आधुनिक जीवन के लिए आध्यात्मिक अभ्यास और मनोभाव
दाजी अक्सर कहते हैं, “अचल संपत्ति के मूल्यांकन में 95% महत्व स्थान और सिर्फ़ स्थान का होता है जबकि आध्यात्मिकता में 95% महत्व सिर्फ़ मनोभाव और केवल मनोभाव का ही होता है!” इस माह वे विस्तार से बता रहे हैं कि आध्यात्मिकता में मनोभाव का इतना महत्व क्यों है और हम अपनी प्रगति के लिए अपने मनोभाव को किस तरह उपयुक्त बना सकते हैं।
जब आप अपना रूपांतरण चाहते हैं तब केवल ध्यान ही सब कुछ नहीं होता है। सबसे प्रभावी विधि का सर्वाधिक अनुशासित तरीके से पालन करने पर भी सफलता पाने की संभावना केवल 5% ही होती है। बाकी की 95% सफलता आपके मनोभाव पर निर्भर करती है। आप जो करते हैं वह महत्वपूर्ण तो है ही लेकिन यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना वह मनोभाव है जिसके साथ आप उसे करते हैं।
यह नियम केवल ध्यान पर ही लागू नहीं होता। दैनिक जीवन का कोई भी पहलू हो, यह हमारा मनोभाव ही है जो हमें बनाता है और हमारी सफलता निर्धारित करता है। यदि आप नकारात्मक मनोदशा में ध्यान करते हैं तो यह पूरी तरह से प्रतिकूल बन जाता है क्योंकि ऐसे में आप अपनी नकारात्मकता पर ही ध्यान करने लगते हैं। आपकी आँखें भले ही बंद हों व आप भले ही ध्यान में बैठे हुए दिखाई दे रहे हों लेकिन वास्तव में आप अपने नकारात्मक विचारों और भावनाओं को लेकर चिंतित हैं। आप उन्हीं पर केंद्रित रहते हैं। और जब आप अपनी खराब मनोदशा पर ध्यान करते हैं तब क्या होता है? वह और अधिक खराब हो जाती है। इसके विपरीत, यदि अपने आध्यात्मिक अभ्यास में आप नियमितता, उल्लास और उच्चतम को पाने की बेचैनी के साथ आगे बढ़ते हैं तो आप दूसरे आयाम में पहुँच जाते हैं।
खेत पर काम करने वाले एक मज़दूर की कल्पना कीजिए जो कठिन शारीरिक श्रम करके अपनी रोज़ी-रोटी कमाता है लेकिन स्वयं को काम से बोझिल और दबा-कुचला महसूस करता है। वह दिनभर कड़ी मेहनत करता है लेकिन वह पूरे दिन के श्रम के बावजूद जिम जानेवाले व्यक्ति, जो एक घंटे से भी कम कसरत करता है, के समान माँसपेशियाँ नहीं बना पाता। परिणाम में यह भिन्नता दोनों के मनोभाव में फ़र्क के कारण है।
यदि आप ध्यान का अभ्यास पूर्णतया यांत्रिक ढंग से करते हैं, यदि आप सोचते हैं, “अरे! मुझे जल्दी जागकर ध्यान करना पड़ेगा” या फिर यदि आप किसी और को संतुष्ट करने के लिए ध्यान करते हैं तो इसे बिलकुल भी न करें क्योंकि तब आप सिर्फ़ अपना समय नष्ट करेंगे। हार्टफुलनेस ध्यान की एक सरल व वैज्ञानिक पद्धति है लेकिन इसका अनुभव करने के लिए हमें ध्यान में दिलचस्पी, इच्छा और उत्साह की आवश्यकता है। आप स्वयं देखेंगे कि जब आप हर काम उचित मनोभाव से करते हैं तब आपका पूरा जीवन रूपांतरित हो जाता है।
आनंदपूर्वक ध्यान
मान लीजिए कि आपने हार्टफुलनेस के चारों अभ्यासों - रिलैक्सेशन, ध्यान, सफ़ाई और प्रार्थना - को नियमित रूप से करने की आदत बना ली है। हममें से सच्चे अभ्यासी के लिए भी किसी अभ्यास को दिन-प्रतिदिन करने से वह पुनरावर्ती प्रक्रिया बन जाती है, चाहे वह तैराकी हो, कोई वाद्ययंत्र बजाना हो या फिर ध्यान करना ही क्यों न हो। क्रियाविधि हमेशा एक सी होती है। ऐसे में वह क्या है जो इसे जीवंत बनाए रखता है? वह है - मनोभाव और रुचि। मैंने पाया है कि मुझे मेरे आध्यात्मिक विकास में प्रेम, विनम्रता और प्रार्थनापूर्ण मनोभाव ने बहुत मदद की है।
ध्यान का उद्देश्य चेतना की सूक्ष्मतम अवस्थाओं में प्रवेश करना है। यदि आप अपने साथ भारीपन, कलह और पीड़ा लेकर बैठते हैं तो क्या यह संभव होगा?
