कृपा, प्राणाहुति, शक्तिपात और प्राण-प्रतिष्ठा पर एक संवाद

दाजी चार परिवर्तनकारी प्रक्रियाओं पर स्पष्टीकरण देते हुए बताते हैं कि कृपा सबसे भिन्न क्यों है। इसे अपूर्वा पटेल ने सुचित और केशव के साथ हुई बातचीत से संकलित किया है।

 

सुचित - दाजी, हार्टफुलनेस अभ्यास में हम प्राणाहुति के बारे बहुत सी बातें सुनते और पढ़ते हैं। यह अन्य प्रकार के आध्यात्मिक संचार, जैसे प्राण-प्रतिष्ठा या शक्तिपात से किस प्रकार अलग है?

बातचीत शुरू करने के लिए यह बहुत अच्छा विषय है। प्राणाहुति अन्य पद्धतियों से बिलकुल अलग है हालाँकि लोग अक्सर उन्हें एक-दूसरे से मिला देते हैं। मैं आपको चार विभिन्न वास्तविकताओं - प्राणाहुति, प्राण-प्रतिष्ठा, शक्तिपात और कृपा - के बारे में बताता हूँ। इनमें से प्रत्येक का अपना स्वरूप, विशिष्ट प्रक्रिया और उद्देश्य है।

अपूर्वा - आध्यात्मिक साधक शायद इन चारों को एक ही चीज़ के अलग-अलग रूप यानी भौतिक जगत में दिव्यता को संचारित करने के अलग-अलग तरीके मान सकते हैं, है न?

अधिकतर लोग यही गलती करते हैं। चलिए हम एक-एक को समझते हैं और देखते हैं कि वे कितने श्रेष्ठ रूप से एक-दूसरे से अलग हैं। सबसे पहले प्राणाहुति की बात करते हैं जो हमारे सहज मार्ग (हार्टफुलनेस) अभ्यास का आधार है। संस्कृत में प्राणाहुति का अर्थ है प्राणों की आहुति। हमारी पद्धति में, जैसा कि बाबूजी ने बहुत स्पष्टता से परिभाषित किया है, यह लोगों में बदलाव लाने के लिए ईश्वरीय शक्ति का उपयोग है। यह कोई सिद्धांत नहीं है, बल्कि यह वास्तविकता है।

केशव - प्राणाहुति वास्तव में कैसे काम करती है?

प्राणाहुति एक समर्थ गुरु के हृदय से सीधे उस व्यक्ति के हृदय में प्रवाहित होती है जो इसे प्राप्त करता है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका संचरण संकल्प-शक्ति से शुरू होता है। गुरु की सचेत-इच्छा के मुख्यतः दो प्रकार के आध्यात्मिक प्रभाव होते हैं। पहला है - बाधाओं से मुक्ति जिसमें संस्कार या छापें जो प्रगति में बाधक हैं, उन्हें खत्म किया जाता है। दूसरा प्रभाव है - आध्यात्मिक अवस्थाएँ प्रदान करना। प्राणाहुति साधक में सीधे कुछ आध्यात्मिक अवस्थाएँ ला या पैदा कर सकती है जिससे उसकी चेतना उन्नत होती है। इसके प्रभाव से उन्नतिशील तथा क्रमानुसार रूपांतरण होता है।

केशव - लेकिन क्या संचारित किया जाता है? यह ऊर्जा क्या है?

