एलिज़ाबेथ डेनली कृपाप्राणाहुति और रचनात्मकता पर अपने कुछ विचार व्यक्त कर रही हैं। वे मानती हैं कि हमारी बहुत सी प्रेरणाओं और अंतर्दृष्टियों के केंद्र में कृपा ही होती है।

 

क्या आपको कभी लगता है कि जीवन धन्य है और चीज़ें बिना किसी ज़ोर-ज़बरदस्ती या संघर्ष के आसानी से घटित हो रही हैं? कुछ लोग कहते हैं कि ऐसा कृपा या ‘ईश्वर की कृपा’ के कारण होता है। इस संदर्भ में अंग्रेज़ी की एक प्रसिद्ध कहावत है जिसका हिंदी में अर्थ है, “ईश्वर की कृपा न होती तो मैं भी उस स्थिति में होता।” यह जॉन ब्रेडफ़ोर्ड ने कहा था जिन्होंने 16वीं सदी में अपराधियों को फाँसी देने के लिए ले जाते हुए देखा था। उनका यह कथन इस बात की विनम्र स्वीकारोक्ति दर्शाता है कि हममें कोई विशेष योग्यता नहीं है, बस ईश्वर की कृपादृष्टि हम पर है।

ईश्वरीय कृपा हमें तब मिलने की संभावना अधिक होती है जब हम अपने काम में पूरी तरह डूब जाते हैं या पूरी तरह असहाय स्थिति में होते हैं। ऐसा तब संभव होता है जब हम अपने कर्ता भाव को भूलकर ‘स्व’ से ऊपर उठ जाते हैं और चेतना की एक ‘अदृश्य जगह’ (दाजी के कहे एक वाक्यांश के अनुसार) में प्रवेश करते हैं। इसी में हमारी सबसे आनंदमय, रचनात्मक अवस्थाएँ उभरती हैं।

हम यदि अपने आसपास गौर करें तो कृपा शब्द का प्रयोग अक्सर होता पाएँगे। हालाँकि इसके साथ धार्मिक अर्थ जुड़ जाने के कारण अब यह उतना चलन में नहीं रह गया है, लेकिन यह शब्द सदियों से हमारी भाषा का हिस्सा रहा है। लैटिन शब्द ‘ग्रेटस’ (gratus) का अर्थ है सुखदायक या आभारी; पुरातन फ्रेंच भाषा में ‘ग्रेसिया’ (gratia) शब्द का अर्थ था सहायता, आकर्षण या धन्यवाद। इस आशय को व्यक्त करने के लिए पुरातन अंग्रेज़ी भाषा में ‘ग्रेटफुल’ (grateful) और मध्यकालीन अंग्रेज़ी भाषा में ‘ग्रेस’ (grace) शब्द का प्रयोग होने लगा। ‘सुखदायक’, ‘आभारी’, ‘दयालु’ (gracious) और ‘कृतज्ञ’ (grateful), ये सभी शब्द मूलत: कृपा की अवधारणा से जुड़े हैं।

 

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संस्कृत में ‘ग्रेस’ शब्द की अभिव्यक्ति के लिए कई शब्द हैं जैसे कृपा जिसका अर्थ दया और आशीर्वाद भी होता है, ‘अनुग्रह’ जिसका अर्थ सहायता और आशीर्वाद होता है और ‘प्रसाद’ शब्द कृपा को एक उपहार के रूप में व्‍यक्‍त करता है। हिब्रू में ‘खेन’ (ḥēn) शब्द का प्रयोग होता है जो इस विचार को व्यक्त करता है कि कृपा अर्जित नहीं की जाती है बल्कि ईश्वर की उदारता से मिलती है। इसे समझने के लिए एक अच्छा उदाहरण यह है कि सूरज हर वस्तु पर चमकता है, फिर भी खुद को सूरज की रोशनी के सामने लाने या न लाने का विकल्प हम चुनते हैं। इसी तरह कृपा भी हर जगह मौजूद है, इसे पाने के लिए हम क्या तैयारी करें? शायद यह उस तरीके से नहीं होता जैसे हम सोचते हैं।

