प्रोफ़ेसर भवानी राव अमृता विश्व विद्यापीठम विश्वविद्यालय में अध्यक्ष के पद पर कार्यरत हैं। उन्हें कान्हा शांतिवनम् में आयोजित ‘वैश्विक आध्यात्मिक महोत्सव वर्ष 2024’ में वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था। वे अपनी गुरु श्री माता अमृतानंदमयी देवी, जो ‘अम्मा’ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं, के जीवन से प्रेरित हैं और बता रही हैं कि हम अपने दैनिक जीवन में आध्यात्मिकता को कैसे समाहित कर सकते हैं।
जब मैं यह सोचती हूँ कि हमारा जीवन और आध्यात्मिकता आपस में कैसे जुड़े हुए हैं तो मेरा वही मानना है, जो मैंने अपनी गुरु माँ अम्मा से सीखा है, कि जीवन और आध्यात्मिकता एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
उनका यह मानना है कि आध्यात्मिकता का आरंभ और अंत दोनों करुणा से ही होते हैं। सनातन धर्म के सिद्धांत के रूप में हम जानते हैं कि सृष्टि और सृष्टा दोनों अलग-अलग नहीं हैं बल्कि एक ही हैं। सृष्टि मात्र सृष्टा का ही प्रत्यक्ष रूप है। सृष्टि में सृष्टा का दर्शन करने से हम सभी की सेवा कर सकते हैं और सभी से प्रेम कर सकते हैं। केवल अपनी ही सेवा करना और दूसरों की सेवा न करना जीवन नहीं बल्कि मृत्यु है। इसलिए प्रेम और करुणा रखना ही आध्यात्मिकता को जीवन में समाविष्ट करने का मूलभूत रास्ता है।
हम यह कैसे करें? मैं आपको उस सिद्धांत के बारे में बता सकती हूँ जो हमने अमृता विश्वविद्यालय में अपनाया है। यह है दोहरी शिक्षा - जीविका के लिए शिक्षा और जीवन के लिए शिक्षा। अब आप इन दोनों के बीच के अंतर का अनुमान लगाएँ। जीविका के लिए शिक्षा वह है जो आपको अपनी रोज़ी-रोटी कमाने में मदद करती है। यह आपके रहने के लिए घर, शरीर के लिए वस्त्र और संभवतया आपके आने-जाने के लिए वाहन की व्यवस्था करने में मदद करती है। जीवन के लिए शिक्षा दया, करुणा, प्रेम और उन सभी गुणों को विकसित करने में सहायक होती है जो आपका मार्गदर्शन करते हैं।
अम्मा यह भी मानती हैं कि गरीबी दो तरह की होती है - एक है रोटी, कपड़ा और मकान की कमी और दूसरी है प्रेम और करुणा की कमी। वे कहती हैं कि यदि आप दूसरी वाली गरीबी को पहले दूर करते हैं तो पहली वाली गरीबी अपने आप मिटा लेते हैं। अगर आपमें प्रेम और करुणा है तो आप उनकी सेवा करेंगे जिनके पास रोटी, कपड़ा और मकान नहीं है।
हम इसे अपने पारंपरिक सूत्र के संदर्भ में समझ सकते हैं। ललिता सहस्रानामम् का श्लोक क्रमांक 659 देवी की बात करता है और उसे इस तरह से वर्णित करता है “ॐ इच्छा शक्ति ज्ञान शक्ति क्रिया शक्ति, स्वरूपिणिये नम:।” इसका क्या अर्थ है? सरलता से इसे तीन भागों में समझा जा सकता है - इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति।
इच्छा शक्ति
सबसे पहली शक्ति है इच्छा शक्ति अर्थात प्रेरक शक्ति। वह क्या है जिसके कारण हम कार्य करते हैं? हमारे संकल्प की गहराई में क्या है? इसे करुणा से प्रेरित होना चाहिए। अम्मा के बचपन का एक प्रसंग है। वे मछुआरों के परिवार में पैदा हुई थीं। उनके समुदाय में लड़कियों को मछली पकड़ने की नाव की गतिविधियों में शामिल होना और यहाँ तक कि समुद्र में जाने वाली नाव को छूना भी वर्जित था और पूरी तरह से उनकी संस्कृति के विरुद्ध था। एक दिन अम्मा ने एक बूढ़ी औरत को तट पर बैठकर रोते हुए देखा। वह अप्रवाही जल के पार जाना चाहती थी ताकि वह अपने परिवार के लिए खाना बना सके लेकिन आस-पास कोई मल्लाह दिखाई नहीं दे रहा था।
