दाजी जीवन के परम उद्देश्य से जुड़कर अपना लक्ष्य निर्धारित करने के तीसरे सार्वभौमिक नियम के विषय में बताते हैं।

 

न् 1989 में प्रकाशित अपनी प्रसिद्ध पुस्तक, ‘ 7 हैबिट्स ऑफ़ हाइली इफ़ेक्टिव पीपल’, (बहुत प्रभावशाली लोगों की 7 आदतें) में स्टीफ़ेन कवी दूसरी आदत को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं, “लक्ष्य को मन में रखकर कार्य शुरू करो।” यह आदत अपने मन में आगे की यह सोच रखने की क्षमता है कि आप क्या करना या बनना चाहते हैं, भले ही इस समय आप उसे नहीं देख सकते हैं। योग में लक्ष्य के बारे में सोचने या उसे मानसिक रूप से दृष्टिगत करने की इस क्षमता को ‘कल्पना’ कहा जाता है। यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि आप अपने मन में जिसकी रचना करते हैं, वही अंततः आपके जीवन में प्रकट हो जाता है। इसके विपरीत, यदि आप जो बनना चाहते हैं, उसके बारे में सचेत रूप से मन में कोई सोच विकसित नहीं करते तो आप दूसरों से और अपने आस-पास के परिवेश से प्रभावित होंगे।

कवी की पुस्तक का कंपनियों और लोगों द्वारा पूरी सक्रियता से अपने लक्ष्य निर्धारित करने और उन्हें पूरा करने की प्रक्रिया पर बहुत प्रभाव पड़ा है। लेकिन उनका लक्ष्य निर्धारित करने का दायरा सांसारिक कार्य-क्षेत्र में उपलब्धियों और मूल्यों तक ही सीमित है।

1940 के दशक में जब बाबूजी ने संसार के सामने दस नियम प्रस्तुत किए तब प्रबंधन सिद्धांत के संदर्भ में लक्ष्य-निर्धारण को ठीक से समझा नहीं गया था। वास्तव में, सन् 1960 में जाकर ही लक्ष्य निर्धारण से संबंधित कुछ प्रारंभिक सिद्धांत प्रकाशित हुए। प्राचीन संसार में परिस्थितियाँ कुछ अलग थीं। उदाहरण के लिए, स्वामी विवेकानंद अपने इस कथन के लिए प्रसिद्ध हैं, “उठो, जागो और तब तक रुको नहीं जब तक लक्ष्य प्राप्त न कर लो।” माना जाता है कि उन्हें इस कथन के लिए ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी में लिखित कठोपनिषद् के अध्याय 1.3.14 से प्रेरणा मिली थी। प्लेटो भी अपनी पुस्तक, ‘द रिपब्लिक’, में आत्मा की लक्ष्योन्मुख प्रकृति का वर्णन करते हैं। अरस्तु का नज़रिया था, “सबसे पहले एक निश्चित, स्पष्ट, व्यावहारिक आदर्श, यानी एक लक्ष्य, एक उद्देश्य तय करो। दूसरा, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक साधन जुटाओ - ज्ञान, धन, सामग्री एवं विधियाँ। तीसरा, अपने सभी साधनों को अपने लक्ष्य के अनुसार अनुकूलित करो।”

पिछले चार दशकों में प्रबंधन (management) और मनोविज्ञान के क्षेत्रों में हुए शोधों ने लक्ष्य-निर्धारण और कार्य-प्रदर्शन के बीच परस्पर संबंध की पुष्टि की है। जब हमारा लक्ष्य स्पष्ट होता है तब हमारे पास उद्देश्य व दिशा दोनों होते हैं और हमारे अंदर लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ऊर्जा भर जाती है। इससे हमें अवश्यंभावी बाधाओं और चुनौतियों का सामना करते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। लक्ष्य-विहीन लोगों की तुलना में जिन लोगों के लक्ष्य होते हैं, उनके दूर तक जाने की अधिक संभावना होती है।

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लक्ष्य निर्धारित करने के विषय में बाबूजी के विचार इससे भी एक कदम आगे थे। उनमें केवल भौतिक संसार ही नहीं बल्कि अस्तित्व के सभी आयाम समाहित थे। उन्होंने निम्नलिखित सिद्धांत में मानव जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य के बारे में बताया -

नियम 3

अपना ध्येय निश्चित कर लें और वह यह कि हम
ईश्वर से एकात्म स्थापित कर लें। जब तक लक्ष्य प्राप्त
न हो जाए चैन से न बैठें।

क्या होता है जब हम मानव जीवन के इस परम लक्ष्य को अपनाते हैं और इस अवस्था तक पहुँचने के लिए क्या आवश्यक है?

