आधुनिक जीवन के लिए आध्यात्मिक अभ्यास और दृष्टिकोण
सतत स्मरण और प्रेम के बारे में अपूर्वा पटेल से बातचीत करते हुए दाजी बता रहे हैं कि कैसे वे दोनों एक-दूसरे की अभिव्यक्तियाँ हैं और हमारे आध्यात्मिक विकास में उनकी क्या भूमिका है।
प्रश्न - क्या आप हमें स्मरण और प्रेम के बीच के संबंध के बारे में बताएँगे? हमारी आध्यात्मिक साधना में उनकी क्या प्रासंगिकता है?
दाजी - मुझे लगता है कि किसी को याद करने के पीछे प्रेम ही प्रेरक शक्ति है। भले ही प्रेम न हो व भले ही आप किसी से नफ़रत करते हों, आप उस व्यक्ति को बार-बार याद करते हैं। प्रियतम का स्मरण आपके हृदय में एक अलग ही स्तर के स्पंदन उत्पन्न करता है। ऐसा लगता है जैसे आप प्रियतम के बारे में सोचते हुए तल्लीनता की अवस्था में हैं। मैं जानबूझकर ‘सोचना’ शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ हालाँकि सोचने और याद करने में बहुत अंतर है। जहाँ सोचना आपके मस्तिष्क, खास तौर पर मन, से संबंधित है वहीं स्मरण हृदय से होता है। जब आप भगवद्गीता के एक विशेष श्लोक के बारे में विचार करते हैं तब आप उस पर मनन करते हैं। भगवान कृष्ण के यह कहने का क्या तात्पर्य है, “सर्वधर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज [सभी प्रकार के धर्मों को त्याग दो और केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पाप कर्मों से मुक्त कर दूँगा। डरो मत।]” आप विचार करते रहते हैं, चिंतन करते रहते हैं कि वे मुझे क्या संदेश देना चाह रहे हैं? यह मन के द्वारा होता है। लेकिन जब आप किसी दूसरे आयाम में जाते हैं और आप भगवान कृष्ण या इस श्लोक को याद करते हैं तब यह आपको हृदय में महसूस होता है।
प्रश्न – यानी इसका विश्लेषण करने के बजाए इसे महसूस करना है।
दाजी - हाँ। आप उपस्थिति को महसूस करते हैं। इस स्मरण के कारण आपकी जागरूकता में कुछ बदलाव आने लगता है। इसलिए, मैं कहूँगा कि प्रेम परिणाम है और स्मरण शुरुआत है। बाबूजी महाराज के अनुसार, यदि आप इस समीकरण को उलट भी दें तब भी यदि आप किसी से प्रेम करते हैं तो आप उसे याद करते हैं। चूँकि ईश्वर एक अज्ञात सत्ता है, हम वास्तव में नहीं जानते कि उनसे प्रेम कैसे किया जाए। इसलिए हम स्मरण से शुरुआत करते हैं और प्रेम पर पहुँच जाते हैं। इससे यात्रा में तेज़ी आती है क्योंकि आप किसी ऐसे व्यक्ति को क्यों याद करेंगे जिसके साथ आप विलय नहीं होना चाहते, जिसके साथ आप एक नहीं होना चाहते? स्मरण इसके लिए एक बेहतरीन उत्प्रेरक है।
प्रश्न - क्या कोई ऐसा तरीका है जिससे हम स्मरण को विकसित कर सकें?
दाजी - यह बहुत आसान है। उदाहरण के लिए, जब आप किसी व्यक्ति या किसी चीज़ को याद करते हैं तो आप उस व्यक्ति या उस विशेष क्षण को क्यों याद करते हैं? क्योंकि वह आपके दिल को छू जाता है। आप उस घटना या उस व्यक्ति से बहुत प्रभावित होते हैं और कृतज्ञ रहते हैं।
तो यह आध्यात्मिक क्षेत्र में कैसे लागू होता है? जब हम ध्यान करते हैं और एक निश्चित आध्यात्मिक अवस्था प्राप्त करते हैं तब हम उस विशेष अवस्था से अभिभूत होकर कहते हैं, “वाह! लेकिन क्या मैं इसके योग्य हूँ?” हृदय में एक तरह का कृतज्ञता का भाव आने लगता है और फिर इस कृतज्ञता के कारण हम सोचने लगते हैं कि यह देने वाला कौन है - चाहे वह हमारा गुरु हो या ईश्वर। हम उनके बारे में सोचने लगते हैं, उन्हें याद करने लगते हैं और फिर हम कृतज्ञता के साथ उनकी याद में लीन रहते हैं। इस प्रकार हमारी याद उत्तरोत्तर परिष्कृत होती जाती है। इसलिए इस व्यक्ति पर, यानी गुरु पर, ध्यान करने से भी मदद मिलेगी।
प्रश्न - अन्य परंपराओं के बारे में क्या कहेंगे? उदाहरण के लिए सूफ़ीवाद में ‘धिक्र’ होता है और मैं सोच रही हूँ कि क्या यह वही चीज़ है या उससे मिलती-जुलती है जिसे हम सतत स्मरण कहते हैं?
