प्रस्तुत है लेखिका चित्रा बनर्जी दिवाकरुणी से तारा खंडेलवाल और मिशेल डी'कोस्टा की बातचीत। यह बातचीत उनकी पुस्तकों से संबंधित है जो पौराणिक कथाओं पर आधारित हैं जैसे ‘द पैलेस ऑफ़ इल्यूशन्स’ जो द्रौपदी के दृष्टिकोण से महाभारत की कथा है और ‘द फ़ॉरेस्ट ऑफ़ इन्चेन्टमेंट्स’ जो सीता की दृष्टि से कही गई रामायण की कथा है। इसके अलावा ‘द लास्ट क्वीन’ भी है जो रानी जिंद के जीवन के बारे में है। उन्होंने ऐतिहासिक उपन्यासऔपनिवेशिक उपन्यास और महिलाओं के जीवन के बारे में भी कहानियाँ लिखी हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक ‘इंडीपेंडेन्स’ है जो भारत और बंगाल के विभाजन के दौरान तीन बहनों के जीवन का चित्रण करती है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर हमें कुछ विशेष पढ़ने को नहीं मिलता।

प्र. - चित्रा, बंगाल में बीते आपके बचपन की किस बात ने आपको लेखिका बनने के लिए प्रेरित किया?

वह बात है मेरे नानाजी का मुझे कहानियाँ सुनाना। हर साल गर्मी की छुट्टियों में मेरी माँ मुझे मेरे नानाजी के पास भेज देती थी। मुझे लगता है कि मैं बचपन में बहुत शरारती रही होऊँगी इसलिए वे गर्मी की छुट्टियों में मुझसे छुटकारा पाकर खुश होती होंगी। मुझे अपने नानाजी के साथ रहना अच्छा लगता था क्योंकि वे उत्तम कथावाचक थे। वे कोलकता से लगभग तीन घंटे की दूरी पर स्थित एक छोटे से गाँव में रहते थे। मेरी नवीनतम पुस्तक, ‘इंडीपेंडेन्स’, में रानीपुर गाँव का आधार मेरे नानाजी के गाँव की यादें ही हैं।

उस गाँव में बिजली नहीं थी इसलिए वे हर शाम लालटेन जलाकर हम सभी भाई-बहनों को बुला लेते और फिर हम सब उनके आसपास बैठ जाते थे। लालटेन की रोशनी में दीवार पर लंबी परछाइयाँ बन जाती थीं और वे हमें कहानियाँ सुनाते थे। मेरे पास उन शामों की बहुत खूबसूरत यादें हैं। वहीं पर मैंने महाभारत और रामायण की कथाएँ सुनीं और मुझे इन कहानियों से प्रेम हो गया। आप देख सकती हैं कि मेरा जीवन इनसे इतना प्रभावित हुआ कि मैं एक लेखिका बन गई।

प्र. - चित्रा आप बहुत प्रतिभाशाली लेखिका हैं। आपको इतने विविध विचार कैसे आते हैं और आप ये निर्णय कैसे ले पाती हैं कि किस विचार पर काम करना है? मुझे लगता है कि आपको ‘द लास्ट क्वीन’ की प्रेरणा कोलकता साहित्य महोत्सव से मिली थी। लेखक विलियम डैलरिंपल ने रानी जिंद का एक चित्र पर्दे पर दिखाया था और आपने उनके जीवन के बारे में लिखने का निर्णय लिया। कृपया बताएँ कि आपके लेखन की प्रक्रिया क्या थी?

इस महत्वपूर्ण प्रश्न के लिए धन्यवाद। आप सही हैं। मुझे रानी जिंद के बारे में लिखने की प्रेरणा अचानक ही मिली थी। यह अत्यंत आश्चर्यचकित करने वाला था। मैं बहुत कृतज्ञ हूँ क्योंकि मुझे पता नहीं होता कि यह पुस्तक लिखने का विचार कहाँ से आ रहा है। ऐसा नहीं है कि मैं सोच समझ कर कोई विकल्प चुनती हूँ। वास्तव में महारानी जिंद के बारे में लिखने से पहले मैं मानव तस्करी पर एक उपन्यास लिखने के बारे में सोच रही थी और मैं चाहती हूँ कि आगे चलकर मैं कभी इस पर काम करूँ। लेकिन यह कुछ ऐसा था कि जैसे किसी उच्च प्रेरणा ने ही मुझे महारानी जिंद की कहानी भेजी हो और मैं जितना शोध करती गई, इस कहानी को लिखने का मेरा निश्चय उतना ही दृढ़ होता गया। औपनिवेशिक काल की इस कहानी को लिखने के बाद मेरे लिए यह वाकई महत्वपूर्ण हो गया था कि मैं इस कहानी का अंत उस समय का लिखूँ जब भारत अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद हुआ था।

 

meeting_phenomenal_women2_2de4e8a7a6.jpg

 

मैं भारत की स्वतंत्रता के बारे में लिखना चाहती थी क्योंकि मेरे नानाजी और मेरी माँ ने स्वतंत्रता के उन वर्षों को जीया था। वे 1940 के दशक में बहुत सारे प्रभावशाली अनुभवों से गुज़रे थे। लेकिन जब तक मुझे ऐसी कोई उच्च प्रेरणा नहीं मिली कि इस कहानी को लिखने का अब समय आ गया है तब तक यह बात मेरे मन के किसी कोने में पड़ी रही। यह एक सर्वथा रहस्यमयी प्रक्रिया है।