लक्ष्य निर्धारित करने का महत्व

जब हम ध्यान करना शुरू करते हैं तब सामान्यतः हम शांतिपूर्ण महसूस करना, भावनात्मक परेशानियों के बोझ को हटाना और विचारों को नियंत्रित करना सीखना चाहते हैं। शुरुआत में हम अपनी भलाई और इच्छाओं पर केंद्रित रहते हैं। अभ्यास द्वारा हम अपने हृदय व मन - सूक्ष्म शरीर - की ओर आकर्षित होने लगते हैं और आंतरिक खुशी के लिए तरसते हैं। बाद में हम सबकी खुशी चाहने लगते हैं। और जब हम आत्मा की ओर आकर्षित होते हैं तब हम सुख, खुशी और आनंद से परे स्रोत से जुड़ी शून्यता की अवस्था में चले जाते हैं। उस शुद्ध व सूक्ष्म अवस्था का वर्णन करना कठिन है क्योंकि उसमें न कोई भार होता है और न कोई गुण।

सूक्ष्मतर से सूक्ष्मतर अवस्थाओं को प्राप्त करने की इस यात्रा में उद्देश्यपूर्ण जागरूकता और इस ज्ञान, कि हम कहाँ जा रहे हैं, की आवश्यकता है। लेकिन केवल ज्ञान पर्याप्त नहीं है। जिस प्रकार मोमबत्ती या बल्ब जलाने का उद्देश्य पढ़ने, खाना बनाने या भोजन करने जैसे कार्य करने के लिए उजाला करना होता है, उसी प्रकार हम ज्ञान प्राप्त करते हैं ताकि उसकी सहायता से हम कुछ काम कर पाएँ। बिना उपयोग किए ज्ञान का कोई महत्व नहीं है।

जब हम अपने लक्ष्यों पर नज़र टिकाए रखते हैं, हमारे प्रयास भी उस हद तक तेज़ हो जाते हैं कि सफलता सुनिश्चित हो जाए। जब हम किसी विशेष लक्ष्य पर अपने विचार टिका देते हैं तब विचार ही संकल्प बन जाता है जिसे हमारी रुचि व इच्छा से शक्ति मिलती है और उसी से लक्ष्य की ओर मार्ग प्रशस्त करने में मदद मिलती है।

इस विचार को समझने के लिए हम एक नाव का उदाहरण ले सकते हैं। बिना लक्ष्य का जीवन बिना पतवार की नाव के समान होता है। गंतव्य की दिशा में पतवार चलाए बिना नाव का वहाँ पहुँचना असंभव है। हमारे आंतरिक विकास में यह पतवार क्या है? यह हमारी तीव्र रुचि, चाहत और दृढ़ संकल्प के साथ-साथ हमारा साहस व आत्मविश्वास है ताकि हम भंवरों और तेज़ प्रवाहों रूपी मार्ग की बाधाओं को पार करके आगे बढ़ पाएँ। पतवार चलाने में कुछ करना यानी कर्म शामिल है। यहाँ ‘करने’ में हार्टफुलनेस के अभ्यास और जीवन शैली के सिद्धांत शामिल हैं।

तीसरा तत्व है उत्साह - वह जीवन-शक्ति और जूनून जो एक जिज्ञासु में विकसित होता है ताकि वह लक्ष्य की ओर अपनी यात्रा जारी रख सके। इसे प्रेम और भक्ति भी कहते हैं। प्रेम और भक्ति की प्रेरणा और शांतिदायक प्रभाव के बिना यह यात्रा नीरस, निर्मम और निस्तेज होगी। प्रेम हमें आगे और ऊपर की ओर बढ़ाता है। यह उत्कृष्टता की अग्नि प्रज्ज्वलित करता है।

अतः परम लक्ष्य पर अपनी नज़रें टिकाने में योग की तीन महान शाखाएँ - कर्म योग, ज्ञान योग एवं भक्ति योग शामिल होती हैं।

इससे एक और महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है -

मानव जीवन का परम लक्ष्य क्या है?