इसके अलावा कुछ अन्य मनोभाव भी हैं जो सूक्ष्मतर तरीके से हमें बाधित करते हैं। उनमें से एक है, अपेक्षा। कई लोग ध्यान में किसी विशेष परिणाम की अपेक्षा करते हैं। मान लीजिए, किसी दिन ध्यान में आपको एक अद्भुत अनुभव होता है जिसे अगली बार ध्यान में बैठने पर आप दोहराना चाहते हैं। इस तरह आप ध्यान में एक शर्त रख देते हैं, “आज मुझे शांति मिलनी चाहिए!” हो सकता है कि इससे कुछ बेहतर अनुभव आपका इंतज़ार कर रहा हो लेकिन आपको तो शांति ही चाहिए। ऐसे में आप बेहतर चीज़ पाने से वंचित रहते हैं। हमें हमेशा अपनी वर्तमान स्थिति से परे या उससे आगे जाने का इच्छुक होना चाहिए।
लेकिन इसके विपरीत की अति को भी न होने दें, जैसे अगले स्तर को प्राप्त करने की अधीरता। ग्रहणशील बने रहकर और बिना किसी शर्त के प्रक्रिया को स्वाभाविक रूप से अनावृत होने दें। न तो किसी चीज़ के लिए आग्रह करें और न ही किसी चीज़ की माँग करें। जब आपकी कोई अपेक्षा या माँग नहीं होती तब आपका ध्यान सर्वश्रेष्ठ होता है। वास्तव में यह प्रतीक्षा का एक रूप है जो हमेशा सर्वोत्तम परिणाम देता है क्योंकि हर चीज़ अपने समय से होती है। उदाहरणार्थ, आप तितली के कोष यानी ककून के परिपक्व हुए बिना उसे खोलकर तितली को निकाल नहीं सकते - वह मर जाएगी। उसी तरह आध्यात्मिक अवस्थाओं की, उनके समय से पहले आने की अपेक्षा न करें – वे अवश्य आएँगी।
हो सकता है कि किसी दिन ध्यान में कोई गहराई न हो या आपका ध्यान का अनुभव बहुत ही साधारण हो। लेकिन प्रत्येक अनुभव अंततः अच्छा होता है क्योंकि ध्यान के हर अनुभव का एक उद्देश्य होता है - भले ही आप इसे न समझ पाएँ। अपने अनुभवों पर बहुत ज़्यादा विचार न करें और आगे बढ़ जाएँ। यह मनोभाव रखना आपके हाथ में है।

यदि आपका ध्यान का अभ्यास सिर्फ़ अपने दैनिक नियम का पालन करने के लिए होता है तो इस पर मनन करें - अपनी किशोरावस्था के दिनों को याद करें, जब आप किसी से प्यार करते थे और आपने अपने प्रिय से मिलने और साथ सिनेमा देखने चलने को कहा था। आप उससे मिलने के लिए इतने आतुर थे कि आप समय से पहले पहुँच गए थे। आप इतने अधिक उत्साहित थे कि उसके आने तक आप बैचेनी महसूस करते रहे थे। क्या आप में अपने ध्यान के प्रति उस स्तर की बैचेनी और उत्साह है? क्या आप अपने आंतरिक स्व से मिलने के लिए इतने प्रेरित हैं? यही वह मनोभाव है जो हमारे ध्यान में उत्साह भर देता है। रात को सोने से पहले सुबह अपने उच्चतर स्व से होने वाले मिलन के बारे में सोचें।
जब आपकी कोई अपेक्षा या माँग नहीं होती तब आपका ध्यान सर्वश्रेष्ठ होता है। वास्तव में यह प्रतीक्षा का एक रूप है जो हमेशा सर्वोत्तम परिणाम देता है क्योंकि हर चीज़ अपने समय से होती है।
इसलिए महत्वपूर्ण बात यह है कि आप अपने जीवन को जिस प्रकार से संचालित कर रहे हैं, उसमें रुचि लीजिए क्योंकि नियति इसी से बनती है। जब आप ध्यान करते हैं तब उसे प्रेम से व रुचि से करें। संतुलन, एकाग्रता और उत्साह से उचित स्पंदन क्षेत्र पैदा करने में आपको बहुत मदद मिलती है जिससे आप अपनी नियति का निर्माण करके अपने जीवन का मार्ग बदल सकते हैं।