मेरे मन में ये विचार चलते रहते हैं लेकिन फिर कुछ होता है, कुछ ऐसा जिसे मैं नियंत्रित नहीं करती और मुझे महसूस होता है कि मुझे यह कहानी लिखनी ही होगी। और उपन्यास लिखना भी एक रहस्यमयी प्रक्रिया है। उपन्यास के पात्र उठ खड़े होते हैं और मेरे मन पर हावी हो जाते हैं – वे मेरे पूरे जीवन पर ही हावी हो जाते हैं। शायद इसीलिए मैंने कई पुस्तकें लिखी हैं क्योंकि मैं उनमें पूरी तरह से डूब जाती हूँ। जब मेरा लिखना शुरू होता है व मैं उपन्यास लेखन में वाकई डूबने लगती हूँ तब मेरा कार्य-जीवन संतुलन बिगड़ जाता है और मैं बस हर समय लिखती रहती हूँ। शब्द मेरे अंदर से निकलते रहते हैं मानो मैं उसमें पूरी तरह डूब चुकी हूँ। कहानियाँ लिखते समय भी यही होता है। रहस्मयी, हमेशा रहस्यमयी। जब तक कोई विचार मेरे मन में नहीं आता, मुझे पता नहीं होता कि मेरी अगली पुस्तक किस विषय पर होगी।

 

meeting_phenomenal_women3_e9b95e2795.jpg

 

प्र. - आपने अभी जो कहा उससे बहुत सारे लेखक सहमत होंगे। लोग आपकी मूल कहानी जानना चाहते हैं। आपने अपने नानाजी के बारे में संकेत दिया है लेकिन आपके लिए आपकी यह यात्रा कब आरंभ हुई थी?

जैसा कि आप जानती हैं कि मैं ह्यूस्टन विश्वविद्यालय में रचनात्मक लेखन सिखाती हूँ जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित एक अद्भुत कार्यक्रम है। मैं सभी आयु वर्ग के लेखकों के साथ काम करती हूँ और उनमें से अधिकतर लोग मुझसे कहते हैं कि वे जब 10 वर्ष की उम्र के थे तब से ही एक लेखक बनना चाहते थे। लेकिन मैं बिलकुल भी ऐसी नहीं थी – मैं लेखक बनना ही नहीं चाहती थी। मुझे पढ़ना बहुत पसंद था। जब आप यह सुनेंगें तो हँस पड़ेंगे। बचपन में मैं अग्निशामक (fire fighter) बनना चाहती थी ताकि मैं आग बुझाने वाली गाड़ी पर बैठ सकूँ और आग बुझा सकूँ। मेरे परिवार ने तुरंत ही इस विचार को खारिज कर दिया। उसके बाद मैं एक पायलट बनना चाहती थी जो कि नहीं होने वाला था। इसलिए मैंने निर्णय लिया कि मैं एक शिक्षिका बनूँगी क्योंकि मेरी माँ एक शिक्षिका थीं और वे मेरे लिए एक आदर्श थीं। इसलिए मैं एक शिक्षिका हूँ। लेखन का मेरे जीवन में आना बहुत आश्चर्यजनक था। जब मैं अमेरिका आई, मेरी उम्र 20 वर्ष थी और मुझे घर की बहुत याद आती थी। तब मैंने लिखना शुरू किया। मैं अपनी स्नातक की पढ़ाई के लिए यहाँ आई थी और मैं अपने परिवार एवं मित्रों की बहुत कमी महसूस कर रही थी। मुझे गलत न समझें, अमेरिका बहुत ही रोमांचक था लेकिन मुझे वाकई अपने जाने-पहचाने वातावरण की याद आती थी। इसके अलावा मैं अपने प्रियजनों से इतनी दूर कभी नहीं गई थी। मुझे लगता है कि उनको याद करने और अपने दिल में सहेजने के एक तरीके के रूप में मैंने लिखना शुरू किया था।

मेरा ज़्यादातर शुरुआती लेखन मेरे द्वारा पीछे छोड़ी गई दुनिया के बारे में है। उस समय मेरे नाना का देहांत हो गया था और मेरे जीवन में वे बहुत महत्वपूर्ण थे। एक विद्यार्थी होने की वजह से मेरे पास उनकी अंत्येष्टि में जाने के लिए पैसे नहीं थे तो मैंने सोचा कि मैं अपने नाना का किस प्रकार से सम्मान कर सकती हूँ? मैंने तय किया कि मैं उनके बारे में कहानियाँ लिखूँगी।

मैंने कविताएँ लिखने से शुरू किया और उससे मुझे बहुत प्रोत्साहन मिला। अमेरिका आकर्षक तो था पर भ्रामक भी था। मैं प्रवासी महिलाओं की कहानियाँ लिखने लगी ताकि मैं अपनी उस नई दुनिया को समझ सकूँ जो उतनी आकर्षक नहीं थी जितनी मैंने कल्पना की थी। मुझे अमेरिका की बहुत सारी चीज़ें पसंद थीं लेकिन यह वो स्वप्न नहीं था जो मैंने यहाँ आने से पहले देखा था और मैं उसका सच लिखना चाहती थी। इन बातों ने मुझे लेखिका बनने और लिखना शुरू करने के लिए प्रेरित किया।

प्र. - एक परिचित वातावरण से दूर रहने से होने वाला अकेलापन कुछ ऐसा है जिसे अधिकांश लोग समझ सकते हैं। क्या आपके प्रवासी अनुभवों में से ऐसा कोई एक किस्सा है जो आपको हँसाता है?

