इस प्रेरणादायक साक्षात्कार में इनायती संप्रदाय के प्रमुख और हज़रत पीर मुर्शिद इनायत खान के पोते पीर ज़िया इनायत खानपूर्णिमा रामाकृष्णन के साथ बातचीत के दौरान एकीकरणचेतनाआत्मा के आयामहृदय की लय और आंतरिक परिदृश्य को प्रकाशित करने के बारे में सूफ़ी दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

प्रश्न - नमस्ते खान साहब। आज आपसे बात करने में मैं बहुत खुश हूँ व सम्मानित महसूस कर रही हूँ। क्या आप मुझे इनायती समाज के बारे में कुछ बता सकते हैं?

पीर ज़िया - पूर्णिमा जी, आपसे बात करना मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

इनायती सूफ़ीवाद की एक परंपरा है जो मेरे दादा हज़रत पीर मुर्शिद इनायत खान से शुरू हुई। उनका जन्म बड़ौदा में एक संगीतकारों के परिवार में हुआ था और वे खुद भी एक महान संगीतकार थे। उन्होंने एक संगीतकार के रूप में पूरे भारत की यात्रा की। युवावस्था में वे हैदराबाद चले गए, जहाँ उनकी मुलाकात सैय्यद अबू हाशिम मदनी से हुई जो बाद में उनके मुर्शिद या सूफ़ी गुरु बने।

अपने मुर्शिद के निधन से पहले उन्होंने कई वर्षों तक उनके साथ अध्ययन और अभ्यास किया। मृत्यु से पहले उनके मुर्शिद ने कहा, “आगे बढ़ो मेरे बेटे और अपने संगीत की समरसता से पूर्व और पश्चिम को एकजुट करो। इस उद्देश्य के लिए अल्लाह, सुभानहु वा त’आला (ईश्वर करे कि उनकी प्रशंसा हो और वे गौरवान्वित हों), तुम्हें आशीर्वाद देते हैं।”

उस आशीर्वाद से वे पहले भारत में अपनी यात्राएँ करते रहे और अंततः अपने भाइयों के साथ जहाज़ से यात्रा कर पहले अमेरिका और फिर यूरोप गए जहाँ उन्होंने कई वर्ष पश्चिम में यात्रा करने और शिक्षा देने में बिताए। इस तरह एक नए सूफ़ी संप्रदाय का जन्म हुआ, जो अमेरिका और पश्चिमी यूरोप में सबसे पहले स्थापित हुआ।

प्रश्न - धन्यवाद। ऐसा कहा जाता है कि मुर्शिदजी सूफ़ीवाद को पश्चिम में लेकर आए। मैंने ‘द इनर लाइफ़’ पुस्तक पढ़ी है जो अद्भुत है।

पीर ज़िया - हाँ, मुझे खुशी है कि आपने मेरे दादाजी की उत्कृष्ट कृति, ‘द इनर लाइफ़’, का ज़िक्र किया। उस पुस्तक में उन्होंने आध्यात्मिक विकास के एक तरीके का वर्णन किया है। इस प्रणाली में हमें अपने पूरे अस्तित्व को फिर से एकीकृत करना होता है। हममें से हर किसी को अनेक विरासतें प्राप्त हैं। हमें देवदूतों से, जिन्न, सितारों, तत्वों, पौधों और जानवरों से भी विरासतें मिली हैं। यह सब कुछ हमारे भीतर ही है। हम इस संपूर्ण ब्रह्मांड का एक सूक्ष्म स्वरूप हैं। लेकिन इसके साथ ही हम अपने आप में विभाजित व खंडित हैं। दीक्षा और जागृति के मार्ग का उद्देश्य है अपने अस्तित्व के इन विभिन्न पहलुओं को फिर से जोड़ना।