संबंधों में स्वीकार्यता
यदि आप आज के युवाओं से पूछें कि उनके मन में क्या है तो अधिकतर के मन में संबंध सबसे ऊपर होंगे। संभवत: हर आयु वर्ग के लोगों के मामले में ऐसा ही है हालाँकि उम्र के अनुसार रिश्तों का स्वरूप बदल जाता है। फिर भी हम में से कितने लोग अच्छे व खुशहाल रिश्ते विकसित करना जानते हैं? मैंने अपने जीवन में यह देखा है कि परस्पर सम्मान व स्वीकार्यता, दो सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण कारक हैं जो सहनशीलता (जो वास्तव में हृदयपूर्ण स्वीकार्यता नहीं है) से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं।
दूसरों के प्रति सम्मान वास्तव में आपके स्वयं के प्रति प्रेम का प्रतीक है। यदि आप अपने आपसे प्रेम नहीं करते हैं तो यह श्रेष्ठ गुण (दूसरों के प्रति सम्मान) आप में कभी भी विकसित नहीं होगा। और दूसरों के प्रति सम्मान अनेक प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि आपको किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति से मिलने के लिए आमंत्रित किया गया है तो क्या आप हॉफ़पैंट और हवाई चप्पल पहनकर जाएँगे? नहीं। इसकी वजह यह नहीं है कि आप अच्छा दिखना चाहते हैं बल्कि आप उनके प्रति सम्मान दर्शाने के लिए थोड़ा अधिक प्रयास करना चाहते हैं। किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने का यह एक सामान्य शिष्टाचार है। जब आप अपने कार्यालय में टाई पहनकर जाते हैं, क्योंकि अतिथि वहाँ आने वाले हैं, तब आप ऐसा उनके प्रति सम्मान के प्रतीक के रूप में करते हैं। इसी तरह हम जिस प्रकार बोलते हैं या जिस प्रकार बैठते हैं और अपना सिर जिस तरह से रखते हैं, वह अपने आसपास के लोगों के प्रति आपके मनोभाव को प्रदर्शित करता है। यदि हम अतिथियों के सामने कंधे झुकाकर बैठते हैं तो भले ही हम एक शब्द भी न कहें, हमारा व्यवहार सब कुछ कह देता है। यह तब भी होता है जब हम बिना सच्चाई या भावना के बोलते और कार्य करते हैं।
वास्तव में, अनैच्छिक स्वीकार्यता जैसा कुछ नहीं होता। या तो आप की अनिच्छा होती है या फिर स्वीकार्यता। दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। जिस मनोभाव से आप परिस्थितियों को स्वीकार करते हैं उसी से सारा फ़र्क पड़ता है - जब आपका हृदय किसी परिस्थिति का तिरस्कार करता है तब आप उस परिस्थिति को स्वीकार करने के लिए स्वयं को विवश नहीं कर सकते। असली स्वीकार्यता हमेशा आनंदपूर्ण होती है। यदि लड़की या लड़का जिसे आप प्रेम करते हैं आपके प्रेम निवेदन को अस्वीकार भी कर दे तब भी आप खुश रहते हैं। प्रेम बदले में कुछ पाने के लिए नहीं किया जाता बल्कि प्रेम तो प्रेम के लिए ही होता है। यही निस्स्वार्थ प्रेम है जो प्रेम का एकमात्र सच्चा स्वरूप है। प्रेम को कुछ नहीं चाहिए। प्रेम में अपेक्षा का कोई स्थान नहीं होता, सिर्फ़ कृतज्ञता की जगह होती है। इसीलिए प्रेम मानवीय श्रेष्ठता का वास्तविक शिखर है।