हाँ ज़रूर! जब मैं पहली बार कॉलेज के लिए अमेरिका आई तब मैं ओहायो गई थी जहाँ मेरा भाई डॉक्टर था। हम दोनों एक साथ नहीं रहने वाले थे, फिर भी, मेरी माँ चाहती थी कि बड़ा भाई मुझ पर नज़र रखे। मेरे भाई और मेरे बीच एक समझौता था – तुम मत बताओ और मैं भी नहीं बताऊँगी। न्यूयार्क और कैलिफ़ोर्निया के विपरीत ओहायो में लोगों को प्रवासी लोगों के बारे बहुत कम जानकारी थी और उनका उनसे संपर्क भी नहीं था। यह इंटरनेट के आने के बहुत पहले की बात थी और स्पष्टतः उस समय लोग भारत के बारे में नहीं जानते थे। वे मुझसे तरह-तरह के प्रश्न पूछते थे। सामान्यतः मैं उन्हें सच्चे उत्तर देती थी लेकिन कभी-कभी मुझे थोड़ी सी शरारत सूझती थी।

वहाँ के लोग मेरे माथे पर लगी बिंदी व मेरी भारतीय साड़ी से मोहित थे और मुझसे पूछते, “यह क्या है? तुमने माथे पर क्या लगाया हुआ है? क्या यह तुम्हारी तीसरी आँख है?” और कभी-कभी मैं कह देती, “हाँ।” वे पूछते, “इस रंग का महत्व क्या है?” और मैं उत्तर देती, “मैं इस बिंदी के साथ ही पैदा हुई थी। मैं इस दुनिया में अपने माथे पर बिंदी के साथ ही आई थी और मेरी मनोदशा के अनुसार बिंदी अपना रंग बदल लेती है। तो, इस लाल रंग का अर्थ है कि मैं आज खतरनाक महसूस कर रही हूँ। इसलिए बेहतर होगा कि मुझ से उलझे नहीं!” लोग चुपचाप सुनते थे। मैं देख सकती थी कि जो कुछ भी मैं कहती थी उस पर वे विश्वास करते थे और मुझे शरारत सूझती थी। उस समय मैं एक बुरी लड़की बन जाती थी।

 

meeting_phenomenal_women4_0be82dd37a.jpg

 

meeting-phenomenal-women5 (2).webp

 

प्र. - आप कहानियाँ सुनाने में माहिर हैं और यह आपके जीवन के प्रत्येक पहलू में व्याप्त है। एक बात जिसकी हम आपके लेखन में बहुत सराहना करते हैं कि आपके लेखनों में शक्तिशाली महिलाओं का चित्रण है, चाहे वे ऐतिहासिक हों या पौराणिक कथाएँ हों। उस समय के संदर्भ में, विशेषकर पौराणिक कथाओं में, महिलाएँ कुछ चीज़ों के लिए प्रतिबंधित थीं जबकि पुरुषों को अधिक शक्तिशाली माना जाता था। हम सामाजिक रीतियों और पितृसत्ता से बच नहीं सकते हैं। इसके बावजूद आपने ऐसी दृढ़ स्त्रियों, शक्तिशाली नारीवादियों का चित्रण किया है जिन्होंने अपने समय के विरुद्ध संघर्ष किया। ये नारियाँ उस दौर की रूढ़ियों के अनुरूप नहीं थीं। क्या आप उन तरीकों के बारे में बात कर सकती हैं जिन तरीकों से आप इन महिलाओं को अपने उस समय के वातावरण की बेड़ियों को तोड़ती हुई दिखाती हैं?

हाँ, यह मेरे लेखन के मूल में है। यह संगीत के एक स्वर की तरह है जो मेरे लेखन में बार-बार लौट कर आ जाता है क्योंकि मैं सोचती हूँ कि यह हम सब लोगों, यानी स्त्री-पुरुषों, लड़के-लड़कियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है कि हम शक्तिशाली महिलाओं की कहानियाँ पढ़ें। हम हमेशा से शक्तिशाली पुरुषों के बारे में पढ़ते रहे हैं। महिला और साहित्य की विद्यार्थी होने के नाते हम शक्तिशाली पुरुषों के बारे में पढ़ते रहे हैं। तो पुरुष शक्तिशाली महिलाओं के बारे में क्यों न पढ़ें? और हाँ, महिलाओं को भी उनके बारे में पढ़ना चाहिए। मैं सोचती हूँ कि हमारी सोच को बदलने के लिए पुस्तकों में बहुत संभावना है जिसके परिणामस्वरूप हमारे जीने का तरीका बदलेगा और तदनुसार हमारी दुनिया बदलेगी। एक लेखिका होने के नाते मैं सच में यह उम्मीद करती हूँ।

