परिवार और मित्रगणों को पत्र

प्रिय दाजी, 

जिज्ञासु होने का क्या अर्थ है?

जिज्ञासा एक चिंगारी की ज्वाला बनने की ललक है।

प्रिय कैरोलीन,

एक जिज्ञासु वह है जो सच की तलाश करता है और अपनी इस खोज के प्रति उत्साहित रहता है। इस उत्साह के बिना एक छोटी सी चिंगारी एक प्रचंड ज्वाला कैसे बनेगी?

हम जहाँ पर भी हों वहीं से हम अपनी यात्रा शुरू करते हैं। क्या इसका कोई महत्व है कि हम अपनी यात्रा कहाँ से शुरू करते हैं? नहीं। महत्वपूर्ण है शुरू करना। शाश्वत सत्य के लिए हम अपनी यात्रा चाहे एक हिंदू के रूप में, एक ईसाई, एक मुसलमान, एक यहूदी या फिर एक नास्तिक के रूप में शुरू करें, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। जो महत्वपूर्ण है, वह है इसका अंतिम पड़ाव - अनंत उपस्थिति के स्रोत का साक्षात्कार हृदय के अंतरतम में होना, हमें अपने वास्तविक स्वरूप का एहसास होना, अपने अस्तित्व के चरम उत्कर्ष पर पहुँचना। अज्ञात की ओर यह यात्रा हमेशा हमारे अंदर की आवाज़ से मार्गदर्शित होती है, भले ही उसके संकेत और मार्गदर्शन किसी बुज़ुर्ग के मित्रवत सुझाव या पुस्तक के रूप में बाहर से आते प्रतीत हों। अक्सर हमारे अंतरतम से मिलने वाले संकेत अंदर ही दबे और अनसुने रह जाते हैं। उन्हें आसानी से प्राप्त नहीं किया जा सकता। केवल सतही चीज़ें ही आसानी से मिलती हैं। 

आंतरिक यात्रा में कई घुमाव होते हैं। कभी-कभी हमें आगे बढ़ने के लिए थोड़ा पीछे भी जाना पड़ता है। यह मार्ग आस्था और विश्वास की तरंगों से भरा है लेकिन कभी-कभी हम संदेह और अविश्वास से अभिभूत हो जाते हैं। इसी कारण आध्यात्मिकता एक साहसिक अनुभव बन जाती है।

आध्यात्मिकता क्या है? इस संस्कृत शब्द की उत्पत्ति आदि + आत्मा से हुई है जिसका अर्थ है आत्मा, अर्थात अपने अस्तित्व के केंद्र या मूल की ओर बढ़ना।

इसका अर्थ सतही व निरर्थक चीज़ों से तादात्म्य स्थापित न करना भी है। जैसे-जैसे हम अंदर की ओर बढ़ते हैं, हम सतही चीज़ों के परे जाने लगते हैं। हम सतही चीज़ों को त्यागते नहीं हैं, केवल उनके परे चले जाते हैं। हमें अपने आप को भौतिक जीवन से अलग करने की ज़रूरत नहीं है। इसका संबंध अनासक्त आसक्ति से है।

सत्य का जिज्ञासु अपने परिवार, काम और निजी स्वास्थ्य की उपेक्षा किए बिना हमेशा आध्यात्मिक खोज में व्यस्त रहता है। ऐसा जिज्ञासु या साधक दोनों पंखों से उड़ता है - वस्तुपरक संसार और व्यक्तिपरक संसार के पंखों से; यानी भौतिक क्षेत्र और आध्यात्मिक क्षेत्र या बाह्य जगत और आंतरिक जगत के पंखों से। इस वस्तुपरक संसार में रहते हुए भी हम अनंत चेतना के असीमित आकाश में स्वयं को प्रक्षेपित करने का 'पलायन वेग' (escape velocity) जुटा लेते हैं। वास्तव में वस्तुपरक यानी भौतिक संसार, सूक्ष्मतर क्षेत्रों में जाने का प्रशिक्षण देता है।

भौतिक संसार में कम सूक्ष्म संघर्षों को पार करते हुए सूक्ष्मतर क्षेत्रों पर प्रभुत्व पाने से हमें आध्यात्मिक क्षेत्र व उससे भी परे के क्षेत्रों पर प्रभुत्व प्राप्त करने में सहायता मिलती है। उदाहरण के लिए, पति-पत्नी का रिश्ता हमें अधिकाधिक स्वीकार्यता विकसित करने में सहायता करता है, बच्चों के साथ हमारा रिश्ता हमें वास्तव में विनम्र बनाता है, नाती-पोतों के साथ हमारा रिश्ता हमें अधिक प्रेममय बनाता है और दोस्तों से हम वफ़ादारी के सच्चे मायने सीखते हैं। यहीं पर ध्यानमयी मन का जादू चलता है। इससे हम ईश्वर के प्रति कृतज्ञ होते हैं जिसने हमें आध्यात्मिकता के पथ पर चलने के लिए चुना।

थोड़ा समय लेकर गौर करो कि अपने दैनिक जीवन में तुम अपने ध्यानमयी मन को किस तरह अभिव्यक्त कर रही हो। क्या तुम्हारे आंतरिक व बाह्य संसार में तालमेल है?

प्रेम व आदर सहित,

कमलेश


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दाजी

दाजी हार्टफुलनेसके मार्गदर्शक

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