वर्ष 2025 के लिए आध्यात्मिक अभ्यासों पर आधरित अपने लेखों की श्रृंखला के पहले प्रकरण में दाजी हमें प्रार्थना और आंतरिक यात्रा में इसके महत्व की एक प्रेरणादायक और वैज्ञानिक व्याख्या प्रदान कर रहे हैं। वे धार्मिक अर्थों से परे जाकर प्रार्थना के वास्तविक उद्देश्य और मानव विकास के साधन के रूप में इसके द्वारा हमें मिलने वाले लाभों को समझा रहे हैं। इस प्रकार वे प्रार्थना की गहनता को उजागर कर रहे हैं।

 

म कई कारणों से प्रार्थना करते हैं-

अपनी गलतियों पर पश्चाताप करने के लिए, दोषों और कमियों पर विचार करने के लिए, बेहतर करने का संकल्प लेने के लिए, सहायता पाने के लिए और बार-बार चिंतन व मनन के द्वारा सही उद्देश्य को खोजने के लिए। अंततः, प्रार्थना इस दुनिया के परे जाकर दिव्यता से जुड़ने, संवाद करने और संपर्क करने का एक बहुत ही अंतरंग तरीका है। प्रार्थना दिव्य धारा के प्रवाह को आकर्षित करती है और उस प्रवाह में विलय और एकात्मकता की हालत व्याप्त होती है। यह हालत हमें उस प्रेम में डुबो देती है जो दिव्यता की ओर से निरंतर प्रवाहित हो रहा है। वास्तव में बाबूजी ने एक बार कहा था कि आध्यात्मिक प्रगति के लिए प्रार्थना सबसे महत्वपूर्ण तथा अमोघ साधन है।

अतः प्रार्थना केवल सहायता, अनुग्रह या उपहार माँगना नहीं है – वास्तव में ऐसा आमतौर पर तब होता है जब परिस्थितियाँ भीषण होती हैं, जब हम अपने संसाधनों को समाप्त कर चुके होते हैं तथा हमारे पास सहायता प्राप्त करने का और कोई विकल्प नहीं रह जाता। अधिकांशतः प्रार्थना कुछ नहीं माँगती बल्कि यह हृदय की ऊर्जा को कोमलता से दिव्यता की ओर निर्देशित कर देती है और चिंताओं व इच्छाओं को एक सर्वव्यापी तथा सार्वभौमिक एकात्मकता में विलीन कर देती है, जैसे छोटी-छोटी धाराएँ एक महान नदी में बदल जाती हैं और फिर वह नदी विशाल महासागर में मिल जाती है। जैसे-जैसे जीवन की सांसारिक चिंताएँ दूर होती जाती हैं, हृदय के भीतर एक परिवर्तनशील शून्यता पैदा होने लगती है जो स्वाभाविक रूप से दिव्य प्रवाह को आकर्षित करती है। इससे रूपांतरण की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है।

यह पवित्र प्रवाह हमारे आंतरिक स्पंदनों को मानवीय से दिव्य में परिवर्तित कर देता है। जिस प्रकार पानी नदी के पत्थरों को नरम बना देता है, उसी तरह यह पवित्र प्रवाह कोमलता से हमें ढालता है और परिष्कृत करता है। यह प्रक्रिया सरल और स्वाभाविक है - विनम्रता, शुद्धता और सरलता के गुण हृदय में शून्यता पैदा कर देते हैं और दिव्य धारा उस शून्यता में प्रवाहित होने लगती है।

प्रार्थना को एक कर्मकांड की तरह या शब्दों के उच्चारण के साथ करने की आवश्यकता नहीं होती। वास्तव में, यह सबसे अधिक प्रभावशाली तब होती है जब इसे मौन रहकर भक्ति भाव में पूरी तरह डूबकर किया जाता है।

हार्टफुलनेस प्रार्थना प्रतिदिन दो बार की जाती है, एक बार सुबह ध्यान से पहले तथा एक बार रात को सोने से पहले। यह उदारतापूर्वक सभी प्राणियों के लिए की जाती है न कि केवल अपने लिए। आपको इसमें ‘हम’ और ‘हमारा’ जैसे शब्द मिलेंगे, न कि ‘मैं’ और ‘मेरा’, क्योंकि हम संपूर्ण विश्व के कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं।

हार्टफुलनेस प्रार्थना मौन रहकर की जाती है और इसका उद्देश्य यह है कि आप शब्दों में डूब जाएँ और उनसे भी परे उन भावनाओं और स्पंदनों को महसूस करें जिनसे ये शब्द उत्पन्न हुए हैं। ये स्पंदन निरंतर आपके हृदय के भीतर गूँजते रहते हैं तथा आपकी सांसारिक गतिविधियों के दौरान भी दिव्य धारा प्रवाहित होती रहती है।


