रोज़ालिंड पियरमें, ध्यान करने के विभिन्न कारणों और समय के साथ उनके विकास के बारे में जानकारी दे रही हैं। वे बताती हैं कि जैसे-जैसे हमारी चेतना का विस्तार होता है, हम सांसारिकता से अलौकिकता की ओर बढ़ते हैं और मानवीय मूल्यों व अपने आंतरिक अस्तित्व का उत्तरोत्तर अनुभव करते हैं।
इस प्रश्न का उत्तर एक के अंदर एक रहने वाली रूसी गुड़ियों (matryoshka dolls) की तरह प्रकट होता है। मान लीजिए कि आपने कभी ध्यान नहीं किया है और आप यह प्रश्न पूछ रहे हैं। हो सकता है कि ध्यान आपको बेहतर एकाग्रता, तनावमुक्ति और ताज़गी देने का वादा करे। या हो सकता है कि आप शांति व स्थिरता का आनंद लेने के लिए और अपने दिल की सुरक्षित व प्रेममयी आवाज़ सुनने के लिए ध्यान करना चाहें। या शायद आप में महज़ अस्तित्व में होने का एक नया अनुभव पाने की जिज्ञासा या रुचि हो। या फिर शायद आप अपने उच्चतर स्व यानी अपने अंदर मौजूद परम सत्ता के आधार से निकटता कायम करने के लिए ध्यान करना पसंद करें।
लेकिन इनमें से किसी में भी ध्यान कैसे मदद करता है? सीधे शब्दों में कहें तो ध्यान, प्रकाश की किरण की तरह चेतना को एकाग्र करने की हमारी क्षमता का उपयोग करता है। शिशुओं को चीज़ें फेंकना और यह देखना कि क्या होगा, अच्छा लगता है। इससे उनके ज्ञान का क्षेत्र विस्तारित और बदलता जाता है। उन शिशुओं की तरह अचानक जो कुछ हम देख, महसूस और अपने हाथों में पकड़ सकते थे, वह कहीं और जा सकता है और बदल सकता है। भाग्य से शायद कोई हमारी फेंकी वस्तु को कुछ प्यार भरे शब्दों या मुस्कान के साथ या उसमें कुछ और जोड़कर लौटा दे जिससे फिर सारी स्थिति बदल जाती है। इस प्रकार हमारे बचपन का यह खेल जीवनभर चलता रहता है और हमारे संपर्क का दायरा बढ़ता जाता है। इससे हमें अपनी जागरूकता के दायरे, अपने आसपास और उससे परे के क्षेत्र के बारे में जानने में मदद मिलती है।
जैसे-जैसे हम विकसित होते हैं, हम अलग-अलग जगह पर अपने बचपन का यह खेल खेलते रहते हैं। हम अलग-अलग लोगों के साथ संपर्क बनाते जाते हैं। हम अपने लगाव, इरादों, खेल, क्रियाओं, भावनाओं, शब्दों, विचारों, कहानियों, कला, संगीत और इस भौतिक संसार के कई जटिल बौद्धिक रहस्यों के माध्यम से अन्य लोगों से मिलते हैं, उनके साथ अपनी जानकारी साझा करते हैं और उनसे ज्ञान व जानकारी प्राप्त करते हैं। हमारे ज्ञान का क्षेत्र विस्तारित एवं परिवर्तित होता रहता है और हम उसके अनुरूप अपनी समझ को बदलते रहते हैं। इस प्रकार हम आगे बढ़ते जाते हैं और जीवन का विस्तार होता रहता है।
ध्यान थोड़ा विराम लेने में हमारी मदद करता है ताकि हम अपनी चेतना के एक अंश को एक बटिया (छोटे पत्थर) की भाँति केंद्रित कर अपने हृदय-मनस जागरूकता के खुले क्षेत्र रूपी महासागर में फेंककर देख सकें। आरंभ में, शायद यह हमारी भावनाओं व मानसिक भटकावों के कारण पैदा हुई खराबियों और विचारों के भँवर में फँस जाए और ऐसा प्रतीत हो कि वह सतह पर ही अटक गया है। फिर भी इससे कुछ न कुछ तो पता चलता ही है कि हम कौन हैं और तब इससे हमें खुद के प्रति अधिक पारदर्शी बनने में मदद मिलती है।