प्राणाहुति का अर्थ है ‘प्राणों का प्राण’। इसलिए प्राणाहुति एक सामान्य प्राण-शक्ति नहीं है बल्कि सबसे ज़्यादा परिष्कृत दिव्य सत्व है। आप इसे दिव्य ऊर्जा, परम ऊर्जा या अति सूक्ष्म चेतना कह सकते हैं। यही प्राणाहुति को विशेष बनाती है। इसे हम ‘बल-रहित बल’ या ‘शक्तिहीन शक्ति’ कहते हैं।

अपूर्वा - लेकिन यह अपने आप में विरोधाभासी प्रतीत होता है।

यह ऐसा लगता तो है लेकिन ये विरोधाभासी शब्द ही इसके सत्व को ठीक से व्यक्त करते हैं। प्राणाहुति किसी तरह का प्रतिरोध या प्रतिक्रिया उत्पन्न किए बिना काम करती है जबकि सामान्य बल के विषय में ऐसा नहीं होता। इसे हम एक उदाहरण से समझते हैं। यदि आप अपने बच्चों पर चिल्लाते हुए उन्हें बुरी तरह से डाँटते हैं तब क्या होता है?

अपूर्वा - वे तुरंत प्रतिक्रिया करेंगे - वे या तो बहुत ज़्यादा नाराज़ हो जाएँगे या रक्षात्मक हो जाएँगे।

बिलकुल सही। बल प्रयोग से लोगों में प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है लेकिन क्या यह वास्तव में उनमें बदलाव लाता है? आम तौर पर नहीं। बल प्रयोग हमेशा एक त्वरित प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है लेकिन प्रेम बिना लोगों की प्रतिक्रिया के उन्हें बदल सकता है। प्राणाहुति वह प्रक्रिया है जिसमें हमारे हृदय में दैवीय प्रेम उड़ेल दिया जाता है। चूँकि यह बलपूर्वक नहीं किया जाता, यह अनंत दूरियों के बावजूद भी और हर समय कार्य करता है। प्रेम ही समस्त बाधाओं को पार करता हुआ काम कर सकता है।


प्राणाहुति का अर्थ है ‘प्राणों का प्राण’। इसलिए प्राणाहुति एक सामान्य प्राण-शक्ति नहीं है बल्कि सबसे ज़्यादा परिष्कृत दिव्य सत्व है। आप इसे दिव्य ऊर्जापरम ऊर्जा या अति सूक्ष्म चेतना कह सकते हैं। यही प्राणाहुति को विशेष बनाती है। इसे हम ‘बल-रहित बल’ या ‘शक्तिहीन शक्ति’ कहते हैं।


केशव - और ‘शक्तिहीन शक्ति’ से क्या तात्पर्य है?

इस शब्द का प्रयोग केंद्र या ईश्वर का वर्णन करने के लिए किया जा सकता है, जिसके पास वास्तव में अपनी कोई शक्ति नहीं होती है। लेकिन शक्तिहीनता में उस शक्ति का विचार होता है जो उसमें निहित है, जैसा केंद्र में होता है। इसका अर्थ है कि वह गतिहीन या स्थिर अवस्था, जिसे शक्तिहीनता के रूप में देखा जाता है, वही शक्ति का वास्तविक स्रोत है।

सुचित - और प्राण-प्रतिष्ठा क्या है? मैंने इसके बारे में सुना है लेकिन मैं ठीक से इसका अर्थ समझ नहीं पाया हूँ। क्या यह प्राणाहुति के समान है?

यहाँ पर अधिकतर लोग भ्रमित हो जाते हैं। प्राण-प्रतिष्ठा एक धार्मिक अनुष्ठान है तथा सहज मार्ग में हम जो करते हैं यह उससे बहुत अलग है। प्राण-प्रतिष्ठा में आप देखेंगे कि पुजारी या पंडित किसी मूर्ति या एक पवित्र प्रतिमा में ‘प्राण’ स्थापित करने के लिए अनुष्ठान करते हैं। वे कुछ विशेष मंत्रों का उच्चारण करके दैवीय उपस्थिति का आह्वान करते हैं। वे वास्तव में एक मूर्ति को देवता के साकार रूप में परिवर्तित करके उसे पूजने योग्य बनाते हैं। यह बाह्य अनुष्ठानों, मंत्रों और शरीर के बाहर की चीज़ों पर निर्भर रहता है। इसका उद्देश्य किसी वस्तु को पूजा का केंद्र बनाना है।