अब तक का सबसे प्रिय ईसाई भजन ‘अमेज़िंग ग्रेस’ है, जिसे एल्विस प्रीस्ली और जॉनी कैश जैसे महान कलाकारों की आवाज़ में रिकॉर्ड किया गया है। इसमें एक पापी के उद्धार की कथा को सुंदरता से व्यक्त करते हुए दिव्य कृपा की सुधारात्मक शक्ति की स्तुति की गई है। इस भजन के लेखक जॉन न्यूटन थे जो दासों का व्यापार करते थे और अनैतिक जीवन जी रहे थे। उनकी ज़िंदगी में बहुत बड़ा मोड़ तब आया जब एक समुद्री यात्रा के दौरान उन्हें चमत्कारिक रूप से तूफ़ान में मरने से बचा लिया गया। इसके बाद ईश्वर की कृपा से वे पूरी तरह बदल गए। उन्होंने एक गहरी आध्यात्मिक जागृति का अनुभव किया और ईश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए यह भजन लिखा।

और फिर सेंट पॉल में आए उल्लेखनीय परिवर्तन का उदाहरण है जिन्हें दमिश्क (Damascus) जाते समय रास्ते में एक तेज़ रोशनी दिखी और वहाँ उन्हें ईसा मसीह की आवाज़ सुनाई दी जिसके बाद उन्होंने लोगों को परेशान करना छोड़कर प्रेम करना शुरू किया। बाद में उन्होंने कोरिंथियंस को लिखे एक पत्र में लिखा, “उन्होंने मुझसे कहा कि मेरी कृपा ही तुम्हारे लिए पर्याप्त है क्योंकि दुर्बलता के साथ मेरी संपूर्ण शक्ति होती है।” यह कथन अतिसंवेदनशीलता और विनम्रता जैसे गुणों के महत्व की ओर संकेत करता है। यह हार्टफुलनेस परंपरा से भी मेल खाता है जहाँ लालाजी ने एक बार बाबूजी को कहा था, “स्‍वयं के प्रयास से अर्जित शक्ति उतनी प्रबल नहीं होती जितनी दैवी कृपा से प्राप्त होने वाली होती है। पूर्ण शक्ति केवल एक उपहार के रूप में दी जाती है।”

रचनात्मक लोगों के विचार भी इस सिद्धांत के साथ मेल खाते हैं। हम किसी कला की आवश्यक तकनीकों को सीखने के लिए उसका लगन से अभ्यास कर सकते हैं, फिर भी संगीत की एक सुंदर रचना और एक शानदार पेंटिंग दोनों ही कला की सीमा के परे से उभरते हैं। व्यक्ति में रचनात्मक चिंगारी होना एक उपहार है। और यह केवल कला ही नहीं बल्कि सभी क्षेत्रों के लिए सच है। क्या सर आइज़ैक न्यूटन ने विश्लेषणात्मक विचार से गुरुत्वाकर्षण की खोज की? नहीं, इसकी शुरुआत उस प्रेरणा से हुई जो एक पेड़ से सेब को गिरते हुए देखने और उस समय खुद से यह पूछने से आई कि फल नीचे ही क्यों गिरा, ऊपर या अगल-बगल में क्यों नहीं चला गया? यह उनकी योग्यता थी कि उन्होंने इस घटना को उस बल से जोड़ा जिसने चंद्रमा को पृथ्वी के चारों ओर एक कक्षा में रखा हुआ है जिसके बाद गुरुत्वाकर्षण का सार्वभौमिक नियम बना।