जब हम एक मार्गदर्शक गुरु और प्राणाहुति की सहायता से, धीरज के साथ, इन बाधाओं और चक्रवातों को धीरे-धीरे हटाते जाते हैं तब हमारी जागरूकता रूपी बटिया हमारे अंदर उत्तरोत्तर गहरी उतरती जाती है। धीरे-धीरे हम अपनी चेतना को अपने अस्तित्व के केंद्र और हृदय की वास्तविकता में डूबने दे सकते हैं।
यही आंतरिक जगत अधिकाधिक सूक्ष्म और निराकार होता जाता है, जिसे केवल एहसासों से ही समझा जा सकता है जो और भी अधिक मूल्यवान व सूक्ष्म होते जाते हैं। ध्यान केंद्रित भावना, जिसे हम प्रेम कह सकते हैं, का हृदय की ओर जाने वाला मार्ग बन जाता है जिससे हम इस गहनतम स्रोत के संकेतों को प्राप्त कर पाते हैं। यही प्रेम है, यही प्रियतम (ईश्वर) है। इसमें प्रियतम से मिलन का वादा है। इस प्रकार उनसे बिछोह के सभी कारण गायब हो सकते हैं।
जन्म-जन्मांतर से हम इस स्रोत यानी अपने मूल निवास को पुनः जानने की कोशिश करते रहे हैं। हार्टफुलनेस ध्यान के अभ्यास और तड़प व प्रतीक्षा में बढ़ती तीव्रता से धीरे-धीरे, वियोग की ठोस दीवार पिघलती व गायब होती जाती है। हम दैनिक जीवन में प्रियतम की उपस्थिति से सराबोर महसूस करते हैं। हमें ऐसा प्रतीत होता है जैसे हम प्रेम की इस उपस्थिति में निरंतर ध्यानमय हैं। अस्तित्व की ऐसी अवस्था से प्रेम प्रसारित होता रहता है जो हमारे निम्न स्व के बहुत परे है।
तो फिर हम ध्यान क्यों करते हैं? हमारे भीतर दिव्यता की एक लौ है जो खुद को जानने और अपने स्रोत से एक हो जाने की आकांक्षा रखती है। यह एक बहुत गूढ़ रहस्य है। ऐसा लगता है कि मनुष्य जन्म में हमें समय व स्थान की धारा में फेंक दिया जाता है। हम अपने मूल स्रोत को बाहर खोजते हैं जबकि यह मूल स्रोत हमारे हृदय के सूक्ष्मतम कणों में छिपा हुआ है और हमारे बेहद करीब है। जब हमारी चेतना इतनी परिष्कृत हो जाती है कि वह इस कोमल अभिव्यक्ति को महसूस कर पाए, स्वयं ही कोमलता बन जाए तभी यह स्रोत तक पहुँच सकती है और स्पंदन व सामंजस्य की ऐसी अवस्था में ही उसका विलय हो सकता है। और शायद तब हमारी चेतना पृथ्वी के पूरे वातावरण और यहाँ तक कि दूसरी दुनियाओं में भी प्रेम को प्रवाहित कर सकती है।
(धीरे-धीरे हम अपनी चेतना को अपने अस्तित्व के केंद्र और हृदय की वास्तविकता में डूबने दे सकते हैं।)

रोज़ालिंड पियरमें
रोज़ यूू.के. मेंं ऑक्सफ़ोर्डड केे समीप एबिंंगडन मेंं रहती हैंं और उन्होंंने अपने व्यावसायिक जीवन मेंं सभी उम्र के लोगोंं के समूहोंं के सााथ काम किया है। उनकी हमेशा इस बात मेंं रुचि रही है कि हम कैसे बदल सकते हैंं, रूपांंतरित हो सकते हैंं। ... और पढ़ें