सुचित - जबकि प्राणाहुति हृदय से हृदय तक, अंदर से कार्य करती है।

इसके लिए किसी बाह्य कर्मकांड या मंत्रोच्चार की ज़रूरत नहीं पड़ती। यह होता है क्योंकि गुरु इसे होने देना चाहते हैं और साधक इसका अनुभव करने के लिए इच्छुक है। यह किसी भी दूरी से हो सकता है और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि यह साधक के भीतर ही दिव्यता को जागृत करता है, न कि किसी बाहरी वस्तु में। प्राण-प्रतिष्ठा वास्तव में अनुष्ठानिक होती है जबकि प्राणाहुति पूरी तरह से आंतरिक और गुरु की यौगिक क्षमता पर आधारित होती है।

केशव - और शक्तिपात क्या है? जैसा कि आपने पहले बताया था, क्या यह भी प्राणाहुति से अलग होता है?

यह एक दूसरी प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य किसी विशेष चक्र या चेतना के स्तर को जागृत करना है। इसमें गुरु शिष्य के शरीर को स्पर्श करते हैं। पारंपरिक शक्तिपात में शिष्य के शरीर पर स्थित विशेष बिंदुओं को गुरु स्पर्श करते हैं। इस स्पर्श से विशेष चक्रों को जागृत या सक्रिय किया जाता है और कभी-कभी यह काफ़ी नाटकीय भी हो सकता है। मेरी समझ के अनुसार जो लोग शक्तिपात करते हैं, वे कुछ विशिष्ट ऊर्जा केंद्रों यानी चक्रों को सक्रिय करने का प्रयास करते हैं। लेकिन प्राणाहुति के लिए शारीरिक स्पर्श या नज़दीक रहने की भी आवश्यकता नहीं है। यह किसी भी दूरी से कार्य करती है और कोमल होती है तथा इसे धीरे-धीरे दिया जाता है। यह समग्र आध्यात्मिक विकास पर कार्य करती है न कि किसी चक्र को सक्रिय करने पर।

 

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प्राणाहुति साधक में सीधे कुछ आध्यात्मिक अवस्थाएँ ला या पैदा कर सकती है जिससे उसकी चेतना उन्नत होती है। इसके प्रभाव से उन्नतिशील तथा क्रमानुसार रूपांतरण होता है।


अपूर्वा - तो प्राणाहुति, प्राण-प्रतिष्ठा और शक्तिपात सभी में संचरण होता है लेकिन सभी की विधियाँ बहुत अलग-अलग हैं।

हाँ और परिणाम भी अलग होते हैं।

केशव - अब, इन सबके बीच कृपा का क्या स्थान है?

कृपा उन सभी आध्यात्मिक प्रक्रियाओं से भिन्न है जिनमें मानवीय मध्यस्थता शामिल होती है। इसका मानवीय कार्य से कोई लेना-देना नहीं है और यह केवल दैवीय इच्छा से ही प्रवाहित होती है। आध्यात्मिक अभ्यास करते हुए यह जानना शायद सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। कृपा उन सिद्धांतों पर कार्य करती है जिन्हें लोग न तो समझ सकते हैं और न ही नियंत्रित कर सकते हैं। पहला सिद्धांत है, ईश्वरीय सत्ता। केवल ईश्वर की इच्छा से ही कृपा आती है न कि मानवीय प्रयास या कर्मकांड से। यहाँ तक कि प्राणाहुति से भी नहीं आती। दूसरा, यह माँग से परे है। कृपा को न तो माँगा जा सकता है, न इसकी अपेक्षा की जा सकती है और न ही इसे अर्जित किया जा सकता है। यही कारण है कि ‘ब्रह्मविद्यामें कर्म के फल की इच्छा करने को अनुचित माना जाता है। यदि हम परिणाम की अपेक्षा रखते हैं तो हम समर्पण के सार-तत्व को खो देते हैं। सैकड़ों बार प्राणाहुति प्राप्त करने से जो हासिल हो सकता है, वह कृपा के केवल एक स्पर्श से तत्काल हो सकता है।

केशव - तो फिर अभ्यास क्यों करें? यदि आपको मेरे पूछने से कोई आपत्ति न हो तो क्यों न हम सिर्फ़ बैठ जाएँ और कृपा के आने की प्रतीक्षा करते रहें?