संपूर्ण मानव इतिहास के दौरान संतों, वैज्ञानिकों, धार्मिक गुरुओं, दार्शनिकों और विचारकों ने इस प्रश्न के साथ-साथ कुछ और संबंधित प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास किया है -

मैं कौन हूँ?
मैं यहाँ क्यों हूँ?
मेरे अस्तित्व का क्या उद्देश्य है?
मैं कहाँ से आया हूँ और इसके बाद कहाँ जाऊँगा?

इन युगों पुराने प्रश्नों के उत्तर न केवल इस बात से जुड़े हैं कि इस जीवन में क्या होता है, बल्कि इस बात से भी जुड़े हैं कि इस जीवन से पहले, बाद में और उससे परे क्या होता है। कुछ मत स्वर्ग और नरक के विचार का प्रचार करते हैं जबकि कुछ मत यह सिखाते हैं कि हम तब तक पुनर्जन्म लेते रहेंगे जब तक हमारा कार्मिक ऋण न चुक जाए और फिर हम मोक्ष प्राप्त कर लेंगे। कुछ अन्य लोग यह मानते हैं कि इस जीवन से पहले या बाद में कुछ भी नहीं है।

बाबूजी ने एक सरल सा प्रश्न पूछा, “वह एक चीज़ क्या है जिसे पाकर हमें सब कुछ मिल जाता है?”

यह धन-दौलत या शक्ति या ख्याति या ज्ञान या प्रेम या खुशियाँ नहीं है बल्कि इन सभी का स्रोत है। और सभी का स्रोत क्या है? यह स्वयं सृष्टि का स्रोत है जिसे हम केंद्र या परमात्मा कहते हैं। यदि हमें ‘वह’ मिल जाए तो हमें सब कुछ मिल जाता है।

इससे एक और प्रश्न उठता है, “केंद्र के साथ पूर्ण एकात्मकता क्या है?” सृष्टि रचना से पहले विद्यमान उस परिवर्तनहीन अवस्था का वर्णन करने के लिए हम केंद्र की जगह विभिन्न शब्दों का प्रयोग कर सकते हैं - वास्तविकता, ईश्वर, परमतत्व, परमात्मा और स्रोत। पूरी सृष्टि उसी एकात्मकता की अभिव्यक्ति है। सृष्टि में रचना और विनाश होता है, विकास और जटिलता है, विस्तार और संकुचन है लेकिन स्रोत जैसे का तैसा रहता है - अपरिवर्तनशील।

यदि सृष्टि में हर चीज़ ऊर्जा और स्पंदन है तो उस दायरे में कुछ भी वास्तव में न रचा जाता है, न नष्ट होता है। केवल अलग-अलग

 

 स्तरों के स्पंदन होते हैं। हर चीज़ स्रोत से ही उत्पन्न होती है जो स्पंदनों से परे है और पूर्ण संतुलन में है।

अस्तित्व का मौलिक आधार चेतना ही है। चेतना अस्तित्व का कार्यक्षेत्र है। सभी प्राणी चेतना के स्पंदनों के अलग-अलग स्तरों पर होते हैं। इसलिए हम स्रोत तक वापस पहुँचने के मार्ग को इस प्रकार खोज सकते हैं – पहले अपनी चेतना पर प्रभुत्व पाएँ, फिर चेतना की आधारभूत अंतःशक्ति पर प्रभुत्व पाएँ और अंततः शायद हम स्रोत में विलय होने की उस परम अवस्था तक पहुँच जाएँ। आध्यात्मिक संरचना की परिभाषा में मनुष्य के अस्तित्व के इन तीन स्तरों या क्षेत्रों को बाबूजी ने अपनी पुस्तक, ‘राज योग के दिव्य दर्शन’, में हृदय क्षेत्र, मनस क्षेत्र एवं केंद्रीय क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया है।

