जैक केनफ़ील्ड ‘चिकन सूप फ़ॉर द सोल’ नामक पुस्तक-श्रृंखला के सह-रचयिता हैं। पूर्णिमा रामाकृष्णन के साथ इस साक्षात्कार के भाग 1 में वे आंतरिक मार्गदर्शन का पालन करके भय पर काबू पाने के बारे में जानकारी दे रहे हैं और बता रहे हैं कि समय के साथ उनकी सफलता की परिभाषा कैसे विकसित हुई। उनका ज्ञान व्यक्ति को अपने जुनून का अनुसरण करने और एक संतोषजनक जीवन जीने के लिए व्यावहारिक सलाह और प्रेरणा प्रदान करता है।
प्र.- आपने लाखों लोगों को अनिश्चितता के समय खोया हुआ साहस और स्पष्टता पाने में सहायता की है और उन्हें सशक्त बनाया है। इतनी अस्थिरता और अव्यवस्था के बीच वह क्या चीज़ है जो आपको स्थिर रखती है?
मुझे जो स्थिर बनाए रखता है वह मेरा ध्यानाभ्यास है। मैं जब 20 वर्ष का था तब मैंने ध्यान करना शुरू किया था। आज मैं 80 वर्ष का हूँ यानी 60 वर्ष पहले शुरू किया था। मैंने इन वर्षों में हिंदू से लेकर बौद्ध, सूफ़ी, ईसाई, यहूदी तक विभिन्न प्रकार की ध्यान विधियों को सीखा है। मैंने अनेक साप्ताहिक व 10-दिवसीय सेमिनार किए हैं जो ध्यान पर केंद्रित होते हैं। मुझे जो बात स्थिर रखती है, उसमें सबसे बड़ा योगदान इसी का है। मैं यह मानता हूँ कि इस ब्रह्मांड में सब कुछ मेरे लिए हो रहा है न कि मुझे हो रहा है। मेरी एक और मान्यता है कि हर चीज़ जैसी भी है वह बिलकुल सही है।
हमें सदैव एक ही चीज़ परेशान करती है, वह है हमारा यह मानना कि जो भी वास्तविकता में हो रहा है उससे हटकर कुछ अलग होना चाहिए। अमेरिका में आजकल बहुत कुछ हो रहा है और कई मुद्दे ऐसे हैं जो लोगों को परेशान कर सकते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि मेरा उन पर कोई नियंत्रण नहीं है। जिन पर मेरा नियंत्रण है, वह है मेरे विचार और मेरी भावनाएँ क्योंकि मेरे विचार उन्हें प्रभावित करते हैं।
एक महिला हैं जिनका नाम है बायरॉन केटी। मुझे उनका काम बहुत पसंद है। उन्होंने एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है ‘लविंग व्हॉट इज़’ (जो भी है, उससे प्रेम करना)। वे कहती हैं कि जब कुछ होता है तब आपको स्वयं से पूछना चाहिए कि क्या यह सच है? यदि किसी के आचरण से मैं परेशान हूँ तो इसका मतलब है कि मैं मानता हूँ कि उसका व्यवहार अलग होना चाहिए। लेकिन वह अलग नहीं है। वह व्यक्ति तो जैसा है वैसा ही है। अतः मेरी यह मान्यता ही है जो कहती है कि जैसा है उससे कुछ अलग होना चाहिए और यही बात मुझे परेशान करती है। इसलिए मैंने ऐसी मान्यताओं को छोड़ दिया है। मैं समझता हूँ कि सारे भय भविष्य में बुरी घटनाओं के होने की कल्पना से उत्पन्न होते हैं, वे घटनाएँ जो अभी तक हुई नहीं हैं। इसलिए मैंने बरसों पहले यह करना छोड़ दिया और सिर्फ़ वर्तमान क्षण में जीने लगा। ध्यान करने का एक लाभ यह है कि आप भविष्य व भूतकाल के बारे में चिंता किए बिना वर्तमान में जीते हैं।