द इनर लाइफ़’ में पहली चीज़ जिस पर वे ज़ोर देते हैं वह है, अपनी आंतरिक यात्रा के लिए प्रयास करने तथा अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने के बाद अपने पाशविक आयाम को पुनः जानना। आध्यात्मिक दर्शनों में पाशविक आयाम की या तो उपेक्षा की गई है या उसे मानवीय स्थिति से निम्न स्तर समझकर खारिज कर दिया गया है। हज़रत इनायत खान के लिए पशु अवस्था हमारी मानव जाति का एक अनिवार्य आयाम है। इससे मात्र आगे बढ़ने के बजाए इसे एकीकृत किया जाना महत्वपूर्ण है।

इसका तात्पर्य है अपने स्थूल शरीर के संपर्क में रहना। इससे भागने के बजाए हमें इसे पूर्णरूपेण स्वीकार करना चाहिए। इसके लिए हमें अपनी साँसों की लय, अपने हृदय की लय, अपने हृदय व अंगों से प्रसारित होने वाली आकर्षण शक्ति और हमारी निगाह से प्रवाहित होने वाली रोशनी को जानना होता है। यह सब हमारे स्थूल शरीर के भीतर आत्मा को स्पष्ट रूप से प्रकट होने में योगदान देता है।

जानवर अपने शरीर के साथ काफ़ी तालमेल में रहते हैं, वे पूर्ण रूप से देहधारी प्राणी होते हैं। इसलिए इस मार्ग पर चलने वाले साधक के लिए पहला कदम इस पूर्ण देहधारी अवस्था में वापस लौटना है, जिसका पशु जगत प्रतिनिधित्व करता है।


अंततःसभी दीक्षाएँ उस व्यक्ति के भीतर आंतरिक अनावरण ही हैं जो उन्हें अनुभव करता है।


प्रश्न - क्या मैं जॉन कॉलट्रेन चर्च में आपके काम के बारे में कुछ पूछ सकती हूँ?

पीर ज़िया - बिलकुल! आप कुछ भी पूछ सकती हैं। हाल ही में हमें एक ऐसे समूह से जुड़ने का सौभाग्य मिला जो हर रविवार को आध्यात्मिक अभ्यास के रूप में ‘ए लव सुप्रीम’ सुनता है। इस समूह को सेंट जॉन कॉलट्रेन का चर्च कहा जाता है।

जब मैं सैन फ्रांसिस्को में था तब मुझे इसके संस्थापकों से मिलने और यह जानने का अवसर मिला कि हज़रत इनायत खान की शिक्षाएँ इस चर्च के लिए कितनी महत्वपूर्ण रही हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ये शिक्षाएँ स्वयं जॉन कॉलट्रेन के लिए कितनी महत्वपूर्ण थीं जिन्होंने संगीत और ध्वनि के रहस्यवाद का अध्ययन किया था। यह एक ऐसा विषय है जिसके बारे में मेरे दादाजी ने विस्तार से लिखा था। कॉलट्रेन इन शिक्षाओं को अन्य संगीतकारों के साथ साझा करते थे जिससे उन्हें जैज़ (jazz) समुदाय में इसे व्यापक रूप से प्रसारित करने का मौका मिला।

प्रश्न - आपके दादाजी ने दीक्षा के बारे में भी लिखा है। हार्टफुलनेस परंपरा और सूफ़ी परंपरा के अलावा मैंने इस विषय के बारे में और कहीं नहीं पढ़ा। इसलिए मैं इस पर आपके विचार सुनना चाहूँगी।

पीर ज़िया - दीक्षा के अनेक स्तर हैं। कुछ दीक्षाएँ एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को दी जाती हैं। अन्य दीक्षाएँ व्यक्ति के जीवन में स्वाभाविक रूप से होती हैं जो आंतरिक अनावरण, खोज या आत्मा के प्रकटीकरण से उत्पन्न होती हैं।