हार्टफुलनेस परंपरा में हम ‘दैवी कृपा’ को आधार या केंद्र से बहने वाले प्रवाह के रूप में प्राप्त उपहार कहते हैं। जीवित गुरु उस प्रवाह को सहजता से आकर्षित कर सकते हैं। वास्तव में यह प्रवाह नियमित रूप से उसी ओर बहता है जहाँ भी वे होते हैं और कभी-कभी बड़े आध्यात्मिक समारोहों के दौरान, जब हम उनके साथ पवित्र उत्सव मनाने के लिए एकत्र होते हैं, यह हम सब पर बरसता है। अपने काम के लिए वे प्राणाहुति का भी उपयोग करते हैं जो कृपा जितनी सूक्ष्म और शक्तिशाली तो नहीं होती लेकिन फिर भी मानव रूपांतरण के लिए शक्तिशाली उत्प्रेरक है जो गुरु की इच्छा-शक्ति द्वारा शुरू होती है। अभ्यासी के आध्यात्मिक विकास के लिए प्राणाहुति का उपयोग करने की विस्मृत विधि को लालाजी ने दोबारा खोज निकाला था। इसने 20वीं शताब्दी की शुरुआत से लेकर अब तक हार्टफुलनेस के अभ्यासों को फलने-फूलने में मदद की। दुनिया भर के हज़ारों प्रशिक्षक एक आध्यात्मिक नेटवर्क बनाते हैं जो प्राणाहुति के लिए एक वितरण प्रणाली के रूप में कार्य करता है।

अपनी नवीनतम पुस्तक, ‘द हार्टफुलनेस वे’- भाग 2 में दाजी ने लिखा है, “बाबूजी ने कहा कि हमें अपने अंतिम उद्देश्य के लिए वास्तव में केवल दैवी कृपा की आवश्यकता है और यहीं पर गुरु की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। जैसा कि हमने चर्चा की, वे इस प्रवाह को हमारे हृदयों की ओर निर्देशित करते हैं और प्राणाहुति के माध्यम से हमारे विकास के लिए आवश्कतानुसार हमें इसकी खुराक देते हैं।”


ईश्वरीय कृपा हमें तब मिलने की संभावना अधिक होती है जब हम अपने काम में पूरी तरह डूब जाते हैं या पूरी तरह असहाय स्थिति में होते हैं। ऐसा तब संभव होता है जब हम अपने कर्ता भाव को भूलकर ‘स्व’ से ऊपर उठ जाते हैं और चेतना की एक ‘अदृश्य जगह’ (दाजी के कहे एक वाक्यांश के अनुसार) में प्रवेश करते हैं। इसी में हमारी सबसे आनंदमयरचनात्मक अवस्थाएँ उभरती हैं।


बाबूजी ने यह भी कहा, “निस्संदेह सब कुछ दैवी कृपा पर निर्भर करता है लेकिन हमारा काम अपने भीतर उसके लिए जगह बनाना है। यही हमारे अभ्यास का मकसद है जिसके प्रति हम सभी को हर पल जागरूक रहने का प्रयास करना चाहिए।” दूसरे शब्दों में हमारे दैनिक ध्यान के अभ्यास ही वे साधन हैं जो इसके लिए जगह बनाते हैं। प्राणाहुति के साथ हृदय पर ध्यान करके हम हर दिन दैवी कृपा को आमंत्रित करते हैं।