मैं एक और बात मानता हूँ कि आनंद का अनुभव हमारे लिए मार्गदर्शन तंत्र की तरह काम करता है। जब हम अपने उद्देश्य पर केंद्रित होते हैं और वही करते हैं जो हमें करना चाहिए तब हम आनंद का अनुभव करते हैं। इसलिए मैंने जीवनभर अधिकतर अपने हृदय की बात सुनी है। और इसने मुझे एक स्थिति से आगे दूसरी पर पहुँचाया है। मैंने एक हाईस्कूल के शिक्षक के पद पर कार्य शुरू किया, फिर शिक्षकों का शिक्षक बन गया और फिर सभी का शिक्षक बन गया। यह ऐसा ही है कि जो हम स्कूल में पढ़ा रहे हैं, उसे ही अब हम जीवन के संदर्भ में सीखा रहे हैं।
इसके बाद मैंने ‘चिकन सूप फ़ॉर द सोल’ शीर्षक से कई पुस्तकें लिखीं। और इसके लगभग 15 वर्ष के बाद हमने यह सब कुछ किसी और को बेच दिया क्योंकि उनको लेकर मेरा काम समाप्त हो चुका था। तब छोड़ने का समय आ गया था। मुझे मेरे आंतरिक मार्गदर्शक ने कहा, “अब आगे बढ़ो।”
मुझे लगता है कि मुझे स्थिरता देने वाली एक और बात यह भी है, कि मैं अपने आंतरिक मार्गदर्शन का अनुसरण करता हूँ। मैं अपने आंतरिक संदेशों पर भरोसा करता हूँ जिन्हें मैं अपने “उच्च-स्व” से प्राप्त करता हूँ। कई बार यह मार्गदर्शन किसी ज्ञानी से प्राप्त होता है जिसके साथ आंतरिक रूप से मेरी बात होती है या यह कोई देवदूत हो सकता है या बुद्ध या कृष्ण या ईसामसीह या कोई अन्य हो सकता है।
प्र.- आप आज सफलता को किस तरह से परिभाषित करते हैं? क्या समय के साथ यह परिभाषा विकसित हुई है?
जी हाँ, यह विकसित हुई है। आरंभ में सफलता की मेरी परिभाषा काफ़ी पारंपरिक थी - अपने इच्छित कामों को करने के लिए पर्याप्त धनराशि का होना, एक मकान होना, अपनी इच्छित वस्तुओं को खरीद पाना और उन अनुभवों को प्राप्त करने के लिए सक्षम होना जिन्हें मैं प्राप्त करना चाहता था। फिर यह परिभाषा बदलकर ‘अपने तय लक्ष्य को हासिल करना’ हो गई।
उस समय मेरे लिए सफलता का अर्थ अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करना था। अब मैं कहूँगा कि पिछले 10 वर्षों में अपनी आत्मा के उद्देश्य को हासिल करना ही मेरी सफलता की परिभाषा रही है। इसलिए मेरा मानना है कि हम सब एक उद्देश्य पूरा करने के लिए पैदा हुए हैं और उस उद्देश्य को पूरा करने की क्षमता भी हमें दी गई है।
यदि कोई व्यक्ति ऐसा कर लेता है तो वह सफल है। मेरा उद्देश्य लोगों को प्रेम और आनंद के संदर्भ में उनके उच्चतम स्वप्न को जीने के लिए प्रेरित करना व सशक्त बनाना है। जब मैं ऐसा करता हूँ, चाहे वह ‘चिकन सूप कहानियाँ’ लिखना हो, तब मैं लोगों को प्रेरित करता हूँ।