प्रेम में अपेक्षा का कोई स्थान नहीं होता, सिर्फ़ कृतज्ञता की जगह होती है। इसीलिए प्रेम मानवीय श्रेष्ठता का वास्तविक शिखर है।
लेकिन जीवन चुनौतियों से भरा होता है और अपने प्रियजनों के साथ हमारे रिश्तों में कोई न कोई उतार-चढ़ाव होते ही हैं। प्रश्न यह उठता है कि हम इन परिस्थितियों को कैसे संभालते हैं और किस तरह इनसे बाहर निकलते हैं? यदि हम परेशानियों का शांतिपूर्वक, साहसी हृदय और बहुत सी हिम्मत के साथ सामना करते हैं तो हम अवश्य ही ज़्यादा मज़बूत बनकर उभरेंगे। लेकिन यदि हमने इन्हें स्वीकार नहीं किया तो हम कुछ भी नहीं सीख पाएँगे। जब हम परिस्थितियों को आनंदपूर्वक और प्रसन्नता से स्वीकार करते हैं तब हम सौंदर्य को उभरते देखते हैं। प्रत्येक स्थिति हमारे हाथ में है और यदि हम जीवन में आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमें यह समझना होगा कि सभी तरह की स्वीकार्यता हर्षपूर्ण स्वीकार्यता होती है।
और हम इसके परे भी जा सकते हैं – जहाँ पर सचेत होकर प्रसन्नता और कृतज्ञता के साथ स्वीकारने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि हम पहले ही इस मनोभाव से आगे बढ़ चुके हैं। तब किसी प्रतिक्रिया की ज़रूरत नहीं होती। यह पूर्ण स्वीकार्यता या पूर्ण समर्पण है और समर्पण की इस अवस्था में हम हमेशा वर्तमान में जीते हैं। हम वास्तविकता से इतर किसी अन्य चीज़ की अपेक्षा नहीं करते। जब हम जीवन में आने वाली सभी चुनौतियों को स्वीकार कर लेते हैं तब हम जीवन में खुशी-खुशी आगे बढ़ते हैं।
जीवन के प्रति हमारी प्रतिक्रियाएँ बहुत जटिल होती हैं और वे तब और भी अधिक स्पष्ट हो जाती हैं जब हम स्वयं से ये दो प्रश्न पूछते हैं - “मैं अपने दोषों को कितने अच्छे से स्वीकार करता हूँ?” और “मैं कितने अच्छे से दूसरों के दोषों और अपने आसपास की परिस्थितियों को स्वीकार करता हूँ?” कुछ समय अपनी प्रतिक्रियाओं पर गहराई से मनन करें क्योंकि यदि आप स्वीकार्यता का अभ्यास एक आदत के तौर पर या किसी दबाव में कर रहें हैं तो आप सिर्फ़ एक रस्म अदा कर रहे हैं। इसके बजाय जीवन की परिस्थितियों को पूरी सतर्कता और सजगता से स्वीकार करें, इसलिए नहीं कि कोई दूसरा ऐसा करने को कह रहा है।

जागरूक होना
क्या होता है जब आपके भीतर बेचैन कर देने वाली भावनाएँ उभरती हैं और आप उस परिस्थिति में प्रतिक्रिया करते हैं? उदाहरण के लिए, जब आप गुस्से में होते हैं। स्वयं से पूछें, “मेरे अंदर जो हो रहा है क्या उसके प्रति मैं सतर्क हूँ या अपने अवचेतन मन में निहित पैटर्न के अनुसार आदतन प्रतिक्रिया कर रहा हूँ?” अक्सर जागरूकता न होने के कारण हम प्रतिक्रियात्मक प्रत्युत्तर देने लगते हैं। अब प्रश्न यह है कि आप जागरूकता कैसे विकसित कर सकते हैं? उत्तर फिर वही है - ध्यान के द्वारा। ध्यान से आप अपनी जागरूकता को विस्तारित करना सीखेंगे ताकि आप अपनी प्रतिक्रियाओं और क्रोध जैसे भावनात्मक आवेगों का बेहतर प्रबंधन कर सकेंगे।