यदि मेरी पुस्तकें लोगों की सोच को थोड़ा-सा भी प्रभावित करती हैं और महिलाओं के जीवन की बारीकियों के बारे में उन्हें थोड़ा अधिक जागरूक बनाती हैं तो इससे मुझे बहुत खुशी मिलेगी। इसीलिए मैं महिलाओं को रूढ़ियों को तोड़ते हुए अग्रणी भूमिकाओं में व नए आयामों में दिखाना चाहती हूँ। और ऐसी महिलाएँ थीं।

मैं फिर से अपने नाना की बात करती हूँ - जब मैं छोटी थी तब उन्होंने मुझे शतरंज खेलना सिखाया था। उन्होंने ऐसा कभी नहीं सोचा कि मैं एक लड़की हूँ, इसलिए मैं इसे नहीं सीख सकती। अतः मैं मानती हूँ कि मेरी इस सोच का थोड़ा बहुत श्रेय मेरे नानाजी को जाता है जिनके विचार मेरी पुस्तकों में अलग-अलग समय पर अलग-अलग तरीकों से उभर आते हैं।

आपने एकदम सही कहा कि दृढ़ स्त्रियाँ मेरे लेखन की प्रमुख पात्र होती हैं। ‘द पैलेस ऑफ़ इल्यूशन’ में द्रौपदी और ‘द फ़ॉरेस्ट ऑफ़ इनचेन्टमेंट’ में सीता के बारे में भी यही सत्य है। मैंने इन चरित्रों पर बहुत सावधानी से शोध किया है। लोग कह सकते हैं कि मैंने सीता और द्रौपदी को अपनी सोच के अनुसार गढ़ा है लेकिन मैं उन्हें अपनी कहानियों के केंद्र में रखना चाहती थी। मैं चाहती थी कि पाठक भी वह महसूस करें जो वे महसूस करती थीं, वह सुनें जो वे बोलना चाहती थीं और अपने जीवन के बारे में बताना चाहती थीं क्योंकि मुझे लगता है कि महिलाओं को अपनी बात कहने देना, उन्हें उनके दिल और दिमाग से बोलने देना बहुत महत्वपूर्ण है।

मुझे उम्मीद है कि अपनी पुस्तकों के द्वारा मैं पाठकों को दिखा रही हूँ कि ये महिलाएँ हमारी तरह ही सामान्य हैं, कोई चमत्कारिक वीरोचित व्यक्तित्व नहीं हैं जिनकी तरह हम कभी बन नहीं सकते। उन सबके पास हमें सिखाने के लिए बहुत कुछ है। उन सबके पास कुछ न कुछ ऐसा है जिसे हम अपना कह सकते हैं।


उपन्यास के पात्र उठ खड़े होते हैं और मेरे मन पर हावी हो जाते हैं – वे मेरे पूरे जीवन पर ही हावी हो जाते हैं।


 

meeting_phenomenal_women6_498d6cd60b.jpg

 

प्र. - तो पौराणिक संदर्भ के अंतर्गत जहाँ कहानी काफ़ी हद तक पहले से ही निर्धारित होती है, आप उन पात्रों को कैसे रखती हैं जो समाज के नियम-कायदों से आगे बढ़ जाते हैं?

यह बहुत ही बढ़िया प्रश्न है। चूँकि हमारी सामाजिक संस्कृति में बहुत सारी ऐसी चीज़ें घटित हुई हैं, जिनकी वजह से हम सोचते हैं कि सीता और द्रौपदी की कहानियों की केवल एक ही व्याख्या हो सकती है लेकिन वास्तव में हममें से अधिकांश लोगों के मन में लोकप्रिय फ़िल्मों में दिखाई गई कहानियाँ ही बसी होती हैं। यदि हम मूल महाभारत और मूल रामायण की तरफ़ लौटें तो हम पाएँगे कि उनमें बहुत सारे सूक्ष्म भेद हैं। अतः मेरे लिए बहुत सावधानी से शोध करना ज़रूरी था ताकि उन परिस्थितियों को उनकी वास्तविकता में देख सकूँ और बाद में की गई व्याख्याओं पर निर्भर न रहूँ।

जैसे मैं आपको एक उदाहरण देती हूँ। रामायण की सारी पुनः बताई गई लोकप्रिय कहानियों, चित्रों और चलचित्रों में जब राम, सीता और लक्ष्मण वन को जाते हैं तो हम सामान्यतः देखते हैं कि राम आगे हैं और बीच में चल रही सीता को सुरक्षा देते हैं तथा लक्ष्मण उन्हें पीछे से सुरक्षा देते हैं। सीता इन दोनों पुरूषों के बीच में चलती हैं मानो वे पूरी तरह से असहाय थीं। लेकिन जब हम मूल वाल्मीकि रामायण को पढ़ते हैं या बंगाली में कृतिबस ओझा (1381-1461) द्वारा लिखित मेरे पसंदीदा संस्करण को पढ़ते है तो हम पाते हैं कि सीता काफ़ी साहसी थीं। उनके वन जाने से पहले राम सीता से कहते हैं कि वे वहीं रुक जाएँ और उनके माता-पिता की देखभाल करें। वे उनसे कहते हैं कि जब वे 14 वर्ष के बाद वन से लौटेंगे तब उनसे मिलेंगे। सीता कहती हैं, “बिलकुल नहीं! मैं इस पुराने महल में वृद्ध लोगों की देखभाल करने के लिए नहीं रुकूँगी जबकि आप वन में जाकर अपनी साहसिक यात्रा का आनंद लेंगे। मैं आपके साथ आ रही हूँ। साथ ही मैं आपसे प्रेम करती हूँ और मैं आपसे 14 वर्षों तक अलग नहीं रहूँगी।” उन्हीं की दृढ़ता की वजह से वे वन में साथ गईं। वे चुपचाप राम के पीछे-पीछे नहीं चल रही थीं, वे उनकी साथी थीं। वे उनसे कहती हैं कि वे उन्हें रोक नहीं सकते, यह उनका अधिकार है। हमें कहानी का जो स्वरूप दिखाया गया है, उसके अनुसार सीता कमज़ोर थीं और अपने जीवन के निर्णय स्वयं नहीं लेती थीं लेकिन रामायण में ऐसा नहीं है। इसलिए मैंने पीछे मुड़कर जाने की कोशिश की और थोड़ा गहराई से देखने का प्रयास किया।