मेरी पुस्तक, ‘द सक्सेस प्रिंसिपल्स’ (सफलता के सिद्धांत), में प्रस्तुत सारे साधन लोगों को सशक्त बनाते हैं। मेरे सेमिनार लोगों को सशक्त बनाते हैं। जब मैं मंच पर होता हूँ या जब मैं पढ़ा रहा होता हूँ या प्रशिक्षण दे रहा होता हूँ या लिख रहा होता हूँ तब मैं वही सब करता हूँ जो मेरे उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। यही हर एक के उद्देश्य का सार है। और उद्देश्यपूर्ति से आनंद एवं प्रेम की प्राप्ति होती है। प्रेम व आनंद प्राप्त करने हेतु लोगों को उनके उच्चतम स्वप्न को जीने के लिए प्रेरित करना व सशक्त बनाना ही सफलता है।
हमारा उद्देश्य है कि अपनी जीवन यात्रा में हम अपनी प्रेम करने की क्षमता का विस्तार करें और ऐसा करके ज़्यादा आनंद का अनुभव करें। जब हम अपनी प्रतिभाओं का उपयोग दूसरों की सेवा के लिए करते हैं तब हम परिपूर्णता और सफलता का अनुभव करते हैं।

प्र.- आपकी पुस्तक ‘द सक्सेस प्रिंसिपल्स’ में एक सिद्धांत है जो कहता है, ‘अंदर तलाशें’। क्या अपने जीवन से या आध्यात्मिक यात्रा से आप कोई ऐसा क्षण बता सकते हैं जब इस आंतरिक स्थिरता या अंतर्दृष्टि से आपको किसी प्रकार की अनपेक्षित सफलता मिली हो? इस सिद्धांत के कारण आप किस प्रकार से विकसित हो पाए?
पहले मैं एक बृहत् उत्तर दूँगा और फिर विशिष्ट रूप से आपके प्रश्न का उत्तर दूँगा। बृहत् उत्तर यह है कि अपने ध्यान में प्रतिदिन मैं मार्गदर्शन माँगता हूँ, “मुझे आज क्या करना चाहिए?”
यह मुझे इस बात को समझने में मदद करता है कि इस व्यक्ति पर काम करना चाहिए या उस व्यक्ति पर। अब विशिष्ट रूप से आपके प्रश्न का उत्तर देने के लिए मुझे जैनेट ब्रे एटवुड याद आ रही हैं जिन्होंने ‘द पैशन टेस्ट - द एफ़र्टलेस पाथ टू डिस्कवरिंग योर डेस्टिनी’ नामक पुस्तक लिखी थी। उन्होंने मुझसे कहा, “रौन्डा बर्न नाम की एक महिला हैं जो ‘द सीक्रेट’ नामक एक चलचित्र बना रही हैं और वे आपका साक्षात्कार लेना चाहती हैं। हमारा यह सम्मलेन कोलोरैडो में होने जा रहा है जहाँ पर वे सारे लोग एकत्रित होंगे जिनका वे इस चलचित्र के लिए साक्षात्कार लेने वाली हैं।”
इसलिए मैंने ट्रांसफ़ॉर्मेशनल लीडरशिप कॉउंसिल नाम से एक समूह बनाया और इसके विश्वभर से लगभग 120 सदस्य हैं। जैनेट बोलीं कि रौन्डा इस समूह के सम्मलेन में आना चाहेंगी। लेकिन मैंने उनसे कहा, “नहीं, मैं नहीं चाहता कि वे वहाँ आएँ क्योंकि वहाँ उपस्थित हर कोई उस चलचित्र में शामिल होना चाहेगा। यह एक तरह से भेद पैदा करेगा कि हमें कुछ लोगों को इन सत्रों से बाहर निकालना पड़ेगा और यह विघटनकारी होगा।”
वे मेरी बात मान गईं। मैं आमतौर पर रात को सोने से पहले व सुबह उठने के बाद ध्यान करता हूँ और उस रात जब मैं मौन बैठा हुआ था तब अंदर की आवाज़ सुनाई दी “रौन्डा को हाँ कह दो।”
