रूप से विकसित होना होगा ताकि उनके किशोर बच्चे उनका आदर करते रहें। किशोर सच्चाई को सराहते हैं। वे आदर्शवादी होते हैं और ऐसे लोगों को पसंद करते हैं जो सच्चे और ईमानदार हों। 

माता-पिता के रूप में बच्चों को अपनी सफलताओं और असफलताओं के बारे में बताएँ। एक बार मेरे बेटे व्यापार से संबंधित किसी धारा पर मुझसे सलाह लेने आए। मैंने अनुबंध की भाषा को ध्यान से पढ़ा और उनसे कहा कि मैं अपने समय में अनुबंध पर हस्ताक्षर करते हुए बहुत कड़ी शर्तें नहीं रखता था। मैंने उन्हें मेरे एक निवेशक मित्र से व्यावसायिक राय लेने के लिए कहा। मैं उन्हें वे सब किस्से भी सुनाता जब मैंने किसी न किसी तरह अपने व्यवसाय में नुकसान उठाया था। मैं देखा करता था कि उन्हें वह बातचीत पसंद आती थी और मैं यह भी देखता था कि वे दोनों बाद में कैसे मेरी गलतियों पर विचार करते थे।

हमारे किशोर युवा पूर्णता नहीं चाहते हैं। वे सच्चाई और प्रेम चाहते हैं। जब हम माता-पिता के रूप में अपनी कमियों को स्वीकार करते हैं, अपनी भूलों को स्वीकार करते हुए उनसे मिले सबक उन्हें बताते हैं तब उससे बच्चों के साथ हमारा हार्दिक संबंध और मज़बूत हो जाता है। अतीत में हुई हमारी गलती और उसका हमारे जीवन पर पड़े प्रभाव के बारे में बच्चों के साथ एक ईमानदार बातचीत उनके मन में सही और गलत पर व्याख्यान देने से कहीं बेहतर दर्ज होगी।

हर समय टोका जाना किसे अच्छा लगता है? जब हमें हमारी कमियाँ बताई जाती हैं तब दुख होता है। युवा भी इस मामले में कोई अपवाद नहीं हैं। उन तक सूक्ष्म रूप से अपनी बात पहुँचाना मदद करता है। अपनी बात कहने के लिए अप्रत्यक्ष तरीकों का इस्तेमाल करें। मिसाल के लिए, उन्हें रोचक कहानियाँ सुनाएँ — सुंदर और प्रेरक कहानियाँ। समस्या यही है कि हमने उन्हें कहानियाँ पढ़कर सुनाना बंद कर दिया है। चाहे वे तेरह या अठारह साल के हों या चाहे वे तीस साल के हों, उन्हें अच्छी कहानियाँ और प्रसंग अवश्य सुनाएँ। उन्हें ऐसे विचार बताएँ जो उन्हें सोचने पर विवश कर दें। जब आप कोई गहन संदेश पढ़ें तो उसे बहुत खुशी के साथ उन्हें बताएँ।
उनसे कहें, “यह सुनो, कितनी अद्भुत  बात है।” 
बस उन्हें बताकर बात को वहीं रोक दें। इसके बाद उन्हें उसके बारे में कोंचते हुए भाषण न दें।

बच्चों के साथ नम्रता से पेश आएँ और पैनी दृष्टि रखें।

 

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