हार्टफुलनेस प्रार्थना

हे नाथ! तू ही मनुष्य जीवन का वास्तविक ध्येय है।

हम अपनी इच्छाओं के गुलाम हैं जो हमारी उन्नति में बाधक हैं।

तू ही एकमात्र ईश्वर एवं शक्ति है

जो हमें उस लक्ष्य तक ले चल सकता है।


सोते समय इस प्रार्थना का अभ्यास करने से वातावरण अति सुंदर हो जाता है जिससे नींद शांतिपूर्ण हो जाती है और रात भर आंतरिक जुड़ाव बना रहता है। सुबह ध्यान से पहले इसे करने से वही आंतरिक जुड़ाव फिर से जागृत हो जाता है जिससे ध्यान एवं दिन भर की अन्य गतिविधियों में जीवंतता आ जाती है। दिन का आरंभ और अंत प्रार्थना के साथ करने से आप इस जुड़ाव को पूरा दिन और पूरी रात बनाए रख पाते हैं।

 

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हमारा प्रार्थनापूर्ण विचार भोजन के साथ मिलकर शारीरिकमानसिकभावनात्मक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य बढ़ाता है।


प्रार्थना आपके संकल्पों को व्यक्त करने का एक शक्तिशाली तरीका भी है, जिसमें आपके केंद्रित विचारों को ईश्वरीय प्रवाह का सहयोग मिलता है। फिर भी हममें से अधिकतर लोग इसका बहुत कम उपयोग करते हैं। यह हमारे किसी भी संकल्प को गहराई और सूक्ष्मता के साथ एक संबल प्रदान करती है ताकि वह शक्तिशाली और दूरगामी बन जाए। यह जितना सूक्ष्म होगा उतना ही बेहतर होगा।

प्रार्थना से हृदय में ग्रहणशीलता आती है। जब हृदय ग्रहणशील और शुद्ध होता है तभी वास्तव में हम उसके मूल में, जिसमें अविचल अपरिवर्तनीयता होती है, बहने वाली गहरी आस्था की धारा को सचमुच जान पाते हैं। इस प्रार्थनामयी अवस्था में अहंकार किसी चीज़ पर हावी नहीं हो पाता। अतः प्रार्थना किसी भी तरह के अहंकारी विचारों या कार्यों का सबसे अच्छा प्रतिकारक है।

जब जीवन में परिस्थितियाँ चुनौतीपूर्ण बन जाती हैं तब प्रार्थना हमारे लिए एक सहारा होती है। उदाहरण के लिए, जब हम अन्याय का सामना करते हैं या हमें अपने प्रिय सिद्धांतों से समझौता करना पड़ता है तब कभी-कभी हम विरोध करते हैं या प्रतिक्रिया करते हैं। यह दुःखदायी हो सकता है और कभी-कभी हम अत्यधिक आहत भी हो जाते हैं। ऐसी स्थितियों से उबरने का सबसे सरल तरीका है - अपने हृदय के भीतर जाना, प्रार्थनापूर्वक समर्पण करना, अपने अंदर शून्यता पैदा करना और उन बातों को छोड़ देना। यह उस समय भी मरहम का काम करता है जब हम जाने-अनजाने में दूसरों को आहत कर देते हैं और विशेषकर जब हम अपराध-बोध को पकड़े रहते हैं। हम अपने हृदय के भीतर जाकर सच्चे मन से पश्चाताप करके उस भारीपन को दूर कर पाते हैं, फिर से जुड़ाव स्थापित कर पाते हैं ताकि एक बार फिर से प्रेम प्रवाहित हो सके। समय के साथ इस आंतरिक जुड़ाव द्वारा आत्म-प्रभुत्व प्राप्त होने लगता है।

भोजन के समय प्रार्थना करने अथवा कृतज्ञता व्यक्त करने के बारे में क्या कहा जाए? कृतज्ञता का यह भाव भोजन करने से पहले हमें दिव्यता से जोड़ देता है ताकि हम भोजन करते समय उस सूक्ष्म संबंध को बनाए रख सकें। यह उस दिव्य प्रवाह को सक्रिय कर देता है जो प्रकृति के कण-कण में मौजूद है जिसमें हमारे भोजन का प्रत्येक कण भी शामिल है। हमारा प्रार्थनापूर्ण विचार भोजन के साथ मिलकर शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य बढ़ाता है। इससे प्राण के मार्ग अर्थात नाड़ियाँ खुल जाती हैं जिससे भोजन में मौजूद प्रसन्नता उनमें जाकर पूरे तंत्र को शुद्ध कर देती है। परिणामस्वरूप, भोजन हमारे शारीरिक स्वास्थ्य और आध्यात्मिक प्रगति में लाभ पहुँचाता है। यह एक बहुत ही प्रभावकारी अवधारणा है जो स्वास्थ्य, कल्याण तथा प्रसन्नता के लिए बहुत मायने रखती है।

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योग में भोजन को प्राण के रूप में महत्व दिया गया है और भोजन का प्रभाव केवल स्थूल शरीर में ही नहीं बल्कि पूरे मानव तंत्र में प्रसारित होता है। जब भोजन के प्रत्येक अणु के केंद्र में मौजूद दिव्यता हमारे भीतर मौजूद दिव्यता के साथ तालमेल में होती है तब भोजन पवित्रता का एक प्रभावशाली स्रोत बन जाता है।