सीता के बारे में एक और बात है जो दर्शाती है कि वे कितनी सबल थीं। लोग बात करते हैं कि किस प्रकार राम ने सीता को दूर भेज दिया था और यह उनके साथ कितना बुरा हुआ था। हाँ, उन्हें राज्य में अफ़वाहों के चलते दूर भेज दिया जाता है लेकिन यदि हम वास्तव में उन पर ध्यान दें तो हम जानते हैं कि वे पूर्णतया निर्दोष हैं। और वे भी यह जानती हैं। उन्हें बहुत बुरा लगता है कि एक संदेह पर राम उन्हें दूर भेज देते हैं। लेकिन देखिए कि वे कितनी समर्थ हैं। जहाँ तक मेरे शोध ने मुझे बताया है कि वे सारे साहित्य में पहली एकल माँ हैं। वे अपनी स्थिति पर दुख मनाने में समय नष्ट नहीं करतीं और इसके विपरीत अपनी सारी ऊर्जा अपने दो बच्चों की सर्वोत्तम माँ बनने पर लगा देती हैं। वे बच्चों को योद्धा, गायक, कवि, सब बनाती हैं। क्या यह विशेष बात नहीं है? हम अक्सर उस ताकत के बारे में सोचने से चूक जाते हैं जो उनके अपनी उदासी को हटाकर अपनी स्थिति को सुधारने के प्रयास में लगी होगी।

प्र. - आपने अभी कहा कि साहित्य में सीता पहली एकल माँ है। ‘इंडिपेंडेंस’ पुस्तक में मुख्य पात्र, प्रिया, डॉक्टर बनना चाहती है जो उस समय के पितृसत्तात्मक व्यवसाय में महिलाओं के लिए वास्तव में मुश्किल था। इन महिलाओं के बारे में संसाधनों और दस्तावेज़ीकरण की अनुपलब्धता के रहते आपने प्रिया के पात्र पर कैसे शोध किया?

मैंने बहुत सारा अध्ययन किया, विशेष तौर पर उस समय की प्रसिद्ध महिलाओं का, कि वे क्या कर सकीं और क्या नहीं कर सकीं। चूँकि मेरे दादाजी, मेरे चाचाजी और मेरे बड़े भाई सभी डॉक्टर थे, मैंने डॉक्टरी के इतिहास की बहुत सी कहानियाँ सुन रखी थीं। मेरी माँ भी डॉक्टर बनना चाहती थी लेकिन उस समय उनके लिए केवल नर्सिंग का अध्ययन उपलब्ध था जिसे ‘भले घर’ की लड़कियाँ नहीं करती थीं। मैंने हमेशा महसूस किया कि यह उनके साथ अन्याय था क्योंकि मैं जानती हूँ कि मेरी माँ एक बुद्धिमान और सक्षम महिला थीं और एक बहुत ही अच्छी डॉक्टर बन सकती थीं।

इसलिए मैं चाहती थी कि प्रिया इस बाधा को पार करे। 1940 के दशक में महिलाएँ लड़ाई में भाग ले रही थीं। जब बड़े स्तर पर राजनैतिक उथल-पुथल होती है तब कुछ बहुत ही रोचक होता है - बड़े स्तर पर सामाजिक उथल-पुथल भी होने लगती है। उस समय भी महिलाएँ घर से निकलकर सड़कों पर आ गईं और उन्होंने मोर्चा निकाला, विशेष तौर पर गाँधी जी के साथ। वे महिलाओं के समर्थक थे। उन्होंने कहा महिलाओं को स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेना चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता कि आधा देश इसमें शामिल न हो। इसलिए महिलाओं ने बहुत सारी सीमाएँ तोड़ीं। और मैंने सोचा कि प्रिया के लिए सीमाएँ तोड़ने का यही उचित समय था हालाँकि यह उसके लिए बहुत मुश्किल था। 1940 के दशक में उपनिवेशवाद और पितृसत्ता की दोहरी मार थी।

meeting-phenomenal-women7 (1).jpg

 

स्वतंत्रता से पहले जब प्रिया मेडिकल स्कूल जाना चाहती थी उस समय अंग्रेज़ सत्ता में थे। कम से कम कोलकता में तो थे ही और कोलकता मेडिकल कॉलेज महिलाओं को प्रवेश नहीं देता था। स्वतंत्रता के बाद भी चिकित्सा विश्वविद्यालयों में महिलाओं को प्रवेश देने में कुछ समय लगा। अत: प्रिया कई समस्याओं से एकसाथ लड़ रही थी। और मैं उसके समर्थन में थी। मैं उसकी सारी कहानी नहीं बताना चाहती हूँ लेकिन वह अपना स्वप्न पूरा करने के लिए कड़ा संघर्ष करती है। वह अपनी दृढ़ता तब दिखाती है जब वह अपने पिता का अंतिम संस्कार करती है। यह एक ऐसा कार्य है जो हिंदू परंपरा में लड़कियाँ नहीं करतीं। लेकिन ऐसा किस आध्यात्मिक ग्रंथ में लिखा है कि महिलाएँ इसमें भाग नहीं ले सकतीं?