दाजी - यह वही चीज़ है, बस शब्द अलग है। यह अन्य परंपराओं में भी है। सतत स्मरण प्रियतम का निरंतर स्मरण है। कोई भी क्षण जो बिना याद किए बीत जाता है, पछतावे का कारण बनता है - “मैं अपने प्रियतम को क्यों, कैसे भूल गया? मैं उन्हें कैसे भूल सकता हूँ?”
प्रश्न - बाबूजी ने कहा है कि स्मरण आध्यात्मिक मार्ग से सब कुछ (बाधाएँ) साफ़ करने में सक्षम है और यह हमें दिव्यता से निरंतर आवेशित रखता है। क्या यह ऐसा कुछ है जो हमारी यात्रा में एक निश्चित स्तर पर आने के बाद ही होता है?
दाजी - यहाँ वास्तव में एक प्रश्न में ही तीन प्रश्न हैं। पहला अनावश्यक चीज़ों को हटाने के बारे में है। दूसरा हमें आवेश, यानी चार्ज से भरने के बारे में है। तीसरा है – इस यात्रा में वास्तव में स्मरण कब शुरू होता है?
जब भी हम याद करते हैं, हम तुरंत ही प्रियतम के साथ जुड़ जाते हैं और ऐसे व्यक्ति से प्रवाहित होने वाली कृपा (शक्ति और प्रेम) को अपने हृदय में खींचने लगते हैं। तो इस तरह की याद जिसमें आप निरंतर दिव्यता से ओतप्रोत होते हैं, एक प्रेम भरा आमंत्रण है। यह पूर्ण शरणागति है। ऐसा नहीं है कि आपने हार मानकर समर्पण किया है। आपने अपने प्रियतम के प्रति प्रेमपूर्वक, पूर्ण विश्वास और सम्मान के साथ समर्पण किया है।
दूसरी बात, किस तरह की चीज़ों को साफ़ किया जाता है? जब भी हम गुरुजी या ईश्वर या कृष्ण या पैगंबर, उन्हें शांति मिले, जैसे महान व्यक्तित्व को याद करते हैं तब हमारी जागरूकता में तुरंत बदलाव आता है। जब भी हम ऐसे महान व्यक्तित्वों को याद करते हैं तब हमारा हृदय बहुत अधिक प्रभावित होता है। यदि हम कोई गलत काम करने वाले होते हैं तो यह याद उसे रोक देगी। हम सोचेंगे, “मैं ऐसा काम कैसे कर सकता हूँ जबकि मैं अपने प्रियतम के बारे में सोच रहा हूँ?” यदि हम याद करने के बावजूद ऐसे काम करने में रुचि रखते हैं तो इसका मतलब है कि हमारे अंदर सच्चा प्यार नहीं है।
जब याद करने की बात आती है तो धीरे-धीरे, जैसे-जैसे हम याद के ज़रिए उनसे जुड़े रहने (परासरण में रहने) की क्षमता विकसित करते हैं, हमारे अंदर गुणात्मक बदलाव आने लगता है। रसायन विज्ञान और भौतिक विज्ञान में परासरण की प्रक्रिया को अच्छी तरह से समझाया गया है। जीव विज्ञान और शरीर विज्ञान में भी परासरण के बिना हम शारीरिक रूप से जीवित नहीं रह सकते। इसी तरह मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक स्तरों पर भी हमारे सूक्ष्म शरीर और ईश्वर के सार्वभौमिक शरीर के बीच कुछ हद तक परासरण होता है। परासरण ज़रूर होता है।
जब तक वह क्षण नहीं आ जाता जब हमारी पवित्रता का स्तर और उनकी पवित्रता का स्तर बराबर हो जाए तब तक परासरण जारी रहेगा। योग, ध्यान, भक्ति और ईश्वर की पूजा का यही उद्देश्य है – इस परासरण को शुरू करना और ईश्वरत्व की स्थिति प्राप्त करना।
यदि हम कोई गलत काम करने वाले होते हैं तो यह याद उसे रोक देगी। हम सोचेंगे, “मैं ऐसा काम कैसे कर सकता हूँ जबकि मैं अपने प्रियतम के बारे में सोच रहा हूँ?” यदि हम याद करने के बावजूद ऐसे काम करने में रुचि रखते हैं तो इसका मतलब है कि हमारे अंदर सच्चा प्यार नहीं है।
प्रश्न - आपने कहा है, “ध्यान स्मरण की जननी है।” क्या इसका मतलब यह है कि जिन लोगों ने अभी तक स्मरण को अपना हिस्सा नहीं बनाया है, नियमित ध्यान उन्हें इस तरह से प्रियतम को याद करने के करीब ला सकता है कि वह उनके अस्तित्व का हिस्सा बन जाए?