यहाँ आपके लिए एक और विरोधाभास है। कृपा ऐसा आशीर्वाद नहीं है जिसकी अपेक्षा की जा सके या जिसे माँगा जा सके क्योंकि यह मानवीय क्रियाकलापों से स्वतंत्र है। फिर भी ईमानदारी से किया गया आध्यात्मिक अभ्यास आपके भीतर ग्रहणशीलता के लिए सर्वोत्तम दशा निर्मित करता है। कृपा यूँ ही किसी पर नहीं बरसती। यह साधक की निष्ठा, समर्पण और प्रयास के फलस्वरूप प्राप्त होती है। आध्यात्मिक अभ्यास व्यक्ति की निष्ठा की अभिव्यक्ति है। इसलिए कृपा साधक की व्यक्तिगत साधना को इस प्रकार प्रभावित करती है कि साधना और अधिक गहन बन जाती है। जहाँ सच्चा प्रयास बुनियाद तैयार करता है वहीं कृपा हमें अपनी सीमाओं से परे जाने के लिए वह आवश्यक उत्थान देती है।

अपूर्वा - जब कृपा बरसती है तब हम उसे कैसे पहचान सकते हैं? कई बार हम निश्चित रूप से नहीं कह पाते कि हमने ध्यान सत्र के दौरान जिसका अनुभव किया, वह प्राणाहुति थी या ईश्वरीय कृपा थी।

कृपा वह प्रेम और सहायता है जो ईश्वर बिना किसी अपेक्षा के उदारता से प्रदान करता है। यह अच्छे कामों या अनुष्ठानों से अर्जित नहीं की जा सकती और न ही यह सौदेबाज़ी या वैराग्य का परिणाम है। यह तो ईश्वर के या किसी आत्मज्ञानी के भरपूर प्रेम और करुणा से आती है। जब आप कृपा के दायरे में आ जाते हैं तब ऐसा लगता है मानो आप पिघल रहे हैं। यहाँ तक कि प्राणाहुति की शक्ति भी कृपा से बहुत कम है। वास्तव में शक्ति का भी एक तरह का पदानुक्रम है - कृपा प्राणाहुति से अधिक सूक्ष्म है, प्राणाहुति शक्तिपात से सूक्ष्मतर है और शक्तिपात प्राण-प्रतिष्ठा से सूक्ष्मतर है। वास्तव में प्राणाहुति जो सैकड़ों सत्रों और लंबे समय में कर पाती है, वह कृपा तत्काल कर सकती है। गुरु की संकल्प शक्ति के माध्यम से प्राणाहुति जो काम लंबी दूरी पर भी सूक्ष्मता से करती है वही काम शक्तिपात प्रत्यक्ष शारीरिक संपर्क के द्वारा करने का प्रयास करता है। जो कार्य ये तीनों आंतरिक रूप से करते हैं, वही कार्य प्राण-प्रतिष्ठा अनुष्ठानों के ज़रिए बाह्य रूप से करती है जिसका प्रभाव सामान्यतः सतही एवं अल्पकालिक होता है।


आध्यात्मिक अभ्यास व्यक्ति की निष्ठा की अभिव्यक्ति है। इसलिए कृपा साधक की व्यक्तिगत साधना को इस प्रकार प्रभावित करती है कि साधना और अधिक गहन बन जाती है। जहाँ सच्चा प्रयास बुनियाद तैयार करता हैवहीं कृपा हमें अपनी सीमाओं से परे जाने के लिए वह आवश्यक उत्थान देती है।