जब आप क्रोधित हों तो गौर करें कि यह ऊर्जा (क्रोध की) आपके शरीर में किस तरह दौड़ रही है। हमारा मध्य मस्तिष्क भय या खतरे की परिस्थितियों में बचाव की प्रतिक्रिया करने के लिए विकसित हुआ है इसलिए ऊर्जा का यह प्रवाह इस बात पर निर्भर करता है कि हम अपने आसपास की दुनिया को किस तरह से देखते हैं और हमारा अवचेतन मन किस चीज़ को खतरा मानता है। इसे दबाएँ नहीं, इसे अपने नियंत्रण में रहने दें और बस इसके प्रति जागरूक रहें। केवल गौर करने से ही अँधेरे में रौशनी नज़र आएगी जिससे शांति मिलेगी। वह ऊर्जा जिसने आपके क्रोध को शक्ति दी थी अब शांति और समस्या के समाधान को शक्ति देगी।
यदि आप केंद्रित रहते हैं तो क्रोधित होना असंभव है। आंतरिक शांति हिंसा के आवेग को समाप्त कर देती है। शांतिमय वातावरण में आपकी रचनात्मकता को सही अर्थ मिलता है। माताएँ अपने बच्चों का पालन-पोषण अच्छी तरह कर पाती हैं और आप प्रसन्नता व अन्य अनेक अद्भुत चीज़ों का आनंद ले सकते हैं। ध्यान करने से आपके जागरूक एवं वर्तमान में रहने की क्षमता विकसित होगी जिससे एक क्रोध भरी आवेगपूर्ण प्रतिक्रिया देने और समानुभूति व शांति से प्रतिक्रिया देने के बीच का अंतराल कम होता जाएगा।
साथ ही, आप स्वयं से प्रश्न करें कि आप क्रोध को काबू में क्यों करना चाहते हैं। क्या इसलिए कि आप मानते हैं कि यह पाप है या इसलिए कि यह तनाव पैदा करेगा और आपके शरीर को हानि पहुँचाएगा? हर समय क्रोधित होने से यह सोच एक बेहतर कदम है लेकिन यह सिर्फ़ नकारात्मक परिणामों को टालने की इच्छा है। इसके बजाय क्या आप वास्तविक करुणा का मनोभाव अपनाने के बारे में सोच सकते हैं? याद रखें कि यह मनोभाव ही है जो आपका भविष्य परिवर्तित करेगा। क्या आप दूसरों को चोट पहुँचाने से बचना चाहते हैं या सिर्फ़ आप अपने आपको सुरक्षित रखने के इच्छुक हैं? दयालुता और करुणा का मनोभाव रखने का विकल्प चुनना हमेशा बेहतर होता है।
हम इसके परे भी जा सकते हैं जहाँ पर सचेत होकर प्रसन्नता और कृतज्ञता के साथ स्वीकारने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि हम पहले ही इस मनोभाव से आगे बढ़ चुके हैं। तब किसी प्रतिक्रिया की ज़रूरत नहीं होती। यह पूर्ण स्वीकार्यता या पूर्ण समर्पण है और समर्पण की इस अवस्था में हम हमेशा वर्तमान में जीते हैं। हम वास्तविकता से इतर किसी अन्य चीज़ की अपेक्षा नहीं करते। जब हम जीवन में आने वाली सभी चुनौतियों को स्वीकार कर लेते हैं तब हम जीवन में खुशी-खुशी आगे बढ़ते हैं।
जब आपका हृदय संकुचित होता है, सिर्फ़ तब आप में स्वीकार्यता का भाव नहीं रहता। जब लोग आपके अपने होते हैं तब उन्हें और उनकी मूर्खताओं को स्वीकार करना सरल होता है। जब वे आपके नहीं होते हैं तब मामला अलग हो जाता है। लेकिन आध्यात्मिकता हमें संभावनाओं का एक नया संसार देती है।
इसलिए कृपया इस बारे में सोचिए। जब कभी भी आपके परिवार, आपके कार्यक्षेत्र के वातावरण या आपके सामाजिक दायरे में किसी परिस्थिति में स्वीकार्यता अपनाने की ज़रूरत हो तब उसका एक चुनौती के रूप में स्वागत करें और देखें कि आप कितनी दूर जा सकते हैं।