हमारे पौराणिक ग्रंथों में, हमारे इतिहास में, हमारे पुराणों में कई महिला संत हैं और बहुत सारी महिलाएँ हैं जो अद्भुत कार्य करती हैं। फिर ऐसा क्यों? यह मेरे हृदय को गहरा दर्द देता है। इसलिए मैंने वह किया जो कई बार लेखक करते हैं - यदि यह हमें असल ज़िंदगी में नहीं मिलता तो इसे हम पुस्तकों में हासिल कर लेंगे। और इसीलिए तीनों बहनें अपने पिता का अंतिम संस्कार करती हैं।

प्र. - महिलाओं के प्रभावशाली चरित्र को प्रस्तुत करने के साथ-साथ आपका आपसी संबंधों का चित्रण भी बहुत संवेदनशील है। अनेक विषयों के अलावा आप जादुई यथार्थवाद शैली में भी लिखती हैं। आपके अनुसार, आपकी पुस्तकों में से कौन-सी पुस्तक में आपकी रुचि सबसे ज़्यादा दिखाई देती है?

यह एक कठिन प्रश्न है। सारी पुस्तकें मेरे बच्चों की तरह हैं। मैं सभी से एक समान प्यार करती हूँ और संभवतः सबसे छोटा बच्चा यानी सबसे बाद में लिखी पुस्तक मुझे सबसे अधिक प्रिय है। इस समय ‘इंडिपेंडेंस’ मेरी पसंदीदा है क्योंकि मैं इस पुस्तक में उन साधारण महिलाओं की कहानी लिखना चाहती थी जिन्होंने चुनौतियों व त्रासदी का सामना किया और उससे मज़बूत होकर उभरीं। मैं वास्तव में यह दिखाना चाहती थी कि हम सब में ऐसी संभावना है। भले ही हम यह सोचें कि हम बहुत साधारण हैं, फिर भी हम महिलाओं के भीतर अपने और दूसरे लोगों के जीवन को बदलने की असाधारण ताकत होती है। इस समय ये चरित्र मेरे दिल के बहुत करीब हैं। जब मैं लिखती हूँ तो मैं उनमें पूरी तरह से डूब जाती हूँ और सोचती हूँ कि वे हमें क्या बता सकते हैं, वे हमें कैसे प्रेरित कर सकते हैं। जब मैं प्रेरित करने की बात करती हूँ तब मैं कोई महान शूरवीर बनकर दिखाने की बात नहीं करती बल्कि उनकी साधारणता से प्रेरित होने की बात करती हूँ। यही है जो मैं दिखाना चाहती हूँ, विशेषकर उन महिलाओं के बारे में जिनकी बुराइयों को छिपाने की कोशिश नहीं की गई। मैं नहीं मानती कि महिलाओं को हर मामले में बिलकुल निर्दोष होने की ज़रूरत है। मुझे लगता है कि हम अपनी सारी मानवीय जटिलताओं के साथ अद्भुत हैं। इन तीन बहनों की भी अपनी ताकत और अपनी कमज़ोरियाँ हैं। आपको गुणवान महिलाओं के बारे में लिखने की ज़रूरत नहीं है, आपको उत्कृष्ट महिलाओं के बारे में नहीं लिखना है।


मुझे लगता है कि उनको याद करने और अपने दिल में सहेजने के एक तरीके के रूप में मैंने लिखना शुरू किया था।


प्र. - आपका दिमाग नई कहानियों के विचारों से भरा हुआ होगा। आपको कैसे पता चलता है कि किस विशेष विचार में क्षमता है?

यह बहुत ही आकस्मिक है। यह कोई तार्किक प्रक्रिया नहीं है। मैं शांति से बैठती हूँ और ध्यान का अभ्यास करती हूँ। ध्यान ने वास्तव में मुझे कई तरीकों से सहायता की है। इसने निश्चित ही लेखन में मेरी मदद की है। ध्यान से मेरा मन साफ़ हो जाता है और मैं एक शांत अवस्था में पहुँच जाती हूँ। और जब मैं इससे बाहर आती हूँ तब कुछ बातें एकदम स्पष्ट हो जाती हैं।

