प्रिय पिताजी,
चेतना की उच्चतर अवस्थाओं का अनुभव करने का क्या अर्थ है?
प्रिय सहज और मार्ग,
मैंने अपने पिछले पत्र में बताया था कि चेतना जागरूकता से संबंधित है बल्कि यह जागरूकता का स्तर है जिसका अर्थ जागरूकता की कमी का स्तर भी है और यह भी कि हम इस जागरूकता के साथ विभिन्न परिस्थितियों में किस तरह प्रतिक्रिया करते हैं। इसके अनुसार सबसे कम जागरूक व्यक्ति सबसे कम विकसित होता है।
इसके अलावा कुछ लोग जागरूक तो होते हैं लेकिन प्रतिक्रिया नहीं करते। उदाहरण के लिए, कुछ लोग किसी भूखे को देखते हैं और उनका हृदय द्रवित हो जाता है। वे इस बात से दुःखी तो होते हैं लेकिन वापस घर चले जाते हैं। उनका हृदय दयालु है लेकिन इतना दयालु नहीं कि उस परिस्थिति में कुछ करें। इस दृष्टिकोण से अहिंसा महान है लेकिन करुणा उससे भी अधिक महान है।
इसे एक और नज़रिए से देखते हैं। चेतना को आंतरिक स्वतंत्रता के सूचक के रूप में भी देखा जा सकता है। आंतरिक स्वतंत्रता का अर्थ है संज्ञानात्मक पूर्वाग्रहों, पूर्वानुकूलन या संस्कारों का न होना। जब आप हृदय की अनुभूतियों के विरुद्ध कोई कार्य करते हैं तो आपको कैसा लगता है? जैसे आप किसी को सबसे शक्तिशाली अस्त्र - किसी कड़वे सत्य को सामने लाना, किसी को उसकी गलतियाँ बार-बार याद दिलाना, या, “मैंने पहले ही कहा था!” जैसी बातों - से आहत करते हैं। यह जानी-मानी बात है कि जब भी हम दिल की भावनाओं के खिलाफ़ कुछ करते हैं तो हमें परिणाम भुगतना ही पड़ता है। दिल डूब जाता है और हमारी भावनाएँ भारी हो जाती हैं। इससे हमारी चेतना का मुक्त प्रवाह प्रभावित होता है। यहाँ तक कि चेतना का मुक्त-प्रवाह भी परम अवस्था नहीं है क्योंकि इसे स्थिर, शांत और प्रभाव-मुक्त होना है।
न्यूरोप्लास्टिसिटी, चेतना का लचीलापन और चेतना की नम्यता सभी का अर्थ बाहरी और आंतरिक वातावरण से समायोजन करने की क्षमता है। बौद्ध धर्म ने इसे ‘शोशिन’ यानी ‘आरंभकर्ता का मन’के रूप में वर्णित किया है।
इस क्षमता की कमी से हम या तो अधिक बहिर्मुखी होते जाते हैं या अधिक अंतर्मुखी। एक अंतर्मुखी स्वभाव भी चरम स्थिति है फिर भले ही यह आंतरिक जीवन की ओर उन्मुख हो। अंतर्मुखी लोग सांसारिक जीवन और कर्तव्यों के प्रति ज़्यादातर लापरवाह होते हैं। बहिर्मुखी स्वभाव भी दूसरे चरम पर होता है जैसे एक छड़ी के दो सिरे हों। ज़रूरत के अनुसार दोनों दिशाओं में चलने का अर्थ है अस्तित्व के आध्यात्मिक और सांसारिक दोनों ही पहलुओं को संतुलित करते हुए सभी परिस्थितियों पर नियंत्रण रखना।
कभी-कभी जब हम स्वयं को सहज और आराम की स्थिति में पाते हैं तब क्या हमें बदलने या रूपांतरण की आवश्यकता महसूस होती है? जब हम कठिन परिस्थितियों में घिरे होते हैं तभी हम बदलने की ज़रूरत महसूस करते हैं। यह स्वाभाविक है। इसके परिणामस्वरूप हम इन तीन में से कोई एक या एक से अधिक काम करने पर मजबूर हो जाते हैं - दुःख का कारण बनने वाली परिस्थितियों को बदलना, अपनी समझ को बदलना या परिस्थिति के अनुकूल बनना सीखना।
चेतना पर हमारा नियंत्रण पसंद-नापसंद, शांति-अशांति, प्रेम-घृणा, साहस-भय आदि द्वंद्वों से ऊपर उठने की क्षमता में भी दिखाई पड़ता है। संक्षेप में, यह माया पर प्रभुत्व है। क्या इस भौतिक संसार में कभी ऐसा दिन भी आएगा जब हम दूसरों की भावनाओं, शब्दों, कार्यों, इरादों और विचारधारा के प्रति प्रतिक्रिया नहीं करेंगे? जिस दिन हम आवश्यकता पड़ने पर खुद को रोक पाने और एक अच्छे इरादे के साथ खुद को व्यक्त करने की कला में महारत हासिल कर लेंगे, वह दिन जीवन में सबसे धन्य होगा। सिद्धांत और सही तरीका अच्छी तरह से समझ तो लिया जाता है लेकिन इसे व्यावहारिक रूप में करना अलग बात है। हमारा जीवन एक सरल सिद्धांत पर चलता है - बाहरी उत्तेजना और हमारी आंतरिक प्रतिक्रिया।