पानी के किनारे खड़ी उस अकेली बूढ़ी औरत की निराशा देखकर अम्मा को दया आ गई और उन्होंने कुछ करने का निश्चय किया। उन्होंने पानी में नाव खेने वाली बल्ली उठाई और उस बूढ़ी औरत को मना लिया कि वे उसे नाव में बैठाकर उस पार ले जाएँगी यद्यपि इसके पहले उन्होंने कभी नाव नहीं चलाई थी। एक बच्ची, जिसने पहले कभी नाव नहीं चलाई थी, की बहादुरी और अथक प्रयास से वे दोनों पानी के उस पार जा पाईं। ऐसा करने पर कुछ देखने वालों ने लड़की की तारीफ़ की लेकिन इस दुस्साहस के लिए उन्हें अपनी माँ से पिटाई भी खानी पड़ी। अंतत: उन्हें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ा क्योंकि वे किसी सक्रियतावाद, समाज की रूढ़ियों को तोड़ने या बगावत की भावना से प्रेरित नहीं थीं। वे करुणा से प्रेरित थीं।

ज्ञान की शक्ति
दूसरी है ज्ञान शक्ति। मैं किस तरह के ज्ञान की बात कर रही हूँ? ज्ञान दो प्रकार का होता है - एक है वैज्ञानिक जो तथ्यपरक व आँकड़ों पर निर्भर ज्ञान है और दूसरा ज्ञान करुणा से आता है। यह समानुभूति आधारित ज्ञान है जो दूसरों की ज़रूरतों को समझने, सतह के नीचे की परिस्थिति को समझने के लिए करुणा और समानुभूति से आता है।
इसका एक उदाहरण वर्ष 2004 में देखने में आया जब सुनामी हमारे आश्रम के क्षेत्र में आई थी और ज़मीन के उस हिस्से पर रहने वाले लगभग एक लाख लोग विस्थापित हो गए थे। उनके घर बह गए थे और उनकी आजीविका नष्ट हो गई थी। लगभग 25000 लोगों को सुरिक्षत जगह भेजने के बाद अम्मा ने जो पहली चीज़ सुनिश्चित की वह थी कि सबको गरम चाय उपलब्ध हो। चाय ही क्यों? क्योंकि यह ऐसी अव्यक्त चीज़ है जो तत्काल राहत देती है और हमें सुरक्षित होने का एहसास देती है। दूसरी चीज़ उन्होंने यह सुनिश्चित की कि उन्हें उनकी रुचि का भोजन मिले। वे सब मछुआरे थे और मछली खाने के आदी थे। हम अपने लिए मछली नहीं बनाते लेकिन भोजन उन स्थानीय लोगों की रुचि के अनुरूप होना चाहिए था। यह लोगों की ज़रूरत के प्रति समानुभूति को व्यक्त करता है। ये दयालुता के बहुत छोटे-छोटे से कार्य हैं और ये उस ज्ञान से प्रेरित होते हैं जो लोगों के प्रति समानुभूतिपूर्ण समझ से आता है।
क्रिया शक्ति
तीसरी है क्रिया शक्ति यानी कर्म की शक्ति। यह परोपकार की भावना से किए जाने वाला कर्म यानी निष्काम कर्म होना चाहिए जैसा भगवद्गीता में वर्णित है। यह ऐसी स्थिति है जिसमें आप अपने कर्मों के फल की आशा नहीं करते। यह बहुत महत्वपूर्ण है। अपने कर्म को जारी रखने व पूरा करने की ऊर्जा बनाए रखें और सुनिश्चित करें कि वह अनुचित प्रकार की प्रेरणा से दूषित न हो। करुणा स्वयं के सिवा अन्य किसी से प्रेरित नहीं होती।
हर चीज़ में दिव्यता को सम्मान और श्रद्धा से देखने से हममें वह आत्म-नियंत्रण आएगा जिससे हम सुनिश्चित कर सकेंगे कि हमारे सभी कार्य सम्मानजनक हों, वे प्रदूषण न करें और हम कभी भी किसी तरह की असमानता या दमन को बढ़ावा न दें। |
जागरूकता की शक्ति
एक अंतिम शक्ति और है जिस पर मैं ज़ोर देना चाहूँगी, वह है ‘श्रद्धा’ (जागरूकता)। इसका वास्तविक अर्थ है अपने संसाधानों की क्षमता के प्रति जागरूक रहना और सदैव सम्मान का भाव बनाए रखना। हर चीज़ में दिव्यता को सम्मान और श्रद्धा से देखने से हममें वह आत्म-नियंत्रण आएगा जिससे हम सुनिश्चित कर सकेंगे कि हमारे सभी कार्य सम्मानजनक हों, वे प्रदूषण न करें और हम कभी भी किसी तरह की असमानता या दमन को बढ़ावा न दें।
एक तरह से यह सबसे मूलभूत नैतिक मूल्य है जिसे हम सनातन धर्म के अंतर्गत परिभाषित कर सकते हैं - आदर व सम्मान का मूल्य।


भवानी राव
प्रोफ़ेसर राव अमृता विश्व विद्यापीठम विश्वविद्यालय के सामाजिक और व्यवहार विज्ञान संकाय की अध्यक्ष हैं और अमृतपुरी में ... और पढ़ें