सिद्धार्थ काक, एक भारतीय वृत्तचित्र और टीवी शो निर्माता एवं प्रस्तुतकर्ता हैं जिन्हें दूरदर्शन के प्रसिद्ध धारावाहिक, ‘सुरभि’के निर्माण और प्रस्तुति के लिए जाना जाता है। पूर्णिमा रामकृष्णन ने उनके आत्मसंयमी होने के बारे में उनका यह साक्षात्कार लिया है। वे दो अनोखी कहानियों के माध्यम से बता रहे हैं कि कैसे संस्कृति और भाषा सीमाओंसमय और अप्रत्याशित परिस्थितियों के परे निकल सकती हैं।

 

प्रश्न - हमारे साथ जुड़ने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। मेरा पहला प्रश्न यह है कि किसी कहानी के मर्म को प्रस्तुत करने में एक वृत्तचित्र के निर्माण और सामान्य फ़िल्म निर्माण में क्या भिन्नता है?

एक वृत्तचित्र का उद्देश्य उसके दर्शकों से संवाद स्थापित करना है। आप किन लोगों तक अपनी बात पहुँचाना चाहते हैं, उसके आधार पर आपका वृत्तचित्र भी बदल जाता है। वृत्तचित्र अध्यापन का एक माध्यम है। जब आप जन सामान्य के लिए कोई सामान्य फ़िल्म बनाते हैं तब आपको यह सुनिश्चित करना होता है कि उनकी रुचि बनी रहे। फ़िल्म में उनके लिए क्या है? वे उसे क्यों देख रहे हैं? वे वहाँ कुछ सीखने के लिए नहीं जाते हैं बल्कि आनंद लेने के लिए व मनोरंजन के लिए जाते हैं।

सच पूछें तो वृत्तचित्र बनाने का सिद्धांत है श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करना और इसका सबसे सरल तरीका यह है कि हम सुनिश्चित करें कि फ़िल्म उनकी समझ में आए। क्या एक आठ साल का बच्चा समझ सकता है कि आप क्या कहना चाह रहे हैं? अगर हाँ तो आपका वृत्तचित्र अच्छा है। और यह बड़ी संख्या में लोगों तक आपकी बात पहुँचा सकेगा। यह बात उन विशिष्ट वृत्तचित्रों के लिए भी लागू होती है जिसे सिर्फ़ उससे संबंधित कुछ लोग ही देखने वाले होते हैं। हो सकता है कि आप उसे दूसरे लोगों तक पहुँचना महत्वपूर्ण न समझें लेकिन आपका वृत्तचित्र उनको भी आपका दर्शक बना सकता है जो अभी आपका लक्ष्य नहीं हैं। चाहे आपका विषय कितना ही जटिल हो लेकिन आप वैज्ञानिकों से बात नहीं कर रहे हैं, आप आम जनता से बात कर रहे हैं। इसलिए अगर आप वृत्तचित्र शुरू होने के पहले मिनिट में ही उनका ध्यान आकर्षित नहीं कर पाते तो वे छोड़कर चले जाते हैं।

प्रश्न - आप कहानी सुनाने की कला के बारे में किए जा रहे शोध को किस तरह देखते हैं?

सबसे अच्छा शोध तो लोगों से बातचीत करने से ही हो सकता है। लेकिन यह एक अव्यवस्थित तरीका है क्योंकि इसमें बहुत अधिक जानकारी एकत्रित हो जाती है। अंतत: इस जानकारी को ठीक ढंग से प्रस्तुत करने की आपकी योग्यता मायने रखती है। अगर इसमें कुछ भी नया नहीं है तो इसमें लोगों की रुचि नहीं जागेगी, इसलिए इसमें कुछ सामान्य रुचि के तत्व भी होने चाहिए।

क्या आपको महान गणितज्ञ भास्काराचार्य के बारे में पता है? उन्होंने ‘लीलावती’ नामक पुस्तक लिखी थी। लीलावती उनकी आठ वर्ष की पुत्री का नाम था। उन्होंने अपनी पुत्री को गणित सिखाने के लिए यह पुस्तक लिखी थी। और आगे चलकर लीलावती स्वयं भी एक महान गणितज्ञ बनी।

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सुनिएविनम्र रहिए और संवाद करने का एक तरीका खोज निकालिए जिससे जो आप कहते हैंउसमें से सर्वोत्तम बातें अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच सकें।