इस नज़रिए से हम देख सकते हैं कि चेतना पर हमारा प्रभुत्व हमारे कार्यों और प्रतिक्रियाओं पर नियंत्रण रखने से संबंधित है। संक्षेप में कहें तो यह अहंकार पर प्रभुत्व पाना है।
क्या एक विकसित व्यक्ति कहेगा, “मैं ये परिस्थितियाँ सहने में असमर्थ हूँ,” या “मैं यह नहीं सुन सकता,” या “मैं यह अपमान सहन नहीं कर सकता,” या “मैं अमुक व्यक्ति से सहमत नहीं हूँ।” ऐसी मनोवृत्ति सामने नहीं आएगी। विकसित व्यक्ति न तो किसी से बदला लेना चाहेगा और न ही वह किसी को चोट पहुँचाना चाहेगा। ऐसा व्यक्ति उन सभी प्रतिक्रियाओं से ऊपर और परे होता है जिनके अधिकतर लोग शिकार हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति का हृदय एक विशेष आवरण से सुशोभित होता है और उस आवरण का प्रत्येक परमाणु साहस और अनंत आशावाद की ऊर्जा से भरा होता है क्योंकि ऐसे व्यक्ति को अपने निर्माता में अत्यधिक विश्वास होता है।
जब हमें कोई बहुत करीबी साथी धोखा देता है या गलत समझता है तब हम परेशान और बहुत दुःखी हो जाते हैं। वह साथी जितना करीबी होता है, दुःख उतना ही अधिक होता है। एक विशेष परिस्थिति के बारे में सोचें कि आपके एक तरफ़ खड़ी चट्टान है और दूसरी तरफ़ एक सिंह आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। चाहे कुछ भी हो आप पर असर तो होना ही है। ऐसे में क्या किया जा सकता है? किस तरह की प्रतिक्रिया में ज़्यादा समझदारी होगी? आपको परिस्थिति को समझना होगा और हमेशा दूसरे को सही मानते हुए नुकसान से बचने की कोशिश करते हुए प्रतिक्रिया करनी होगी। अगर एक छोटी-सी क्षमा प्रार्थना समस्या को सुलझा देती है तो आप खुद को भाग्यशाली समझें।
इसके अतिरिक्त आवेश में प्रतिक्रिया न करने से भीतर एक विशिष्ट अवस्था निर्मित होती है। दुःख में घिरे रहने से व्यक्ति के हृदय की शक्ति बढ़ती है। इसलिए क्रोधित होने में कोई बुराई नहीं है। बस हममें उसे थामे रखने और उसकी अभिव्यक्ति को रोकने की क्षमता होनी चाहिए। अपने क्रोध को अभिव्यक्त न करना आपको मज़बूत बनाता है।
विकसित चेतना एक सुंदर रेशम के धागे की तरह कोमल तथा इस्पात के धागे से भी अधिक मज़बूत होती है। भगवान राम की चेतना का वर्णन “वज्रादपि कठोराणि मृदुणि कुसुमादपि (हीरे से भी अधिक दृढ़ और मज़बूत, फिर भी फूल से भी अधिक कोमल और संवेदनशील) के रूप में किया गया था। इसका मतलब है, आध्यात्मिक और सांसारिक कर्तव्यों के प्रति संवेदनशील होने के साथ प्रतिदिन की समस्याओं को संभालने में अत्यधिक सक्षम होना।
यह स्पष्टीकरण कुछ लंबा हो गया है। मुझे आशा है कि मैं उच्चतर चेतना से संबंधित गुणों को समझा सका हूँ।
ढेर सारे प्रेम के साथ,
तुम्हारा पिता
प्रिय सहज और मार्ग,
पिछले पत्र में आगे जोड़ते हुए मैं प्रिय बाबूजी के कुछ महान गुणों की चर्चा करना चाहता हूँ। ये गुण भी अप्रत्यक्ष रूप से चेतना की विकसित अवस्था के बारे में बताते हैं।
उनके कार्य के लिए यह आवश्यक था कि वे दूसरों की ज़रूरतों को समझ सकें। वे आध्यात्मिक कार्य करते हुए भी किसी व्यक्ति को सहज और शांतिपूर्ण महसूस करा सकते थे। अभ्यास के अपने दिनों में वे अपने मालिक द्वारा किए गए कार्य को पहले ही समझ लेते थे। जैसे ही लालाजी महाराज पहुँचते, वे स्वयं को व्यवस्थित कर लेते, अपनी टोपी पहन लेते और ग्रहणशील हो जाते।
अक्सर लालाजी के अपने विचार या प्रश्न को पूरा करने से पहले ही बाबूजी उसे स्पष्ट रूप से पूरा समझ लेते और उसका हल प्रस्तुत कर देते थे। उनकी चेतना के स्तर की प्रशंसा में स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि किसी उच्चतम क्षमता के संत के लिए भी बाबूजी की चेतना के निम्नतम स्तर तक पहुँच पाना कठिन होगा।
इसलिए, इस दृष्टिकोण से इसका अर्थ संवेदनशीलता विकसित करना, दूसरों की आवश्यकताओं को समझ लेना और उचित उपाय के साथ प्रत्युत्तर देना है।
मेरे विचार से अभी इतना काफ़ी है।
ढेर सारे प्रेम के साथ,
तुम्हारा पिता