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पेड़ों की उपचारक शक्ति

दाजी

दाजी पेड़ों की उपचारक शक्ति का अपना एक ऐसा अनुभव बता रहे हैं जब पेड़ों से संबंधित एक छोटे से अभ्यास से
उनके स्वास्थ्य में सुधार आया। वे हम सभी को इस अभ्यास को आज़माने के लिए आमंत्रित करते हैं।
प्रिय मित्रों,
20 वीं सदी के आरंभिक वर्षों में महान संत, फ़तेहगढ़ के रामचंद्र जी (लालाजी) रावती के आदिवासी क्षेत्र के एक गाँव
में गए जो वर्तमान में भारत के मध्य-प्रदेश में स्थित है। वे उस जगह से अत्यधिक प्रभावित हुए। उससे उन्हें
काकभुशुंडि के प्राचीन आश्रम की याद आ गई। उस आश्रम में जो भी जाता था, उसे वहाँ मुक्ति के भाव का अनुभव
होता था।
लालाजी को उस गाँव के लोगों की मासूमियत और वहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य बहुत अच्छा लगा। वे वहीं रहकर
काकभुशुंडि के आश्रम जैसे एक आश्रम का निर्माण करने का अपना सपना पूरा करना चाहते थे। उन्होंने लिखा, “ऐसी
जगहों में भावनाओं व प्राणाहुति को अवशोषित करने की क्षमता लोगों की तुलना में अधिक होती है और वे उसे लंबे
समय तक कायम रख सकते हैं। इसके परिणामस्वरूप, जो भी वहाँ जाता है, वहाँ से प्रभावित ज़रूर होता है। यही
कारण है कि यह स्थान आज भी वृंदावन की तरह लगता है। पारंपरिक दृष्टिकोण से भी देखें तो अन्य स्थानों की तुलना
में वहाँ व्यक्ति बेहतर साधना कर सकता है।”
वर्ष 2007 में मैं इस गाँव को ढूँढने निकला जिसे आजकल राओती कहते हैं। रेलवे स्टेशन पहुँचने पर मैंने देखा कि
सैकड़ों हेक्टेयर तक वहाँ मुश्किल से ही कोई पेड़ दिखाई देता था। उन सबको काट दिया गया था। गाँव पहुँचने पर
मैंने देखा कि नदी लगभग सूख चुकी थी। फिर भी उसके किनारे पर कुछ सुंदर पेड़ थे जिनमें एक विशाल बरगद का
पेड़ भी था जिसकी छतरी बहुत बड़ी थी। शायद लालाजी इसी जगह पर आए थे। मैं वहाँ बैठा और मुझे अत्यधिक
लाभ महसूस हुआ।
पेड़ इतने विशेष क्यों हैं? सबसे पहले तो वे अपने अंदर आध्यात्मिक ऊर्जा (चार्ज) को मनुष्यों की तुलना में अधिक
समय तक धारण करके रख सकते हैं क्योंकि उनकी चेतना अलग तरह की होती है। हमारी चेतना गतिशील होती है
जिसके कारण हममें इच्छानुसार विकसित होने का सामर्थ्य होता है लेकिन इसी वजह से हम विपरीत दिशा में भी जा
सकते हैं।
कुल मिलाकर, हमें जो दिया जाता है, हम उसका उपयोग करना नहीं जानते और हम उसे खो देते हैं। इसके अतिरिक्त,
विचारों, भावनाओं और कार्यों की सतत गतिविधि होने से वैचारिक प्रदूषण होता है जिससे हमारे आस-पास का
वातावरण ही बदल जाता है।
दूसरी ओर, पेड़ बिना किसी परेशानी के आध्यात्मिक ऊर्जा को जैसे का तैसा बनाए रखते हैं। वे स्पंदनों के भंडार हैं जो
प्राणाहुति के दिव्य चार्ज को धारण किए रहते हैं। इसलिए भावी पीढ़ियाँ भी उस आध्यात्मिक चार्ज को थामे रखने का
लाभ प्राप्त करती हैं। पेड़ विकास के क्षेत्र में पीछे नहीं जाते लेकिन वे अपनी इच्छा से विकसित भी नहीं हो सकते।
वास्तव में उनमें इच्छाशक्ति न होना ही उनके द्वारा अवशोषित चार्ज की रक्षा करती है।

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पेड़ बिना किसी परेशानी के आध्यात्मिक ऊर्जा को जैसे का तैसा बनाए रखते हैं। वे स्पंदनों के भंडार हैं जो प्राणाहुति
के दिव्य चार्ज को धारण किए रहते हैं। इसलिए भावी पीढ़ियाँ भी उस आध्यात्मिक चार्ज को थामे रखने का लाभ प्राप्त