लेकिन और भी बहुत कुछ है। लालाजी ने बाबूजी को यह भी बताया, “किसी भी व्यक्ति में सही कर्म करने की हालत भी केवल ईश्वर की कृपा से ही बनती है। कहने का तात्पर्य यह है कि सही कर्म का मूल स्रोत ईश्वर ही है। फिर अभिमान करने का कारण ही कहाँ है?” यही जॉन न्यूटन और सेंट पॉल का अनुभव था और यही मेरा व कई अन्य लोगों का अनुभव है। ईश्वर की कृपा और गुरु की प्राणाहुति के उपहार के बिना मेरा जीवन सच्चे उद्देश्य और गहराई के अभाव में अधूरा रह जाता। अस्तित्व के विभिन्न आयाम नहीं खुल पाते और मेरा चरित्र भी नहीं बदल पाता। हमारा अपना प्रयास महत्वपूर्ण होता है लेकिन यह पर्याप्त नहीं होता। परिवर्तन के लिए किसी उच्चतर शक्ति के प्रति समर्पण आवश्यक है। यह इस दुनिया में रहते हुए आध्यात्मिक रूप से आगे बढ़ने का खुला रहस्य है। और इसे केवल बौद्धिक रूप से जानना पर्याप्त नहीं है। जीवन के अनुभव से इसे उजागर होना चाहिए।

बाबूजी ने एक बार अपने एक सहयोगी का वर्णन किया जो प्रारंभ में अत्यंत जटिल और भारी हालत के साथ उनके पास आए थे। बाबूजी ने उनकी उलझनों और भारीपन को दूर कर दिया। जब वही सहयोगी कुछ वर्षों बाद उनसे दोबारा मिलने आए तो बाबूजी ने उन्हें फिर से भारीपन और जटिलता से भरा पाया लेकिन इस बार यह एक सूक्ष्म प्रकार का भारीपन था और इसे दूर करना बहुत कठिन था। बाबूजी ने इसका कारण पता लगाया और पाया कि ऐसा इसलिए था क्योंकि वे दिव्य कृपा के बजाय अपनी मेहनत पर ज़्यादा भरोसा करने लगे थे।

बहुत से कलाकार भी ऐसा ही सोचते हैं। उदाहरण के लिए, जूलिया कैमरन, जो रचनात्मक कलाओं की समकालीन शिक्षिका और पचास से अधिक पुस्तकों, विशेष रूप से ‘द आर्टिस्ट्स वे’ की लेखिका हैं, अपनी पुस्तक में रचनात्मकता को एक आध्यात्मिक अभ्यास के रूप में वर्णित करती हैं। बरोक संगीतकार जे.एस. बाक अपनी प्रेरणा के लिए ईश्वर पर निर्भर थे। वे अपनी संगीत प्रतिभा को ईश्वर पर भरोसा करने के रूप में देखते थे और हर रचना को ईश्वर के प्रति समर्पित करते थे। महान माइकल एंजेलो ने कहा, “मैं ईश्वर के प्रति अपने प्रेम की वजह से काम करता हूँ और अपनी सारी उम्मीदें उसी पर रखता हूँ” और “रचना केवल ईश्वर ही करता है। हम तो बस नकल करते हैं।”

कभी-कभी हम रचनात्मक अवरोध की स्थिति में आ जाते हैं। तब हम प्रतीक्षा करते हैं कि ईश्वरीय प्रेरणा फिर से प्रवाहित हो। इस संबंध में हार्टफुलनेस मेरे लिए जीवन को बदलने वाला रहा है क्योंकि गुरु की प्राणाहुति को निर्देशित करने की क्षमता उनकी उपस्थिति का निरंतर एहसास और प्रेरणा प्रदान करती है। रचनात्मक थकान पर काफ़ी चर्चा की जाती है लेकिन प्राणाहुति के साथ ध्यान करने का सरल कार्य चीज़ों को नए सिरे से देखने के लिए अप्रत्याशित जागरूकता और विस्तारित चेतना प्रदान करता है। इससे रहस्यमय तरीकों से हमारा सामर्थ्य जागृत हो जाता है। यद्यपि यह ध्यान करने का प्राथमिक कारण नहीं है लेकिन जब हम अपनी आँखें बंद करके बैठते हैं और अपने हृदय की गहराई में जाते हैं तब हम उस ईश्वरीय कृपा को आमंत्रित करते हैं जो हम सभी के लिए उपलब्ध है। यही रचनात्मक चिंगारी है।


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