सुचित - इन भेदों को जानने के बाद अब इसका हमारे अभ्यास पर अवश्य कुछ प्रभाव पड़ेगा - मेरा मतलब है वास्तविक दुनिया में हमारे दैनिक अभ्यास पर।

हमें श्रद्धायुक्त ग्रहणशीलता के साथ प्राणाहुति का स्वागत करना चाहिए। यह जानते हुए कि आपकी प्रगति का निर्णय गुरु की इच्छा ही करती है, ग्रहणशील बनें और नियमित अभ्यास करें। कृपा में मुख्य बात है समर्पण। इसका अर्थ है छोड़ देना, जब कृपा मिले तब उसके लिए कृतज्ञ रहना और जब यह कार्य करे तो इसे पहचानना सीखना, भले ही यह ज़्यादा स्पष्ट न हो।


कृपा वह प्रेम और सहायता है जो ईश्वर बिना किसी अपेक्षा के उदारता से प्रदान करता है। यह अच्छे कामों या अनुष्ठानों से अर्जित नहीं की जा सकती और न ही यह सौदेबाज़ी या वैराग्य का परिणाम है। यह तो ईश्वर के या किसी आत्मज्ञानी के भरपूर प्रेम और करुणा से आती है। जब आप कृपा के दायरे में आ जाते हैं तब ऐसा लगता है मानो आप पिघल रहे हैं।


केशव - और इन सब में सफ़ाई का क्या स्थान है?

यह बहुत महत्वपूर्ण है। मैं तो कहूँगा कि सबसे महत्वपूर्ण है। मुझे आपको यह बताना होगा कि सफ़ाई के बिना प्राणाहुति आपकी कोई सहायता नहीं करेगी। दैवीय ऊर्जा हर चीज़ को शक्तिशाली बना देती है। जैसा कि बाबूजी ने कहा था, “एक चोर को प्राणाहुति दो और वह एक पक्का चोर बन जाएगा।” सफ़ाई अवाँछित चीज़ों को हटाती है जबकि प्राणाहुति आध्यात्मिक गुणों का विकास करती है। दोनों एक साथ मिलकर ऐसा परिवर्तन लाते हैं जो कारगर साबित होता है। एक के बिना दूसरा नहीं रह सकता।

सुचित - इसलिए सफ़ाई, प्राणाहुति और कृपा का मेल ही आध्यात्मिक उत्थान की कुंजी है?

वास्तव में, आध्यात्मिक विकास अंततः वृत्ताकार होता है - ईश्वर से शुरू करके गुरु के माध्यम से शिष्य तक और फिर रूपांतरित व दिव्य होकर वापस ईश्वर के पास। जब साधक की परिष्कृत चेतना उस दिव्य सागर में विलीन हो जाती है, जहाँ से उसका उद्भव हुआ था, तब यह प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है। याद रखें कि प्राणाहुति एक विशिष्ट उपहार है लेकिन फिर भी कृपा का एक स्पर्श जो कर सकता है, उसकी तुलना में प्राणाहुति फीकी पड़ जाती है। यही बात सहज मार्ग को सबसे अलग बनाती है - अभ्यास के द्वारा मानवीय प्रयासों का सम्मान, प्राणाहुति के द्वारा गुरु की सहायता पाना और दिव्य कृपा के प्रति पूर्ण समर्पण जो असंभव को संभव बना सकती है।

 

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वास्तव मेंआध्यात्मिक विकास अंततः वृत्ताकार होता है - ईश्वर से शुरू करके गुरु के माध्यम से शिष्य तक और फिर रूपांतरित व दिव्य होकर वापस ईश्वर के पास। जब साधक की परिष्कृत चेतना उस दिव्य सागर में विलीन हो जाती हैजहाँ से उसका उद्भव हुआ थातब यह प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है।


 


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दाजी

दाजी हार्टफुलनेसके मार्गदर्शक

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