उस पुस्तक में लिखी गणित की एक पहेली ऐसी थी - कल्पना कीजिए कि आप एक खेत में हैं। उस खेत के मध्य में एक खंबा है और खंबे के नीचे एक साँप की बांबी है जिसमें उस साँप का बिल है। खंबे के शीर्ष पर एक मोर बैठा है। खंबे की ऊँचाई 9 हाथ है (और इसी तरह अलग अलग नाप दिए हैं)। साँप खंबे के नीचे अपनी बांबी की ओर आ रहा है। मोर ने साँप को देखा और उसे पकड़ने के लिए उड़कर नीचे आया। अब भास्कराचार्य पूछते हैं, “लीलावती मुझे जल्दी से बताओ कि अगर मोर के उड़ने की अमुक गति है और साँप की अमुक गति है तो क्या वह साँप को उसके बिल में जाने के पहले पकड़ पाएगा या नहीं?”

इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए आपको समझना होगा कि खंबा सीधा गड़ा है यानी उसने पृथ्वी से समकोण बनाया है, साँप ज़मीन पर उसके समानांतर खंबे की ओर रेंग रहा है और मोर ठीक उसी कोण से ऊपर से नीचे आ रहा है। यह होता है कहानी सुनाना। जब आप एक वृत्तचित्र या कथाचित्र बनाते हैं तो आप कहानियाँ सुनाते हैं और इसी तरह आप लोगों से अपनी बात कहते हैं।

प्रश्न - आपने टीवी धारावाहिक ‘सुरभि,’ जो उस समय देश का सबसे लंबे समय तक चलने वाला सांस्कृतिक कार्यक्रम था, से क्या सीखा? इस कार्यक्रम का संचालक होने से आपका जीवन किस तरह प्रभावित हुआ?

जब मैंने ‘सुरभि’ शुरू किया तब मैं सिर्फ़ अंग्रेज़ी ही बोल पाता था। मेरी शिक्षा एक अंग्रेज़ी माध्यम के पब्लिक स्कूल में सहशिक्षा के वातावरण में हुई थी। मेरे दादा कश्मीर के अंतिम प्रधानमंत्री थे और मेरी सौतेली दादी स्कॉटिश थी। मेरा बहुत समय उनके साथ बीता इसलिए मैं अंग्रेज़ी बहुत अच्छी बोल लेता था। जब मैंने ‘सुरभि’ शुरू किया तो उसके माध्यम से मैं अचानक ही ग्रामीण भारत से जुड़ गया। सुरभि मेरे लिए भारत के बारे में शिक्षित होने का माध्यम बन गया।

इसके पहले, जिस भारत को मैं जानना चाहता और जिससे जुड़े होने पर मुझे गर्व था, मुझे उसके निकट लाने वाली एक और प्रेरणा थी। मैं बाबा आमटे के साथ काम करने लगा। वे अपने आश्रम में हज़ारों कुष्ठ रोगियों की सेवा करते थे। उनका यह आश्रम अभी भी है। चालीस साल पहले उन्होंने देश के दक्षिणी छोर से उत्तरी सिरे तक भारत की यात्रा शुरू की लेकिन रीढ़ की हड्डी की समस्या के कारण उन्होंने बस में लेटे रह कर यात्रा की। तब सैंकड़ों ग्रामीण युवाओं ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक की साइकिल यात्रा की थी ताकि वे भारत को समझ सकें और एक एकीकृत भारत के विचार को आत्मसात कर सकें। मैंने उस पर फ़िल्म बनाई थी और इसलिए मैं उनके साथ यात्रा पर गया।

अपने जीवन में मैं पहली बार बड़े शहरों से निकल कर छोटे शहरों और गाँवों में गया। मैंने उन लोगों का अतिथि सत्कार और प्रेम अनुभव किया। मुझे इतने अनुभव हुए कि मुझे पहली बार यह समझ आने लगा कि एक ऐसा संसार भी है जिसे मैं बिलकुल नहीं जानता। मैंने सोचा कि क्या मैं इस संसार को अन्य लोगों के मध्य ले जा सकता हूँ? ‘सुरभि’ कार्यक्रम के माध्यम से मुझे अंतत: इसके लिए मंच मिल गया।

सुरभि’ की खूबसूरती यह थी कि उसने मुझे विनम्रता सिखाई। मुझे एहसास हुआ कि मैं कुछ भी नहीं जानता। मैं अभी भी कुछ नहीं जानता हूँ। इससे मुझे सीखने में आनंद आता है। मुझे आपसे हॉर्टफुलनेस के बारे में जानने में आनंद आया। यह कुछ नया है, इसने मेरे ज्ञान में वृद्धि की है। मैं पहले से बेहतर हो गया हूँ।