बाबूजी ने एक विधि भी बनाई जिसके द्वारा हम इन तीनों क्षेत्रों में तेरह चक्रों की यात्रा से गुज़रते हुए अपनी चेतना का परिष्कार और विस्तार कर पाते हैं ताकि हम उस परम लक्ष्य यानी स्रोत के साथ एकात्मकता प्राप्त कर सकें। उन्होंने इस यात्रा की रूपरेखा को अपनी एक और पुस्तक, ‘अनंत की ओर’, में भी प्रस्तुत किया है। यह सब शायद एक वैज्ञानिक कल्पना की तरह लगे लेकिन जो भी इसे आज़माना चाहता है, इसका अनुभव कर सकता है।

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अत: इस यात्रा को पूरा करने के लिए पहला कदम है लक्ष्य निर्धारित करना।

जब हम अपना लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं तब क्या होता है?

जब हम स्रोत के साथ एकात्म स्थापित करने के इस लक्ष्य पर रुचि और चाह के साथ अपना ध्यान केंद्रित कर देते हैं तब अनंत में एक हलचल पैदा हो जाती है और दिव्यता हमारी तरफ़ बढ़ने लगती है। एक प्रेमी और प्रियतम की उपमा लें। पहले प्रियतम प्रेमी की पुकार सुनता है। एक बार संबंध स्थापित हो जाता है तब प्रेमी और प्रियतम एक हो जाने की ओर बढ़ने लगते हैं, जब तक अंततः यह विलय दृढ़ और स्थायी न बन जाए। यह इस यात्रा में भक्ति का महत्व दर्शाता है। तब अनंत महासागर में हमारा तैरना शुरू हो जाता है। यही हमें सत्य के क्षेत्र में ले आता है। यहाँ हम संसार के सभी बंधनों से मुक्त हो जाते हैं, लेकिन अंतिम गंतव्य तक पहुँचने के लिए हमें अब भी बहुत आगे जाना है।

सफलता की कुँजी क्या है?

सबसे पहले अपना लक्ष्य निर्धारित करें। उसके बाद लक्ष्य के प्रति तीव्र तड़प पैदा करें। फिर संकल्प लें जिससे शुरुआती वेग बनता है जिसके परिणामस्वरूप हमारे प्रयास बढ़ जाते हैं। जैसे-जैसे हम लक्ष्य के बारे में अधिकाधिक जानने व समझने लगते हैं, हमारी दिलचस्पी भी बढ़ती जाती है और हमें इसकी व्यापकता का एहसास होने लगता है। अंततः यह एक तीव्र तड़प का रूप ले लेती है।

लक्ष्य प्राप्ति के लिए हमारे प्रयास में हृदय एवं मन शामिल होते हैं। हृदय में तड़प पैदा की जाती है और मन में दृढ़ता विकसित की जाती है। दूसरे शब्दों में हृदय खिंचाव पैदा करता है और मन आगे की ओर धकेलता है। हमारी रुचि तथा हमारा आत्मविश्वास हमें बाधाओं को पार करने में मदद करते हैं और अभ्यास में इच्छा-शक्ति का प्रयोग करने से इच्छा-शक्ति दृढ़ होती जाती है। अभ्यास से आत्मविश्वास भी बढ़ता है। संक्षेप में, सफलता के ये तीन तत्व हैं - नियमित अभ्यास, स्पष्ट संकल्प और तीव्र तड़प - पुनः कर्म, ज्ञान और भक्ति।

जब हम इन तीनों को अपनाते हैं तब मन की प्रवृत्तियाँ एकाग्रता के साथ लक्ष्य की ओर मुड़ जाती हैं। फिर हमारी सभी मानसिक शक्तियाँ अनेक धाराओं में बिखरने के बजाय एक शक्तिशाली धारा के रूप में काम करने लगती हैं। यह सतत अभ्यास से ही विकसित होता है।