प्रार्थना परानुकंपी (parasympathetic) तंत्रिका तंत्र को सक्रिय करती है जो हमारे अंदर शांति लाती है और पाचक रसों को सक्रिय करती है। प्रार्थनापूर्ण अवस्था में खाने की मेज़ पर बैठने से किसी भी व्यक्ति से नाराज़ होना मुश्किल होता है, चाहे उसकी मनःस्थिति या व्यवहार कैसा भी हो। अतः भोजन करते समय शांति और सामंजस्य होता है जिसका परिणाम बेहतर पाचन होता है।

जब आप भोजन ग्रहण करने के दौरान परेशान होते हैं या आपका मन भटक जाता है तब क्या होता है? यदि आप भयभीत होते हैं तो आपको अपच हो सकता है क्योंकि आपका रक्त आपकी बाहों और टांगों में प्रवाहित होने लगता है और आपके शरीर की ऊर्जा संबंधी प्रक्रियाएँ अन्य कार्यों में व्यस्त हो जाती हैं। वे भोजन पचाने के कार्य से भटक जाती हैं। आपकी भावनात्मक स्थिति से आपका पाचन प्रभावित होता है और इसलिए भोजन के समय प्रार्थना करने से हमें संतुलित रहने तथा किसी भी चिंता व तनाव को दूर करने में मदद मिलती है।

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प्रार्थना के दौरान भावनाएँ जितनी सूक्ष्म होती हैंहमारा जुड़ाव और प्रार्थना का प्रभाव उतना ही अधिक सूक्ष्म और शक्तिशाली होता हैजब तक कि यह उस चरम अवस्था तक नहीं पहुँच जाती जहाँ भावनाएँ ही नहीं रह जातीं।


योग में एक अवधारणा भी है जिसे संकल्प कहा जाता है। इसका अर्थ है सूक्ष्म प्रार्थनापूर्ण सुझाव जो हमारे सभी आध्यात्मिक अभ्यासों तथा सांसारिक जीवन के अधिकांश लक्ष्यों का आधार है। हम अपनी विचार-शक्ति के माध्यम से विभिन्न लक्ष्यों और परिस्थितियों को साकार करने का संकल्प लेते हैं। संकल्प लेना एक बीज बोने के समान है। वह बीज यानी संकल्प हमारे विचारों, भावनाओं और कार्यों को हमारे लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में प्रेरित करता है।

प्रार्थना का उपयोग दूसरों के साथ संवाद करने और प्रतिक्रिया देने के एक अधिक सूक्ष्म, अधिक प्रभावी तरीके के रूप में भी किया जा सकता है, विशेषकर तब जब हम सलाह देने के लिए लालायित रहते हैं (कृपया अपने जीवनसाथी और बच्चों के साथ अपने संबंधों में इस पर विशेष रूप से विचार करें)। हार्टफुलनेस के प्रथम गुरु लालाजी कहा करते थे, “जब तक माँगी न जाए, तब तक कभी सलाह न दें, अन्यथा इसके बुरे परिणाम होने की संभावना रहती है। यदि आपको किसी में कोई दोष दिखे तो उस दोष से उसकी मुक्ति के लिए प्रार्थना करें।” मैंने इतने वर्षों में यही पाया है कि सलाह हमेशा पेचीदा होती है क्योंकि लोग आमतौर पर अपने दृष्टिकोण की ही पुष्टि चाहते हैं, सलाह माँगते हुए भी। यह बहुत ही संवेदनशील विषय है। इसलिए मुझे लालाजी का दूसरा वाक्य पसंद है, “यदि आपको किसी में कोई दोष दिखे तो उस दोष से उसकी मुक्ति के लिए प्रार्थना करें।” और कभी-कभी प्रार्थना से दूसरे व्यक्ति का दोष भले ही दूर न हो लेकिन हमारी अपनी संकीर्ण सोच ज़रूर दूर हो जाती है।

प्रार्थना के दौरान भावनाएँ जितनी सूक्ष्म होती हैं, हमारा जुड़ाव और प्रार्थना का प्रभाव उतना ही अधिक सूक्ष्म और शक्तिशाली होता है, जब तक कि यह उस चरम अवस्था तक नहीं पहुँच जाती जहाँ भावनाएँ ही नहीं रह जातीं। ऐसी सूक्ष्म अवस्थाओं तक पहुँचने से पहले ही बाबूजी हमें आश्वस्त करते हैं, “जब प्रेम और भक्ति से भरे हृदय से प्रार्थना की जाती है तो वह कभी अनसुनी नहीं रहती।” एक बार जब संबंध स्थापित हो जाता है तब वह अनसुनी कैसे रह सकती है?


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दाजी

दाजी हार्टफुलनेसके मार्गदर्शक

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