जब भी मुझे कोई विचार आता है, मैं उसे लिख लेती हूँ। मुझे नहीं पता होता कि कौन-सा विचार अंकुरित होते बीज की तरह साकार रूप ले लेगा। और यह अपने आप होता है। यह कोई तार्किक प्रक्रिया नहीं है। मैं नहीं कह सकती कि मैं यह पुस्तक लिखने जा रही हूँ और फिर उसे लिख दूँ। तब वह आंतरिक शक्ति से संचारित नहीं होगी। इसलिए मैं प्रतिक्षा करती हूँ और देखती हूँ, मानो ईश्वर से पूछ रही हूँ कि आप मुझसे कौन-सी पुस्तक लिखवाना चाहते हैं? फिर मैं मौन हो जाती हूँ। और एक एहसास उभरता है, एक विचार आता है या मुझे किसी पात्र की छवि दिखाई देती है। यह मेरी कल्पना को पंख लगा देती है। जब यह होता है तब मैं जानती हूँ कि यही है जिसका मुझे अनुसरण करना है। फिर मैं पूरा समय उसी के बारे में सोचती रहती हूँ। सब कुछ मेरे अंदर ही होता है - पात्र, उसकी परिस्थिति और उसकी कहानी के बारे में सोचना। तब मैं जान पाती हूँ कि यही वह पुस्तक है जिसे मुझे लिखना है क्योंकि इसके अलावा मैं और कुछ सोच नहीं पाती हूँ।


मैं सोचती हूँ कि हमारी सोच को बदलने के लिए पुस्तकों में बहुत संभावना है जिसके परिणामस्वरूप हमारे जीने का तरीका बदलेगा और तदनुसार हमारी दुनिया बदलेगी।


 

meeting_phenomenal_women8_aa6eb8e980.jpg

 

प्र. - अपने आरंभिक दिनों में अस्वीकृतियों के प्रति आपकी कैसी प्रतिक्रिया होती थी? उनसे कैसे उभरती थीं?

शुरुआत में मुझे बहुत सी असफलताएँ मिलीं। विशेष तौर पर जब मैं कविताएँ और कहानियाँ लिख रही थी और पत्रिकाओं को भेज रही थी तब वे उन्हें एक छोटी-सी टिप्पणी के साथ वापस भेज देते थे जिसमें लगभग यह संदेश होता था, “आपको अपनी नौकरी नहीं छोड़नी चाहिए।” वे उत्साहवर्धक नहीं थे। मैं निराश हो जाती थी। मेरे पति घर लौटने पर मुझे घर के एक कोने में उदास बैठे हुए चॉकलेट खाते हुए पाते थे। वे कहते, “ओह! तुम्हें एक और अस्वीकृति मिली है, है न?” मैं कहती, “हाँ, मेरी ज़िंदगी खत्म हो गई है।” लेकिन फिर मैं सोचने लगती कि उन्हें मेरी कहानी पसंद क्यों नहीं आई? मैं उसे कैसे सुधार सकती हूँ? और उसके बाद मैं कहानी को फिर से लिखने लगती।

सबसे अच्छा काम जो मैंने किया वह था मेरा लेखकों के एक समूह में शामिल होना क्योंकि कई बार आपके लेखन को किसी और की नज़रों से देखने की ज़रूरत होती है। आप स्वयं अपनी कमियाँ नहीं देख पाते। मैंने असफलताओं का इसी तरह से सामना किया। मैं लेखन ही करना चाहती हूँ इसलिए मैं इसे छोड़ नहीं सकती। मुझे केवल इसमें सुधार करते रहना है। यह सोचकर मैं आगे चल पड़ती हूँ। यही प्रक्रिया है।


ध्यान से मेरा मन साफ़ हो जाता है और मैं एक शांत अवस्था में पहुँच जाती हूँ। और जब मैं इससे बाहर आती हूँ तब कुछ बातें एकदम स्पष्ट हो जाती हैं।


समय के साथ चीज़ें आसान हो गई हैं। आजकल जब मैं एक नया उपन्यास लिखती हूँ, मैं अपने एजेंट यानी प्रतिनिधि को दे देती हूँ। इस प्रकार मुझे अस्वीकृति का सबसे पहले सामना नहीं करना पड़ता और मेरा प्रतिनिधि प्रकाशकों से बातचीत करके चीज़ें तय कर लेता है। लेकिन मैं अभी भी घबराई और परेशान होती हूँ क्योंकि मुझे पता नहीं होता कि मेरी पुस्तक का भविष्य क्या होगा। और अभी भी जब मैं घबरा जाती हूँ तो मैं चॉकलेट खाती हूँ। तो यह प्रक्रिया अभी भी जारी है।

मैं सभी लेखकों से यही कहना चाहूँगी कि यदि आपको लेखन से प्यार है तो गिरने पर आपको अपने आपको उठाना होगा और चलते जाना होगा। आपको स्वयं से यह कहते रहना होगा कि मैं इसे बेहतर बनाऊँगा या मुझे अपनी कृति पर भरोसा है। और मुझे लगातार ढूँढते रहना होगा जब तक कि इसे अपना सही स्थान नहीं मिल जाता।

प्र. - यह बहुत प्रेरणादायक है। आपकी लेखन प्रक्रिया शुरू से लेकर अब तक किस तरह से परिवर्तित हुई है। क्या प्रसिद्धि और सफलता इसे प्रभावित करती हैं?