फिर मैंने वही किया। मैंने जैनेट से संपर्क किया और कहा, “ठीक है, मुझे अभी-अभी आंतरिक मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है कि मुझे रौन्डा को बुलाने के लिए हाँ कह देना चाहिए।”
इसके परिणामस्वरूप रौन्डा बर्न उस सभा में अपनी कैमरा टीम के साथ आईं और उन्होंने लगभग 20 लोगों को फ़िल्माया। मैं भी उनमें से एक था और वह चलचित्र बहुत प्रचलित हुआ। उसकी डी.वी.डी. विश्व की सर्वाधिक लोकप्रिय डी.वी.डी. बन गई। जापान में उसकी सर्वाधिक बिक्री हुई। बाद में मुझे ईरान में बोलने का मौका मिला। उन लोगों ने भी यह चलचित्र देखा था। मैं इस बात पर हैरान था कि अयातुल्लाह ने इसे दिखाने की अनुमति कैसे दे दी। उन्होंने ‘द सीक्रेट’ को राष्ट्रीय टेलीविज़न पर दिखाया। उन्होंने मुझे तेहरान आमंत्रित किया। मुझे वीसा लेने के लिए पाकिस्तान दूतावास जाना पड़ा क्योंकि अमेरिका में उनका कोई दूतावास नहीं है।
उस सेमिनार में 850 लोग थे। यदि मैंने उस क्षण सही समय पर अपने आंतरिक मार्गदर्शन को नहीं सुना होता तो शायद व्याख्यान आदि के माध्यम से जो लाखों डॉलर मैंने कमाएँ हैं, नहीं कमा पाता।
एक अन्य समय पर जब मैं एक रिट्रीट सेंटर चला रहा था तब एक बार ध्यान के दौरान अचानक मुझे यह मार्गदर्शन मिला कि अब कैलिफ़ोर्निया जाने का समय आ गया है। और फिर घटनाओं का क्रम शुरू हुआ और संकेत उभरने लगे कि मुझे कैलिफ़ोर्निया चले जाना चाहिए। उससे सब कुछ बदल गया। मैं कैलिफ़ोर्निया चला गया। शुरुआत में यह काफ़ी चुनौतीपूर्ण था क्योंकि मैं बड़े तालाब में एक छोटी सी मछली की तरह था लेकिन वस्तुतः इस कार्यक्षेत्र से जुड़े जिन लोगों को मैं जानता हूँ, वे सभी यहीं रहते हैं।
इस प्रकार मेरे जीवन में तीन-चार बड़े बदलाव आए। संभवतः वे ही प्रमुख हैं। और मेरा जीवन विकसित होता गया।
प्र.- जो लोग अपने जुनून को हासिल करना चाहते हैं, उनके लिए आपकी क्या सलाह है? ऐसी बहुत सी खुद के बारे में मान्यताएँ, भय और नकारात्मक प्रवृत्तियाँ होती हैं जो हमें आगे नहीं बढ़ने देतीं। सबसे बड़ा डर आत्म-संशय है। तो मुझे कुछ ऐसी व्यावहारिक बात बताएँ जो असल जीवन में अपनायी जा सके।
मैं मानता हूँ कि मान्यता या धारणा को बदलना ही वह सबसे महत्वपूर्ण काम है जो कोई कर सकता है। हम सभी को, जिसमें मैं भी शामिल हूँ, तीन से आठ वर्ष की आयु के बीच में कभी न कभी ऐसे अनुभव हुए होंगे जहाँ हमने किसी अनुभव के आधार पर निर्णय लिया था। हो सकता है कि आपने कभी कक्षा में उत्तर देने के लिए हाथ उठाया था और आपने गलत उत्तर दे दिया था। फिर सब आपके ऊपर हँसे और आपने सोचा, “मैं यह दुबारा नहीं करूँगा।” या आप खेलना चाहते थे और आप टीम में शामिल नहीं हो पाए तो आपको लगा कि आप उसके लायक नहीं हैं। या जब आप 4 वर्ष के बच्चे थे, आप अपनी माँ का ध्यान आकर्षित करना चाहते थे। लेकिन