करती हैं।
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पेड़ धरती से ऊपर की ओर और ब्रह्मांड से नीचे की ओर ऊर्जा के प्रवाह के माध्यम भी हैं। इस प्रवाह के माध्यम से वे
अपने चार्ज को बाँटकर अपने आस-पास के सभी प्राणियों के जीवन को बनाए रखते हैं - उदाहरण के लिए, मिट्टी में

मौजूद प्राणियों के जीवन को फंगस के तंत्र द्वारा और उन सभी प्राणियों के जीवन को जो उनकी शाखाओं व पत्तियों
पर या उनके बीच रहते हैं।
क्या आपने कभी हवा में किसी बड़े पेड़ की हिलती हुई टहनियों और पत्तियों पर गौर किया है? उनकी हरकत में आप
आनंदपूर्ण व्यापकता महसूस कर सकते हैं। जबकि किसी शाखा के कटने पर बिलकुल अलग तरह की अनुभूति होती है
- संकोचक व रक्षात्मक। अलग-अलग ऋतुओं में भी ऊर्जा-प्रवाह अलग-अलग होता है। सर्दियों में ऊर्जा और पोषक-
तत्वों का प्रवाह नीचे जड़ों की ओर हो जाता है जिससे वे पुनः एकत्रित हो जाएँ और कुछ समय के लिए निष्क्रिय हो
जाएँ ताकि बसंत में वे ऊपर उठें और पेड़ फले-फूले और उसमें नई कलियाँ, नई कोंपलें, फूल और अंततः फल लगें
जिनसे बीज बनें। तेज़ गर्मी में भी पेड़ ऊर्जा को बहुत अच्छे से बचा कर रखते हैं और उतनी ही ऊर्जा पैदा करते हैं
जितनी ज़रूरत हो। उस समय सब कुछ रख-रखाव से संबंधित होता है।
पेड़ों के साथ रहने से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है। एक बार जब मैं बहुत बीमार था तब यूरोप के एक
उपचारक ने कहा था, “क्यों न आप किसी पेड़ के पास प्रार्थना के साथ बैठकर उससे पूछें कि क्या वह लेन-देन करेगा।”
पेड़ों के साथ हमारा रिश्ता संपूरक होता है। जो कुछ हमारे लिए अच्छा नहीं है, जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, वे
इस्तेमाल कर लेते हैं और जो उनके लिए अच्छा नहीं है, हम इस्तेमाल कर लेते हैं। यह एक अच्छा लेन-देन है। पेड़ों व
मनुष्यों का रिश्ता आमतौर पर अच्छा रहता है। हमें उनकी देखभाल करनी है।
पेड़ों के साथ एक सरल अभ्यास
प्रस्तुत है एक सरल सा अभ्यास जो उस उपचारक ने मुझे सिखाया था। मैं आपसे भी इसे आज़माने के लिए कहूँगा।
प्रार्थना सहित पेड़ से उसके पास बैठने की अनुमति माँगकर आप ज़मीन पर पेड़ के तने से पीठ टिकाकर बैठ जाएँ। यह
सुनिश्चित करें कि तने की चौड़ाई आपकी पीठ से कम हो।
आपके शरीर में जो भी बीमारी या परेशानी है, उसे यह कहते हुए पेड़ को प्रस्तुत करें, “कृपया इसे ले लें। और जो कुछ
भी मुझ से आपको चाहिए उसे ले लें और मुझे जीने व अपना उपचार करने के लिए ताकत दें।”
उत्तम स्वास्थ्य व कल्याण के लिए मेरी शुभकामनाएँ।
दाजी


परिवार और मित्रगणों को पत्र
सत, रजस और तमस
आदरणीय दाजी,
प्रकृति के साथ तालमेल में रहने का क्या अर्थ है?

प्रिय जोश,
हमें प्रकृति के साथ तालमेल में रहकर जीवन जीने के लिए कहा जाता है। प्रकृति के साथ तालमेल में रहने का अर्थ है
अलिखित दिव्य नियमों का पालन करना। जो भी कार्य दिव्य नियमों के अनुरूप है उसे सात्त्विक कहा जा सकता है।
मनुष्य के बनाए नियमों का पालन करना और उसी के अनुसार कार्य करना जिससे आपको खुशी मिलती है, उसे
राजसिक कहा जा सकता है। जब न तो दिव्य नियमों का पालन किया जाता है और न ही मनुष्य द्वारा बनाए गए
नियमों का और केवल अपने आप को संतुष्ट करने के लिए सभी नियमों को तोड़ा जाता है तब उसे तामसिक कहा जा
सकता है। आप किस स्तर पर व किस चीज़ से अपने आप को जोड़ रहे हैं?