सारांश

10 नियमों में सभी के सभी अपने आप में परिपूर्ण होने के साथ-साथ एक पूर्ण का अंश भी हैं जैसे एक माला में पिरोए मोती। इनमें कोई अनुक्रम नहीं है। हर एक समान रूप से महत्वपूर्ण है। फिर भी इस तीसरे नियम में हार्टफुलनेस का पूरा दर्शन अपने सार रूप में समाहित है। केवल नियमित अभ्यास के परिणामस्वरूप ही हम लक्ष्य निर्धारित करने के उद्देश्य को सच में समझ सकते हैं और उसका अनुभव कर सकते हैं।

कई लोग नियम 2 और नियम 3 के बीच के अंतर के बारे में पूछते हैं। वास्तव में ये आपस में गहनता से जुड़े हुए हैं। जब हम प्रार्थना करते हैं तब स्रोत के साथ संबंध स्थापित करते हैं। जब हम ध्यान करने से एकदम पहले प्रार्थना करते हैं तब हम तहे दिल से पुकारते हैं और उसमें परमात्मा को अपनी ओर बुलाने की शक्ति होती है। लक्ष्य निर्धारित करना उस संबंध को जीवंत रखने और उसे अधिकाधिक सजीव बनाए रखने की एक सचेत प्रक्रिया है। यह तड़प बहुत तीव्र होती है जैसे कि किसी के प्रेम में पड़ने का भाव दस लाख गुणा बढ़ गया हो।

जब यह लक्ष्य प्रधान रूप से हमारे मन में रहता है तब सभी इच्छाएँ पीछे छूट जाती हैं, सभी मोह कमज़ोर पड़ने लगते हैं और सभी अपेक्षाएँ गायब हो जाती हैं। हमारे जीवन की बाकी सभी बातें इसी प्रमुख चाहत में समा जाती हैं। हम अपने सांसारिक जीवन को महत्व देना जारी रखते हैं और वह उस प्रेम व सामर्थ्य से और भी बेहतर हो जाता है जो हम इस यात्रा में आगे बढ़ते हुए स्वयं में विकसित करते हैं। वास्तव में, इन 10 नियमों को अपनाने से हमारा सांसारिक जीवन भी संवर जाता है।

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लेकिन हमारे ध्यान का केंद्र बदल जाता है - अपने अस्तित्व के मूल उद्देश्य पर हमारा ध्यान अधिक रहता है और मन की सभी प्रवृत्तियाँ पूरे जोश के साथ इसकी ओर मोड़ दी जाती हैं। जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए तब तक बहुत अधीरता और बेचैनी रहती है। उस अवस्था को प्राप्त करने के लिए यही चाहिए।

यहाँ तीन मिथ्याभास प्रतीत होते हैं जिन्हें जानने की कोशिश की जानी चाहिए -

पहला, वह मार्गदर्शन है जो भगवान कृष्ण ने भगवद्गीता में दिया है। बाबूजी हमें लक्ष्य निर्धारित करके जब तक उसे प्राप्त न कर लिया जाए, चैन न लेने के लिए कहते हैं। दूसरी ओर भगवान कृष्ण हमें कहते हैं कि हालाँकि हमें लक्ष्य निर्धारित करने का अधिकार है लेकिन हमें लक्ष्य प्राप्ति पर कोई अधिकार नहीं है - हमारे कर्मों का फल ईश्वर के हाथों में है। यह अवधारणा हमें एक और सिद्धांत की ओर ले जाती है और वह है, स्वीकार करना। हम अपना काम करते हैं और अपनी क्षमतानुसार सर्वोत्तम सहयोग देते हैं लेकिन समय-निर्धारण और उपलब्धियाँ हमारे हाथ में नहीं हैं। हमारे और ईश्वर के बीच कोई लेन-देन नहीं हो सकता। हम विनम्रता से सराबोर एक समर्पित हृदय के साथ केवल इस तथ्य को स्वीकार करके आगे बढ़ सकते हैं। पूरे जीवन का संचालन इसी सिद्धांत से होता है।