अंततः, सभी दीक्षाएँ उस व्यक्ति के भीतर आंतरिक अनावरण ही हैं जो उन्हें अनुभव करता है। लेकिन कुछ दीक्षाएँ सुगम बनाई जाती हैं जो किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा दिए गए आशीर्वाद से प्राप्त होती हैं जो स्वयं दीक्षा के मार्ग पर चल चुका है, जाग्रति का अनुभव कर चुका है और दूसरों में भी उसकी तड़प पैदा कर सकता है।

जो व्यक्ति आग में तपा और जला हो वही उस आग को उन लोगों तक पहुँचा सकता है जो इसे ग्रहण करने के लिए तैयार हैं। इस तरह दीक्षा की यह आग सारे संसार में फैलती है और इसी प्रकार यह प्रेषित होती है।

प्रश्न - आपके विचार में दीक्षा प्राप्त व्यक्ति के कर्तव्य और ज़िम्मेदारियाँ क्या हैं?

पीर ज़िया - कुछ दीक्षाओं में वंशावली के आशीर्वाद को प्राप्त करना होता है। सूफ़ीवाद में दो प्रकार की प्राप्तियाँ या प्रवेश हैं -

1. आशिक दीक्षा, जिसे बया’ अल-तवार्रुक के नाम से जाना जाता है, आशीर्वाद की प्रतिज्ञा है। इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति संघ का मित्र बन जाता है। व्यक्ति इस परंपरा के प्रति सम्मान और इस मार्ग पर चलने वालों के प्रति आदर की भावना रखता है। इसके साथ कोई विशेष कर्तव्य नहीं जुड़े हैं और व्यक्ति किसी अलग आध्यात्मिक मार्ग का भी अनुसरण कर सकता है।

2. तालिब दीक्षा, जिसे बया अल-हकीका के नाम से जाना जाता है। यह उन लोगों के लिए है जो वास्तव में महसूस करते हैं कि उन्होंने अपना आध्यात्मिक घर पा लिया है। उन्होंने आंतरिक शिक्षा के उस पंथ की खोज कर ली है जहाँ वे अध्ययन करना चाहते हैं। ऐसा व्यक्ति इस पवित्र कार्य के लिए अपना ध्यान, प्रयास और एकाग्रता समर्पित करने के लिए तैयार होता है।

 

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जब दीक्षा दी जाती हैतो इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति आध्यात्मिक धारा से जुड़ चुका है। मेरे दादाजी ने इसे एक उपकरण के रूप में वर्णित किया है जिसे बिजली के प्लग की तरह स्रोत से जोड़ दिया जाता है। एक बार संपर्क जुड़ जाने के बाद यह सीधे स्रोत से ऊर्जा प्राप्त कर प्रकाशित होता है।


यह दूसरी दीक्षा सहज ही नहीं दे दी जाती। साधक को इसके लिए तैयार होने में कुछ समय लग सकता है या यह भी हो सकता है कि जो एक जुड़ाव प्रतीत हो रहा था, वह सिर्फ़ एक क्षणिक विचार ही था। यही कारण है कि सच्ची दीक्षा केवल तभी दी जाती है जब उसे दिया जाना चाहिए और जब दीक्षा प्राप्त करने वाला व्यक्ति उसके योग्य और सच्चा होता है।

जब दीक्षा दी जाती है, तो इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति आध्यात्मिक धारा से जुड़ चुका है। मेरे दादाजी ने इसे एक उपकरण के रूप में वर्णित किया है जिसे बिजली के प्लग की तरह स्रोत से जोड़ दिया जाता है। एक बार संपर्क जुड़ जाने के बाद यह सीधे स्रोत से ऊर्जा प्राप्त कर प्रकाशित होता है।

इस धारा से जुड़ने का अर्थ है दीक्षित व्यक्ति वह सारी कृपा, बरकाह और जाग्रति प्राप्त करता है जो पीढ़ियों से, गुरु से शिष्य तक और प्राणी से प्राणी तक प्रवाहित होती रही है। प्रत्येक दीक्षित आत्मा आध्यात्मिक ऊर्जा की एक अद्भुत तरंग से जुड़ी होती है।