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जिन कलाकारों को हमने सुरभि में प्रस्तुत कियावे नहीं सोचते थे कि वे महान हैं। वे तो बस अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे थे लेकिन वे उसी परंपरागत ढंग से जीवनयापन कर रहे थे जो वहाँ हज़ारों सालों से था।


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 सुरभि’ ने मुझे सिखाया कि एक ऐसा भारत भी है जिसके बारे में भारत के लोग भी नहीं जानते। क्या आपको लगता है कि एक किसान जो अपने खेत में काम करता है उसे या गाँव के लोगों को इसका खयाल भी है कि वे कितनी महान संस्कृति का हिस्सा हैं? वे सिर्फ़ अपना जीवन जी रहे हैं। यह भारत की अचैतन्य सुंदरता है। यह तथ्य कि भारत को अपनी महानता का भान नहीं है, यही उसकी महानता है। जिन कलाकारों को हमने सुरभि में प्रस्तुत किया, वे नहीं सोचते थे कि वे महान हैं। वे तो बस अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे थे लेकिन वे उसी परंपरागत ढंग से जीवनयापन कर रहे थे जो वहाँ हज़ारों सालों से था।

क्या आपने रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म ‘गाँधी’ देखी है? उसे कई पुरस्कार मिले थे। फ़िल्म के अंत में एक दृश्य है जिसमें वे अमेरिकन फ़ोटोग्राफ़र मार्गरेट ब्रुक से बात कर रहे हैं। और जब गाँधी जी अपनी अंतिम मीटिंग के लिए जाते हैं, जहाँ उनको गोली मार दी जाएगी, मार्गरेट ब्रूक कहती हैं, “एक ऐसा इंसान जा रहा है जिसके पास संसार को बदलने का एक रास्ता है। लेकिन न तो वह यह बात जानता है और न ही संसार जानता है।” वे संसार को बदल सकते थे लेकिन वे इसका प्रचार एक बड़े ब्रांड की तरह नहीं कर रहे थे। न तो उन्हें इस बात का भान था कि वे महान काम कर रहे थे और न ही संसार इसे जानता था। लेकिन अब संसार इसे जानता है। भारत की महानता इसी बात में है कि यह अपने आपको एक महान सभ्यता के रूप में प्रचारित नहीं करता।

मैंने जीवन के जिन बड़े-बड़े सिद्धांतों पर गौर किया है, उनमें से एक है विनम्र होना। गौर करना और सुनना। लेकिन हम सुनते ही नहीं हैं। अभी जब मैं आपसे बात कर रहा हूँ मैं उस चीज़ के बारे में बोल रहा हूँ जिसे मैं पहले से जानता हूँ। अगर मैं सुनूँ जैसे मैंने शुरुआत में आपको सुना तो मैं अधिक सीख सकता हूँ और अपने ज्ञान को बढ़ा सकता हूँ। इसलिए सुनिए, विनम्र रहिए और संवाद करने का एक तरीका खोज निकालिए जिससे जो आप कहते हैं उसमें से सर्वोत्तम बातें अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच सकें।

प्रश्न - धन्यवाद! मैंने आपकी पुस्तक पढ़ी है। मैं आपके दादाजी के कुछ गुणों से बहुत प्रभावित हुई - उनका प्रभावशाली चरित्र, संकल्प और उनकी दृढ़ता। उनकी मानसिक और भावनात्मक शक्ति भी प्रेरणादायक है।

मैंने अपना बचपन उनके साथ गुज़ारा है। प्रधानमंत्री के रूप में वे आम लोगों से मिलते थे। मेरे दादाजी में एक गुण था जो उम्मीद है मुझमें भी आया है, उसे ग्रीक दार्शनिक आत्मसंयम (stoicism) कहते हैं। वे आत्मसंयमी थे। वे अपने आपको अपने आसपास की चीज़ों से प्रभावित नहीं होने देते थे या ऐसा कभी नहीं दर्शाते थे कि वे उन चीज़ों से प्रभावित हुए हैं। जब जेल में बंद उनके पिताजी की मृत्यु हुई, उन्हें उसकी सूचना तब दी गई जब वे दरबार में थे। उस समय भी उनके चेहरे के भाव में कोई परिवर्तन नहीं आया। उन्होंने उसे सहजता से स्वीकार कर लिया। आत्मसंयम का संबंध स्वीकार करने से है और इसका संबंध माया से भी जोड़ा जा सकता है। जब हम अपने आसपास अवास्तविक चीज़ों को देखते हैं तब हमें उनको इतनी गंभीरता से क्यों लेना चाहिए? जीवन तो एक विकास यात्रा है, चीज़ें तो बदलेंगी और चक्र भी बदलेगा।