दूसरा मिथ्याभास बहुत गूढ़ है - लक्ष्य दूर होता हुआ एक अनंत लक्ष्य है। हम एक ऐसे लक्ष्य को कैसे निर्धारित करें जो सीमित नहीं है। इसके बजाय हम इसके लिए अनंतस्पर्शी दृष्टिकोण अपनाते हैं। यहाँ एक संकेत देता हूँ। यह मिथ्याभास भी एक कारण है जिसकी वजह से हमारी यात्रा में गुरु का होना बहुत महत्वपूर्ण है। वे उस लक्ष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसे अन्यथा ठीक से परिभाषित नहीं किया जा सकता।

कोई भी उस लक्ष्य को वास्तव में समझ या जान नहीं सकता जिसका आधार अनंत है। केवल लगातार सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती चेतना की अनुभूति द्वारा ही इसका अनुभव किया जा सकता है।

तीसरा इसी से जुड़ा मिथ्याभास है - शायद हमने मानव जीवन के परम लक्ष्य को निर्धारित कर लिया हो, लेकिन वर्तमान के तात्कालिक लक्ष्य का क्या? हम एक ऐसे संसार में जी रहे हैं जिसमें हमारे मार्ग में जो कुछ भी किसी पल आता है, वही हमारा तात्कालिक लक्ष्य है। उदाहरण के लिए, शायद हम तनाव दूर करके शांति पाना चाहते हों। इसके बाद, जैसे-जैसे हम शांति का अधिकाधिक आनंद लेंगे, उसके परिणामस्वरूप हमारे मोह छूटते जाएँगे और हमारे अंदर ज़्यादा करुणा, समानुभूति और हृदय की उदारता विकसित होगी। हर चरण हमें अगले चरण पर ले जाता है। अंततः हम चेतना की शुद्ध अवस्था और कथित जागरूकता के बीच के अंतर को समझ पाते हैं। चेतना की ऐसी शुद्ध अवस्था पर पहुँचने के बाद हम चेतना के आधार की ओर आगे बढ़ने की यात्रा शुरू करते हैं। इस सर्वोच्च स्तर पर शुद्धता सबसे प्रबल होती है।

शुद्धता आत्म-जागरूकता बढ़ाती है। इसकी कोई माँग नहीं होती। बल्कि, यह हमारी इंद्रियों को नियंत्रित रखती है। परिणामस्वरूप हमें एकाग्रता और पूर्ण स्पष्टता प्राप्त होती है क्योंकि अब इंद्रियाँ कोई हस्तक्षेप नहीं करतीं। ऐसे केंद्रित मन में चिंतन संभव है जिसका परिणाम सामंजस्य है। सामंजस्य के इसी क्षेत्र में हम सच्ची खुशी विकसित कर सकते हैं।

लगातार बढ़ने वाली इस पूरी यात्रा में हमें अपने तात्कालिक लक्ष्य शायद दिखाई न दें। यह एक जंगल से गुज़रते हुए एक पहाड़ पर चढ़ने जैसा है - हम हमेशा यह नहीं देख सकते कि हम कितनी दूर आ चुके हैं और कितनी दूर हमें जाना है। किसी प्रेक्षण स्थल पर पहुँचने के बाद ही हम पीछे मुड़कर देख सकते हैं कि हम कहाँ से आए हैं और उस शिखर की झलक पा सकते हैं जहाँ हमें जाना है।

अतः अपनी आध्यात्मिक यात्रा में लक्ष्य-निर्धारण की इस प्रक्रिया के प्रबंधन का एक तरीका है कि प्रत्येक ध्यान में हमें जो मिलता है, उसकी कदर करें, उसे आत्मसात करें, उसे अपना बनाएँ और उसका विस्तार करें जब तक कि हम उसके साथ एक न हो जाएँ। इस अर्थ में, हमारा लक्ष्य किसी भी तरह से भविष्य में नहीं है। वह यहाँ और अभी है। और इसके लिए अपने हृदयों में अत्यधिक ग्रहणशीलता विकसित करने की आवश्यकता है।

लक्ष्य की ओर आपकी यात्रा में हर तरह की सफलता के लिए मेरी शुभकामनाएँ।


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दाजी

दाजी हार्टफुलनेसके मार्गदर्शक

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