यह दीक्षा का ही चमत्कार है जो आपको अपनी अहंकारी पहचान की सीमाओं से परे ले जाता है। जाग्रति कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसके लिए हम अकेले में प्रयास करते हैं। जाग्रति का अर्थ ही अलगाव के भ्रम से परे जाना है।

तो वह क्या है जो हमें अलगाव से परे ले जाता है? यह वह तरंग है, एक शक्ति है जो हमें अनेक प्राणियों से जोड़ती है और सभी एकात्मकता की ही अनुभूति को प्राप्त कर रहे हैं।


हम स्वयं के प्रति ज़िम्मेदार हैं। हम अपने विचारअपने शब्द और अपने कर्म स्वयं चुन सकते हैं। यदि हम इस ज़िम्मेदारी को गंभीरता से लें और सुंदरता व सच्चाई प्राप्त करने के अपने उच्चतम लक्ष्य के अनुरूप चुनाव करें तो यह अपने आप में संसार की सबसे बड़ी सेवा होगी। इसी उद्देश्य के लिए हम पैदा हुए हैं।


प्रश्न - हम बड़े पैमाने पर चेतना के विकास में योगदान कैसे दे सकते हैं?

पीर ज़िया - सबसे पहली और महत्वपूर्ण बात यह है कि सबसे उत्तम योगदान जो हम दे सकते हैं, वह है कि जैसा हम संसार को देखना चाहते हैं, हम स्वयं वैसा बनें, उसे साकार करें, उसे जिएँ।

 

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यदि हम संसार में शांति चाहते हैं तो हमें सबसे पहले अपने भीतर शांति विकसित करनी होगी और उसके अनुसार जीवन जीना होगा। ऐसा करके हम आश्वस्त हो सकते हैं कि हमने वह सब कुछ कर लिया है जो हम कर सकते थे क्योंकि हम दूसरों को तो बदल नहीं सकते लेकिन हमारे पास एक अनूठा विशेषाधिकार है – हम स्वयं के प्रति ज़िम्मेदार हैं। हम अपने विचार, अपने शब्द और अपने कर्म स्वयं चुन सकते हैं। यदि हम इस ज़िम्मेदारी को गंभीरता से लें और सुंदरता व सच्चाई प्राप्त करने के अपने उच्चतम लक्ष्य के अनुरूप चुनाव करें तो यह अपने आप में संसार की सबसे बड़ी सेवा होगी। इसी उद्देश्य के लिए हम पैदा हुए हैं।


यह यात्रा उन हिस्सों यानी शरीरमनहृदय और आत्मा को फिर से जोड़ने और उनके मध्य संपर्क साधने के बारे में है - ताकि ये सभी क्षमताएँ एक एकीकृत इकाई के रूप में काम कर सकें।


प्रश्न - तो आपका सुझाव है कि हमें स्वयं को अपना बेहतर से बेहतर स्वरूप बनाने का प्रयास करते रहना चाहिए तथा विश्व में जो परिवर्तन हम देखना चाहते हैं उसे स्वयं में साकार करने का प्रयास करना चाहिए।

पीर ज़िया - मुझे नहीं पता कि मैं ‘बेहतर’ शब्द का प्रयोग करूँ या नहीं। मैं इसके बजाए ‘अधिक संपूर्ण’ कहना चाहूँगा क्योंकि हम खंडित हो गए हैं। यह यात्रा उन हिस्सों यानी शरीर, मन, हृदय और आत्मा को फिर से जोड़ने और उनके मध्य संपर्क साधने के बारे में है - ताकि ये सभी क्षमताएँ एक एकीकृत इकाई के रूप में काम कर सकें।