दाजी - यह बाबूजी महाराज का एक प्रसिद्ध कथन था, “ध्यान सतत स्मरण की जननी है।” मैं इस कथन की सराहना करता हूँ क्योंकि यह कथन हमारी आध्यात्मिक साधना का संपूर्ण सार है। चाहे आप ‘क’ पद्धति का अभ्यास करें या ‘ख’ पद्धति का, मूल रूप से अपने गुरु या आप जिस व्यक्तित्व की पूजा करते हैं, आप उन्हें कैसे याद कर सकते हैं जब तक आप उनके प्रति कृतज्ञ न हों। और यह कृतज्ञता किससे प्रेरित होती है? यह उन प्रक्रियाओं के साथ आपके प्रयोग हैं जो बताई गई बातों से प्रेरित होती हैं। वे कहते हैं, “आओ, इस तरह से ध्यान करें।” तब आप उस पद्धति का अभ्यास करते हैं और अपने हृदय में देखते हैं कि यह आपकी चेतना के स्तर पर किस तरह असर करता है। यदि आपको यह पसंद आता है तो आप अधिक सराहना करते हैं व अधिक कृतज्ञ होते हैं और आप उन्हें स्मरण करते रहते हैं।
इसलिए मैं कहता हूँ कि ध्यान करना और ऐसी परिष्कृत अवस्था में पहुँचना एक चमत्कारिक चीज़ है। इससे ज़्यादा मैं इस पद्धति की और क्या तारीफ़ करूँ।
प्रश्न - क्या कभी ऐसा समय आता है जब गुरु अपने शिष्य को याद करते हैं?
दाजी - ऐसा हमेशा होता है। गुरु वास्तव में कई श्रेणियों के अंतर्गत लोगों को याद करते हैं -उदाहरण के लिए, जो लोग परेशानी में हैं या वे जो बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं और आध्यात्मिक रूप से बहुत उच्च स्तर प्राप्त कर चुके हैं। इसलिए आप यह नहीं कह सकते कि गुरु आपको याद नहीं करते क्योंकि हम सभी उन श्रेणियों में से किसी एक में तो आते ही हैं। या तो हम बहुत उच्च स्तर पर हैं या हमें हमेशा परेशानी रहती है। लेकिन क्या उनका अपने शिष्यों को याद करना विशिष्ट है या उनकी अपनी पसंद है या वे इसके प्रति सचेत हैं? आपका मतलब यह है कि क्या वे सचेत रूप से कुछ व्यक्तियों को याद करते हैं? मैं कहूँगा हाँ। ऐसे क्षण होते हैं जब वे सचेत रूप से उन लोगों को याद करते हैं जिनसे वे मिले हैं और अक्सर वे उन लोगों को भी याद करते हैं जिनसे वे कभी नहीं मिले हैं। यह विरोधाभासी लगता है लेकिन यह एक तथ्य है।
ज़रूरतमंद और बिना ज़रूरत वाले दोनों ही गुरु के साथ स्पंदित होते हैं। उन्हें किसी तरह से चुन लिया जाता है। लेकिन गुरु के दृष्टिकोण से सचेतन मन का प्रयोग करते हुए यदि सचेत याद होती भी है तो बहुत कम ही होती है। यदि किसी शिष्य के जीवन में कोई महत्वपूर्ण क्षण आता है तो गुरु उसे पहचान लेते हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई मरने वाला है तो आमतौर पर वे जान जाते हैं। या यदि किसी के साथ कोई दुर्घटना होने वाली है तो शायद वे उसे महसूस कर लेंगे। महत्वपूर्ण क्षणों से ज़्यादा ऐसे क्षणों पर उनका ध्यान जाता है जब शिष्य आध्यात्मिक रूप से एक स्तर से दूसरे स्तर पर जा रहा होता है या जब उस शिष्य का मन और हृदय लगातार गुरु को बहुत प्रेम से पुकार रहा होता है। वे भी सचेत स्तर पर गुरु का ध्यान खींचते हैं।

प्रश्न - क्या आप हमें उन महान संतों के बारे में कुछ बता सकते हैं जो अपने प्रियतम की याद में रहने के लिए जाने जाते थे और इस बात ने उनके अपने जीवन को कैसे परिभाषित किया?
दाजी - कल्पना कीजिए कि राधा जैसी शख्सियत के लिए यह कैसा रहा होगा। वह स्मरण की प्रतिमूर्ति थीं। ऐसा कहा जाता है कि जब भी वे भगवान कृष्ण की याद में होती थीं, तब वे उनकी याद में इतनी लीन हो जाती थीं कि वे “कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण” कहती रहती थीं। एक समय ऐसा आया जब वे स्वयं कृष्ण बन गईं और फिर “राधे, राधे, राधे” कहने लगीं। राधा सबसे उत्कृष्ट उदाहरणों में से एक हैं। और भी बहुत लोग हैं जैसे मीरा, चैतन्य महाप्रभु, स्वामी विवेकानंद, हमारे बाबूजी महाराज और लालाजी साहब। ऐसे कई व्यक्तित्व हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन ईश्वर के स्मरण में समर्पित कर दिया और वे इतिहास में इसके लिए प्रसिद्ध हैं।