स्वयं को बदलने के लिए अपना मनोभाव बदलें
जैसे-जैसे आप प्रगति करते जाएँगे, आपका बाह्य व्यवहार धीरे-धीरे विकसित होकर आपकी आंतरिक अपरिवर्तनीय प्रकृति से मेल खाने लगेगा। जब तक आप उस अपरिवर्तनीय अवस्था से एकरूप न हो जाएँ, आपको लगातार परिवर्तित होते रहना होगा। स्थिरता की उस अवस्था तक पहुँचने से पहले आपको अस्तित्व की अनेक दशाओं से गुज़रना होगा। हर बार, आपको ऐसे अनुभव होंगे जो आपके आंतरिक परिवर्तनों को दर्शाएँगे। ये परिवर्तन अशांत करने वाले भी हो सकते हैं, क्योंकि भले ही ये सारे परिवर्तन सकारात्मक होते हैं और कुल मिलाकर हमारे व्यक्तित्व में अधिक संतुलन ही दर्शाते हैं, लेकिन फिर भी उनके आदी होने में कुछ समय लगता है। इसलिए जब तक आप अपरिवर्तनशील अवस्था तक नहीं पहुँच जाते तब तक आपके भीतर थोड़ी-बहुत बैचेनी बनी रहेगी।

इस पथ में कहीं न कहीं इन सारे अनुभवों के बीच आपका सामना अनुभवों के स्रोत या अपने रूपांतरण के आंतरिक कारण से होगा। वह क्षण महत्वपूर्ण होता है। आपका हृदय कृतज्ञता से पिघल जाएगा और आप बहुत भाव विभोर हो जाएँगे। आपको अपने आंतरिक ‘अस्तित्व’ से प्रेम हो जाएगा और आपका केंद्र-बिंदु बदल जाएगा। ऐसे में फिर अनुभव आपके लिए मायने नहीं रखते। शांति, प्रसन्नता या कोई भी गुज़रती अवस्था अब मायने नहीं रखती। जब स्वयं शांति का स्रोत आपको मिल जाता है तब आपको शांति की क्या ज़रूरत है? इस स्तर पर रूपांतरण के भी कोई मायने नहीं रह जाते। ध्यान अब प्रेम की एक सरल और शुद्ध गतिविधि बन जाता है। अब यह कुछ पाने या कुछ अनुभव करने के लिए नहीं होता, यह सिर्फ़ प्रेम होता है।
किसी को भी उसकी इच्छा के बिना नहीं बदला जा सकता – केवल स्वेच्छा से और प्रसन्नता से ही यह संभव है। आप दिल की गहराई से पूछें, क्या मैं सच में बदलना चाहता हूँ? इसके लिए इच्छा होनी चाहिए। इसमें अपने ऊपर काम करने का हमारा मनोभाव ही सबसे अधिक प्रभावी होता है क्योंकि हम अपने विचारों का नियमन करके, अपने काम करने के तरीके और भय, अपनी इच्छाओं और भावनात्मक प्रतिक्रियाओं, अपने हृदय की उदारता और इच्छाशक्ति पर काम करके अपनी नियति का निर्माण स्वयं करते हैं।
लिओ टॉलस्टाय ने एक बार कहा था, “हर कोई दुनिया बदलने के बारे में सोचता है लेकिन कोई भी स्वयं को बदलने के बारे में नहीं सोचता।” स्वयं को बदलने की इच्छा अपने भीतर सही मनोभाव उत्पन्न करने से ही आ सकती है। दुनिया को बदलने के लिए पहले स्वयं को बदलना होगा और फिर दूसरों को शामिल करने के लिए अपना दायरा बढ़ाना होगा। एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब हम सब मिलकर मानवता की दिशा बदल देंगे।
दुनिया को बदलने के लिए पहले स्वयं को बदलना होगा और फिर दूसरों को शामिल करने के लिए अपना दायरा बढ़ाना होगा। एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब हम सब मिलकर मानवता की दिशा बदल देंगे।