यह ब्रह्मांड एक एकल वास्तविकता है जिसमें शरीर, मन और आत्मा एक हैं तथा हम में से प्रत्येक उस एकता का एक सूक्ष्म स्वरूप है। लेकिन हम एक ऐसे धरातल पर रहते हैं जहाँ वास्तविकता के प्रति हमारा दृष्टिकोण बहुत सीमित है तथा हम अपना ध्यान केवल उसी पर देते हैं जो दिखाई देता है। दरअसल स्थूल शरीर से परे भी कई आयाम हैं।

हम आत्मा के आयाम को अनदेखा कर देते हैं जहाँ सब कुछ आध्यात्मिक मिलन के रूप में अनुभव किया जाता है जहाँ जीवित रोशनियाँ उपस्थिति के माध्यम से संवाद करती हैं। यह स्तर इसलिए भुला दिया जाता है क्योंकि हम औपचारिकताओं, बाहरी संरचनाओं और जीवन के दिखावे में व्यस्त रहते हैं।

इसी तरह हम हृदय के आयाम की भी उपेक्षा करते हैं जहाँ भावनात्मक प्रतिध्वनि होती है। इस स्तर पर हम जिन भावनाओं का अनुभव करते हैं वे मात्र अमूर्त नहीं हैं। वे इस मेज़ या कुर्सी की तरह ही वास्तविक और स्पृश्य हैं। हृदय की भावनात्मक धाराएँ ऐसे परिदृश्य बनाती हैं जो भौतिक वस्तुओं के धूल में मिल जाने के बाद भी लंबे समय तक टिके रहते हैं।

लेकिन साथ ही हमें भौतिक दुनिया की अवहेलना नहीं करनी चाहिए या इसे निचले स्तर का या अनुपयुक्त नहीं समझना चाहिए। भौतिक संसार आंतरिक संसार का ही मूर्त रूप है। आत्मा ने स्वयं ही इसी प्रकार से प्रकट होना, शरीर धारण करना और अवतरित होने का अनुभव करना चाहा था। लेकिन अवतरित होने की प्रक्रिया में आत्मा स्वयं को भूल गई। इसने अपनी मूल जागरूकता खो दी। हम यह मानने लगे कि हम केवल एक निश्चित रूपरेखा वाला यह शरीर हैं। इसलिए पहला कदम इस रूपरेखा को धुंधला करके यह पहचानना है कि हम जो सीमाएँ महसूस करते हैं, वे पूर्णतया सच नहीं हैं।

उदाहरण के लिए, हम मानते हैं कि हमारा शरीर हमारी त्वचा पर समाप्त हो जाता है। लेकिन हमारी साँस हमसे आगे तक जाती है जो दूसरों की साँसों के साथ घुलमिल जाती है। अभी इस क्षण में भी हम परस्पर साँस ले रहे हैं, हवा और ऊर्जा साझा कर रहे हैं। हम प्रकाश का आदान-प्रदान भी कर रहे हैं क्योंकि शरीर प्रकाश और आकर्षण शक्ति का उत्सर्जन करता है।

हमारे विचार हम तक ही सीमित नहीं रहते। वे यात्रा करते हैं, दूसरों के मन में प्रवेश करते हैं। हर समय बहुत सारा आदान-प्रदान होता रहता है।

इस प्रकार स्व की सीमा स्थायी अथवा अचल नहीं है। यह परिवर्तनशील और गतिशील है। जब हम इस परस्परसंबद्धता को फिर से जानने लगते हैं तब यह हमें अपनी पूर्वकल्पित अहंकारी सीमाओं से परे ले जाता है। यह हमारी समानुभूति की क्षमता बढ़ाता है और हमें अस्तित्व की विशाल, बहुआयामी प्रकृति के प्रति जागरूक करता है जहाँ कई स्तर एक-दूसरे से मिलते हैं और सभी शाश्वत जीवन को अभिव्यक्त करते हैं।

 

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बहुत, बहुत धन्यवाद!

पीर ज़िया - बहुत-बहुत धन्यवाद पूर्णिमा जी। आपसे मिलकर और आपसे बात करके बहुत अच्छा लगा ।


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पीर ज़िया इनायत खान

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