वे फ़र्श की सफ़ाई कर रही थीं और आपकी तरफ़ ध्यान नहीं दे रही थीं, तो आप सोचने लगे कि आप प्यार और सफलता पाने के लायक नहीं हैं। या फिर आपको दुकान पर सामान लेने भेजा गया और आपने पैसे खो दिए। आप जब बिना पैसों के वापस आए तब आपने सोच लिया कि आपको पैसे संभालना नहीं आता। ये छोटी-छोटी धारणाएँ जो आप बचपन में बना लेते हैं, आपके अंदर बनी रहती हैं और आपके अवचेतन में बैठ जाती हैं। इनके बारे में आप पूरी तरह अनभिज्ञ होते हैं। आप फ़ोन करना चाहते हैं लेकिन डायल नहीं कर पाते क्योंकि आप अस्वीकृति से बहुत डरे हुए होते हैं।
हमारा उद्देश्य है कि अपनी जीवन यात्रा में हम अपनी प्रेम करने की क्षमता का विस्तार करें और ऐसा करके ज़्यादा आनंद का अनुभव करें। जब हम अपनी प्रतिभाओं का उपयोग दूसरों की सेवा के लिए करते हैं तब हम परिपूर्णता और सफलता का अनुभव करते हैं।
इस समय मैं जिस पुस्तक पर काम कर रहा हूँ उसमें इस विषय पर चर्चा की गई है कि ऐसी धारणाओं को कैसे पहचानें जो हमें आगे बढ़ने नहीं देतीं और उन्हें कैसे प्रतिस्थापित करें। लेकिन मूलतः इसकी शुरुआत इस सवाल से होती है कि ऐसी कौन-सी चीज़ है जिसे आप पाना चाहते हैं लेकिन आप न तो उसे प्रकट कर पाते हैं और न ही बना पाते हैं? या यदि आप बना भी लेते हैं तो आप उसे बनाए नहीं रख पाते।
जैसे कुछ लोग संबंध बना तो लेते हैं लेकिन वे उसे कभी भी स्थायी नहीं बना पाते। या वे पैसा तो कमा लेते हैं लेकिन वह बचता नहीं है। या वे नौकरी पा लेते हैं लेकिन उसमें ज़्यादा समय के लिए टिक नहीं पाते हैं। उन्हें या तो नौकरी से निकाल दिया जाता है या उनका व्यापार, उनका कोचिंग का कार्य उनके ग्राहकों को संतुष्ट नहीं कर पाता।
फिर मैं लोगों को कहता हूँ, “चलिए बताइए जब आप ऐसी परिस्थिति के बारे में सोचते हैं तो क्या महसूस करते हैं?” और उनमें नाराज़गी या हार मान लेने या भय या उदासी या ऐसी ही अन्य कोई भावना होती है। फिर मैं उनको कहता हूँ कि आप उस चीज़ के बारे में सोचते रहें जो आप चाहते हैं लेकिन बना नहीं पाते हैं।
मैं आपके शरीर का सिर से लेकर पैरों तक जाँच करूँगा और संज्ञान लूँगा कि आप कहाँ पर सबसे ज़्यादा तनाव, दर्द या सुन्नता महसूस करते हैं। क्योंकि जब हम बहुत ज़्यादा या देर तक दबाव महसूस करते हैं, हम सुन्न हो जाते हैं और कुछ महसूस नहीं कर पाते। ऐसा हर किसी के साथ होता है। किसी को कंधों में कसाव, किसी को सिर के चारों ओर दबाव या फिर पेट में मिचली जैसा महसूस हो सकता है। फिर मैं उनसे पूछता हूँ कि उस एहसास के पीछे क्या भावना है? शारीरिक संवेदना के पीछे एक भावना होती है। यह डर, उदासी आदि हो सकती है। मैं उनसे कहता हूँ कि अपनी याददाश्त को पीछे ले जाते हुए उस समय को याद करें जब सबसे पहले आपको ऐसी ही शारीरिक संवेदना और भावना का अनुभव हुआ था। सभी ऐसा करते हैं। वे सामान्यतः तीन से आठ वर्ष की आयु के समय में पहुँच जाते हैं। कभी-कभी यदि किशोरावस्था में उनके साथ शारीरिक रूप से दुर्व्यवहार हुआ था, शायद पति के द्वारा, तो वे उस घटना को याद करती हैं। लेकिन अधिकतर लोग अपने बचपन के आघात को याद करते हैं।