दिव्य नियमों का पालन करने और अपनी अंतरात्मा की बात मानने से अपने आप ही आपको शांति व संतोष मिल
जाता है। वह अनुभव या अवस्था स्वर्गीय यानी सुखद होती है। सब नियमों को तोड़ने से आप बेचैन हो जाते हैं, भले
ही आप अन्यथा व्यवहार करें और रामायण महाकाव्य के राक्षसों की भाँति ज़ोर से हँसने लगें। वह अनुभव या अवस्था
स्वर्गीय नहीं होती और हम उसे नरक कहते हैं।
आनंदपूर्वक दिव्य नियमों का पालन करना ईश्वर की मर्ज़ी के प्रति पूर्ण स्वीकृति व समर्पण का प्रतीक है। यहाँ पर,
"प्रिय प्रभु, जैसी आपकी मर्ज़ी वैसा ही हो" का मनोभाव बहुत सार्थक है।
आधुनिक कामकाजी जीवन में चिंतन, अंतरावलोकन, ध्यान और अच्छी बातों का पालन करने के लिए बहुत कम
समय मिलता है, भले हम वह सब करना भी चाहें। लेकिन यदि हमें आध्यात्मिक रूप से प्रगति करनी है तो हमें
भौतिक जीवन में भी आध्यात्मिकता लानी होगी क्योंकि यही एकमात्र समाधान है। हमें थोड़ा पीछे जाकर उन चीज़ों
को पुनः अपनाना होगा जिनका महत्व सर्वाधिक है।
हमें कम से कम इतना समझने के काबिल बनना होगा कि हमारे कर्मों से सुख उत्पन्न हो रहा है या दुःख। हम में से
अधिकांश लोग शुरुआत में परिणाम को समझ नहीं पाते। इसीलिए महान गुरुओं ने हम पर दया करके हमारे फ़ायदे के
लिए कुछ नियम बनाए हैं ताकि हमारा कीमती समय बचे।
उदाहरण के लिए, क्या कोई इसके लिए नियम लिख सकता है कि किससे विवाह करना है या फिर उच्च शिक्षा के
दौरान कौन सी डिग्री प्राप्त करनी है? वे कहेंगे कि जिससे आप प्रेम करते हो उससे विवाह करो और यह सुनिश्चित
करो कि वह भी आपको प्रेम करता / करती है। हमारी गलती यह होती है कि हम रूप, व्यवहार, बातों, हैसियत आदि
को प्रेम मान लेते हैं। इस भ्रम से हमारी समझ बदल जाती है, हम चीज़ों को स्पष्टतः देख नहीं पाते और अंततः हमें
उसकी बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ती है। हम परिवार या समाज के दबाव में आ जाते हैं। हम विभिन्न पूर्वाग्रहों और
ज़िद से बंधे रहते हैं। इसकी तुलना में आकाश में मौजूद सभी ग्रह (यानी हमारा भाग्य) हम पर अधिक दयालु हैं।
"आप वही हैं जो आप खाते हैं," इस कथन का लोग जो अर्थ लगाते हैं, वह बड़ा हास्यास्पद है। वे कहते हैं कि यदि आप
चिकन खाते हैं तो आप चिकन बन जाते हैं; यदि आप गाय का दूध पीते हैं तो आप गाय बन सकते हैं! इस तरह की
सतही बहस का कोई फ़ायदा नहीं होता, भले ही वह नेक इरादे से की गई हो। कोई भी तर्कपूर्ण मन इसे स्वीकार नहीं
करेगा। इसके बजाय, यह कहावत तब बहुत अच्छे से समझ में आती है जब हम खाद्य-पदार्थ की प्रकृति को गुणों की
दृष्टि से समझें।
यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि विभिन्न खाद्य पदार्थों को उनके सूक्ष्म या ठोस गुणों के अनुसार ग्रहण किया जाए
और इस पर भी ध्यान दें कि उन्हें कैसे ग्रहण किया जाए। वही सात्त्विक भोजन तामसिक प्रभाव उत्पन्न कर सकता है
यदि मन प्रकृति के साथ तालमेल में न हो या फिर उस भोजन को संदेहास्पद तरीके से प्राप्त किया गया हो।
'अक्षर सत्य' के अध्याय 1 को पढ़ते समय तीन गुणों पर मेरी वार्ता को ध्यान में रखें।
सुरक्षित रहें।
सस्नेह,
कमलेश

 

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