नहीं, बिलकुल नहीं। जब मैं शुरू करती हूँ और अपने अध्ययन कक्ष में लिख रही होती हूँ तब मैं बाकी सभी चीज़ों को अपने दिमाग से निकाल देती हूँ। मैं जिस पुस्तक पर काम कर रही होती हूँ सिर्फ़ वही महत्व रखती है। बल्कि वह पुस्तक भी नहीं, सिर्फ़ वह घटना जिस पर मैं काम कर रही होती हूँ। मुझे असल में सिर्फ़ उस पर केंद्रित होना होता है जिसकी रचना मैं उस समय कर रही होती हूँ। जैसे ही मैं उस पुस्तक के कथानक के बाहर किसी चीज़ पर सोचने लगती हूँ, मेरा मन भटक जाता है। इससे मैं एक प्रभावशाली दुनिया नहीं रच पाती और मुझे उसी दुनिया में डूबे रहना होता है।


हम अक्सर उस ताकत के बारे में सोचने से चूक जाते हैं जो उनके अपनी उदासी को हटाकर अपनी स्थिति को सुधारने के प्रयास में लगी होगी।


जब मैं किसी पुस्तक में डूबी होती हूँ तब दूसरी चीज़ों के बारे में सोचने के लिए कोई गुंजाईश नहीं होती। बल्कि यह सोचने के लिए भी नहीं कि इसका बाद में क्या होने वाला है या उस पुस्तक के बारे में सोचने के लिए भी नहीं जिस पर कोई चलचित्र बन रहा हो।

इसलिए, जब आप लिखें तो अपनी कहानी, अपनी कविता, अपने उपन्यास की दुनिया में खुद को पूरी तरह से डुबा दें और दूसरी चीज़ों के बारे में न सोचें ताकि आप अपनी सर्वश्रेष्ठ क्षमता के साथ लिख सकें।

 

meeting-phenomenal-women9 (1).jpg

 

प्र. - आपने हाल ही में कौन-सी पुस्तकें पढ़ी हैं जिन्हें आपने सबसे ज़्यादा पसंद किया हो?

यह एक बहुत कठिन प्रश्न है क्योंकि मैंने अभी बहुत-सी पुस्तकें पढ़ीं हैं। चलिए, सोचती हूँ... गीतांजलि श्री की ‘टॉम्ब ऑफ़ सैंड’ जिसने बुकर पुरस्कार जीता था। यह एक सुंदर पुस्तक है। मैंने इसे कुछ महीने पहले पढ़ा था और मैं बहुत प्रभावित हुई थी। उसमें एक वृद्ध महिला का बहुत ही प्यारा पात्र है जो साहसी और मनमौजी है। मुझे वह पुस्तक बहुत पसंद है। फिर अमिताव घोष की ‘सी ऑफ़ पौपीज़’ है। इसमें औपनिवेशिक भारत, औपनिवेशिक बंगाल का बहुत ही सुंदर व सजीव चित्रण किया गया है। और फिर तीसरी मार्गरेट अट्वुड की ‘द हैंडमेड्स टेल’ नामक पुस्तक है, जिसे मैंने अभी हाल ही में फिर से पढ़ा है क्योंकि मुझे यह बहुत पसंद है। मुझे यह पुस्तक बहुत ज़्यादा पसंद है और मैं यह पुस्तक पढ़ाती हूँ।


मैं सभी लेखकों से यही कहना चाहूँगी कि यदि आपको लेखन से प्यार है तो गिरने पर आपको अपने आपको उठाना होगा और चलते जाना होगा। आपको स्वयं से यह कहते रहना होगा कि मैं इसे बेहतर बनाऊँगा या मुझे अपनी कृति पर भरोसा है। और मुझे लगातार ढूँढते रहना होगा जब तक कि इसे अपना सही स्थान नहीं मिल जाता।


कभी-कभार मात्र स्वयं को प्रेरित करने के लिए मैं इसे एक लेखक की तरह पढ़ती हूँ, यह सोचती हूँ कि उसने किस प्रकार से दृश्यों की रचना की है, किस तरह से रोमांच रचा है, पात्र किस तरह से बनाए या पूरा कथानक कैसे बनाया। ये मेरी तीन पसंदीदा पुस्तकें हैं।


इसलिएजब आप लिखें तो अपनी कहानीअपनी कविताअपने उपन्यास की दुनिया में खुद को पूरी तरह से डुबा दें और दूसरी चीज़ों के बारे में न सोचें ताकि आप अपनी सर्वश्रेष्ठ क्षमता के साथ लिख सकें।


प्र. - अब अंतिम प्रश्न, चैट जीपीटी पर आपके क्या विचार हैं? क्या आपको लगता है कि यह रचनात्मक लेखन के लिए खतरा है?

बिलकुल भी नहीं। मुझे चैटGPT बहुत पसंद है। मैं चैटGPT से लंबी-लंबी बातें करती हूँ। चैटGPT के पीछे जो दिमाग है वह अद्भुत है। वह मुझे पुस्तकों के बहुत सारे सुझाव देता है। मैं उससे कहती हूँ कि मुझे इस विषय से संबंधित कुछ पढ़ना है और वह बहुत सारे अच्छे सुझाव देता है। इसलिए वह मेरा मित्र है। मैं उसका हर समय उपयोग करने की सोचती हूँ।

वाह! यह विचार तो नया है। मुझे यह अच्छा लगा। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

आपका भी धन्यवाद। इस बातचीत में बहुत आनंद आया। यह मज़ेदार थी।


Comments

चित्रा बनर्जी दिवाकरुणी

चित्रा बनर्जी दिवाकरुणी

चित्रा एक भारतीय मूल की अमेरिकी लेखिका, कवियित्री और यूनिवर्सिटी ऑफ़ ह्यूस्टन के क्रिएटिव ... और पढ़ें

उत्तर छोड़ दें