और फिर हम पूछते हैं, “क्या हुआ था? आप कहाँ थे? वहाँ कौन था? आपने क्या निर्णय लिया था?” मैं आपको अपने एक ग्राहक का उदाहरण दूँगा जो एक ओलंपिक स्तर की बहुत ही अच्छी खिलाड़ी थी। लेकिन वह प्रतियोगिताओं में उतना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती थी जितना अच्छा अभ्यास के समय करती थी।
हम इस बात को समझ नहीं पा रहे थे। ऐसे में वह हमारे पास एक सत्र के लिए आई और हमने इसी प्रकिया का उपयोग किया। और वह उस समय में चली गई जब वह एक छोटी बच्ची थी।
मैं मानता हूँ कि मान्यता या धारणा को बदलना ही वह सबसे महत्वपूर्ण काम है जो कोई कर सकता है।
उसे याद आया कि जब कभी भी वह कोई रिबन या मेडल घर लाती थी, उसकी माँ कभी भी उसे शेल्फ़ पर नहीं रखती थीं या कभी भी किसी ऐसी जगह पर नहीं रखती थीं जहाँ उसे सब देख सकते थे। एक दिन उसने माँ से पूछा, “माँ, आप मेरे रिबन बुलेटिन बोर्ड पर या मेरी ट्रॉफ़ियों को शेल्फ़ पर क्यों नहीं रखती हैं? मैं जिस भी बच्चे के घर जाती हूँ, उनके यहाँ तो ऐसा होता है।” उसकी माँ ने कहा, “जब भी तुम जीतती हो और घर पर कुछ लाती हो तो इससे तुम्हारे भाई को बुरा लगता है क्योंकि वह कभी भी कुछ नहीं जीत पाता है।”
उसने उसी क्षण यह निर्णय लिया, “मैं अपने भाई को बुरा महसूस नहीं करवाना चाहती। मैं जिसे प्यार करती हूँ उसे चोट नहीं पहुँचाना चाहती।” अब उसकी आयु 20 से अधिक हो चुकी थी और अभी भी अपने उसी निर्णय पर अटकी हुई थी जो उसने आठ या नौ वर्ष की आयु में लिया था और उसे इसकी जानकारी ही नहीं थी।
इस सत्र के बाद उसने अपनी उस धारणा को हटाकर एक नई धारणा को अपनाया। उसने यह समझ लिया कि मेरा भाई जो महसूस करता है उसके लिए मैं ज़िम्मेदार नहीं हूँ। मेरा भाई जो महसूस करता है उसके लिए वही उत्तरदायी है। मैं अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए व अपनी प्रतिभा को व्यक्त करने के लिए ज़िम्मेदार हूँ। यह समझ लेने के बाद वह जीतने लगी। सच्चाई यह है कि हम सभी की कुछ ऐसी धारणाएँ बन जाती हैं जो बहुत गंभीर होती हैं। और हमें इन पर काम करने का कोई न कोई तरीका ढूँढना होता है। आप इन धारणाओं पर टैपिंग का उपयोग कर सकते हैं, यदि आप EFT टैपिंग के बारे में जानते हैं जिसमें आपको नौ एक्यूप्रेशर के बिंदुओं पर टैप करना होता है। जो धारणाएँ या मान्यताएँ हमें आगे बढ़ने नहीं देतीं, उनसे छुटकारा पाने का यह भी एक तरीका है।