आत्मसंयमी लोग बिना अत्यधिक भावुकता और अतिप्रतिक्रिया के जीवन जीते हैं और जीवन के प्रति एक ध्यानमय दृष्टिकोण बनाए रखते हैं। मेरे दादाजी ने मुझे यही सिखाया और यह उनके लिए भी सुरक्षा कवच की तरह था क्योंकि उन्होंने राजनैतिक और भावनात्मक रूप से कई उतार-चढ़ाव देखे थे। उन्होंने उन सबका सामना समभाव से किया। शांतिपूर्ण धीरता ध्यानमयता के कारण आती है। जीवन में घट रही घटनाओं से कहीं अधिक महान स्वयं जीवन होता है। आप उन घटनाओं को देखते हैं और बिना विचलित हुए बुद्धिमत्ता से, भावुक हुए बिना प्रेमपूर्ण ढंग से प्रतिक्रिया करते हैं।

मैंने कभी उन्हें अपना आपा खोते नहीं देखा। यह आज की दुनिया के लिए, जहाँ सभी लोग बड़ी जल्दी क्रोधित हो जाते हैं, एक विशिष्ट उपलब्धि है। यह उनका विशेष गुण था। इस बात का कुछ उल्लेख इस पुस्तक में भी है और उम्मीद है कि लोग उसे पढ़ेंगे। यही कारण है कि हमने इसे यह नाम दिया है, ‘लव, एक्ज़ाइल एंड रिडेंपशन’ (प्रेम, निर्वासन, मुक्ति)।

प्रश्न - आप इन गुणों को कैसे समझ लेते हैं और इतनी सूक्ष्मता से इनके बारे में स्पष्ट रूप से कहे बिना कैसे अभिव्यक्त कर देते हैं?

आप मुझे बताएँ कि आप पक्षियों की चहचहाहट को कैसे समझते हैं? जब कोई पक्षी चहचहाता है और आपको वह अच्छा लगता है तो क्या आप उसका विश्लेषण करते हैं?

प्रश्न - नहीं।

जब सुबह-सुबह सूरज पहाड़ों के पीछे से उगता है और उसके प्रकाश से जब आसमान पृथ्वी को प्रकट करता है तो क्या आप इस सौंदर्य का विश्लेषण कर सकते हैं? इन चीज़ों के सौंदर्य को अभिव्यक्त करने के लिए आपको एक नहीं बल्कि तीन या चार तत्वों का अपनी अभिव्यक्ति में प्रयोग करना होगा। आपके पास आखिर है ही क्या? अंतत: जब आप निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं तो उसका भी वर्णन करना संभव नहीं है। आप भले वर्णन करने का प्रयास करें पर निर्वाण वर्णन से परे है। लेकिन वर्णन करने के लिए आपके पास संगीत, चित्र और शब्द हैं।


जिस तरह पुल बनाने के लिए आपको ईंटों की ज़रूरत होती है उसी तरह यहाँ संगीतशब्ददृश्य और एनीमेशन ही वे ईंटें हैं। इन साधनों का बुद्धिमत्ता से उपयोग करेंगे तो आप अपनी बात अच्छी तरह से बता पाएँगे।


जब कोई कलाकार एक खूबसूरत चित्र बनाता है और अगर उसे अभिव्यक्त करने के लिए संगीत और शब्दों का साथ मिले तो जो लोग चित्रकला नहीं समझते उन्हें भी शायद वह बेहतर ढंग से समझ आ सकेगी। जो लोग यह नहीं समझते कि चित्रकारी क्या है उन्हें आप संगीत, शब्द और चित्र के विभिन्न हिस्सों पर कैमरे द्वारा फ़ोकस करके उसके बारे में समझा सकते हैं। आप सिनेमा की भाषा के व्याकरण का उपयोग कर सकते हैं। तब आप किसी चीज़ के सौंदर्य और महत्व को अभिव्यक्त करते हैं, जो सिर्फ़ उस क्षेत्र के विशेषज्ञ लोगों को ही ज्ञात है, साधारण लोगों को नहीं। आप उनके मध्य एक सेतु बन जाते हैं।

जिस तरह पुल बनाने के लिए आपको ईंटों की ज़रूरत होती है उसी तरह यहाँ संगीत, शब्द, दृश्य और एनीमेशन ही वे ईंटें हैं। इन साधनों का बुद्धिमत्ता से उपयोग करेंगे तो आप अपनी बात अच्छी तरह से बता पाएँगे।

आपको जोड़ने वाली कड़ियाँ खोजनी होती हैं। उन शब्दों में समझाना होता है जिन्हें लोग समझते हैं। वैज्ञानिक से वैज्ञानिक की तरह नहीं, प्रोफ़ेसर से प्रोफ़ेसर की तरह नहीं बल्कि एक सामान्य व्यक्ति से सामान्य व्यक्ति की तरह संवाद करना होता है। जब आप एक सामान्य व्यक्ति की तरह से कहते, लिखते और सुनते हैं तो आप आठ साल की बच्ची की बात पर आ जाते हैं। क्या वह इसे समझ पाएगी?

जुड़ाव और भाषा के बारे में एक कहानी सुनाता हूँ। एक बार हम मध्य एशिया के उज़्बेकिस्तान में शूटिंग कर रहे थे। फ़िल्म बनाने के पहले दिन मैं कुछ लापरवाह हो गया था। उससे पहले हम आठ या दस देशों में शूट कर चुके थे और अपने घमंड में मैंने अध्ययन और शोध करके इसकी तैयारी नहीं की थी। मैंने सोचा, “जिन भी देशों में हम जाएँगे वहाँ हमें ज़रूरी मदद मिल जाएगी। लोगों ने हमेशा हमारी मदद की है।”

हम शाम के समय विमान से उतरे और सीधे अपने होटल चले गए। हमें उज़्बेकिस्तान के प्रशासन ने एक दुभाषिया दिया था लेकिन वह अंग्रेज़ी नहीं बोलता था। वह अत्यंत शुद्ध हिंदी बोलता था। हमारे लिए यह एक चुनौती थी क्योंकि हम हिंदी में उतने अच्छे नहीं थे लेकिन हमने काम चला लिया। एक दिन उसे एक अंत्येष्टि में जाना पड़ा और उसने कहा कि वह अगले दिन नाश्ते के समय होटल आ जाएगा। तब तक होटल के लोग हमारी मदद करने वाले थे।

जब हम होटल पहुँचे तो वहाँ एक साईन बोर्ड लगा था, “कृपया वाश बेसिन का पानी न पिएँ।” अमेरिका में आप नल का पानी पी सकते हैं लेकिन उज़्बेकिस्तान में नहीं। इसलिए हमारे पास पानी नहीं था। हमने रिसेप्शन में फ़ोन लगाया लेकिन वे भी हमारी बात नहीं समझे इसलिए उन्होंने सोडा भेज दिया। सोडे से प्यास नहीं बुझती। जो थोड़ा-सा पानी हमारे पास था, उससे और सोडे से हमने वह रात गुज़ार ली। अगले दिन सुबह नाश्ते की टेबल पर हमने पहली चीज़ जो अपने गाइड से पूछी वह यह थी कि हमें पानी कहाँ मिलेगा? वह भी कुछ समझा नहीं। हम निराश हो गए क्योंकि वह हमारी बात बिलकुल समझ नहीं पा रहा था।

अचानक उसकी आँखों में उत्साह दिखाई दिया। वह संस्कृत में समझ गया कि हम पानी माँग रहे थे। पीने के पानी की एक छोटी बोतल एक हज़ार रुपये की थी तो हमने कुछ ही बोतलें लीं क्योंकि हमारे पास पैसों की कमी थी। उसके बाद हमने फलों से ही प्यास बुझाने के तरीके खोजे।

बहरहाल हमने भाषा से संबंधित अपना पाठ सीख लिया। हमने यह भी सीखा कि हरेक स्थिति के लिए तैयार रहो। तैयार न रहने में थोड़ा जोखिम रहता है और एक कहानी भी बन जाती है लेकिन फिर भी बेहतर यही है कि हम तैयार रहें ताकि ज़्यादा परेशानी न हो।

पूर्णिमा, आपका धन्यवाद कि आपने मुझसे बात करने के बारे में सोचा।

आपके उत्तरों के लिए आपका बहुत धन्यवाद।

उन प्रश्नों के उत्तर देने के लिए भी जो आपने पूछे नहीं?

जी!


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सिद्धार्थ काक

सिद्धार्थ काक

सिद्धार्थ काक एक भारतीय वृत्तचित्र और टीवी शो निर्माता एवं प्रस्तुतकर्ता हैं जिन्हें दूरदर्शन के प्रसिद्ध धारावाहिकऔर पढ़ें

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