लेखक और सांस्कृतिक समीक्षकचार्ल्स आइज़न्स्टाइनदो-भागों की श्रृंखला शुरू कर रहे हैं जिसमें वे बता रहे हैं कि कैसे वास्तविक अनुभवों की जगह लेने वाले आभासी अनुभवों ने आधुनिक जीवन में अलगाव की गहरी भावना पैदा की है।

जोकोई भी किसी शानदार संगीत समारोह में गया है, वह इस बात से सहमत होगा कि रिकॉर्ड किया गया संगीत कभी भी प्रत्यक्ष (live) प्रदर्शन के अनुभव की बराबरी नहीं कर सकता। फिर भी इस बुनियादी अंतर को स्पष्टतः बताना मुश्किल है। यह सिर्फ़ दूसरे लोगों के साथ होने की बात नहीं है। आप विशाल स्पीकरों के सामने हज़ारों लोगों को इकट्ठा करके एक रिकॉर्ड किया हुआ एल्बम बजा सकते हैं लेकिन यह किसी प्रत्यक्ष संगीत समारोह जैसा बिलकुल नहीं होगा।

शानदार प्रत्यक्ष संगीत का अनिवार्य और अद्वितीय तत्व यह है कि बैंड दर्शकों के लिए गा रहा होता है - उसी पल में और उसी पल में मौजूद दर्शकों के लिए। संगीत एक अनोखे व्यक्तिगत संवाद का वाहक है। कभी-कभी बैंड दर्शकों की प्रतिक्रिया से बेखबर, किसी पुरानी प्रस्तुति को दोहराता है और तब दर्शकों को थोड़ी-बहुत निराशा महसूस होती है। तब शायद वे सोचें कि उस दिन बैंड का प्रदर्शन अच्छा नहीं था। लेकिन अपने सर्वोत्तम रूप में प्रत्यक्ष प्रस्तुति में कलाकार दर्शकों के साथ संवाद करते हैं, उनकी ऊर्जा के अनुसार प्रतिक्रिया देते हैं और उस समय तक दी गई प्रस्तुतियों और आगे आने वाली प्रस्तुतियों से बिलकुल अलग तरह की प्रस्तुति देते हैं। बैंड और दर्शक दोनों ही एक शानदार संगीत समारोह को बहुत प्रेम से याद करते हैं। किसी भी संगीत समारोह को शानदार बनाने वाली बात केवल उसकी बेहतरीन ध्वनि व्यवस्था (साउंड सिस्टम) या संगीतकारों की तकनीकी सटीकता नहीं होती। उस प्रस्तुति की रिकॉर्डिंग किसी और को दे दीजिए, जो किसी अलग जगह और भिन्न समय पर उसे सुनता है, आप देखेंगे कि उस संगीत का प्रभाव वैसा नहीं होगा।


शानदार प्रत्यक्ष संगीत का अनिवार्य और अद्वितीय तत्व यह है कि बैंड दर्शकों के लिए गा रहा होता है - उसी पल में और उसी पल में मौजूद दर्शकों के लिए। संगीत एक अनोखे व्यक्तिगत संवाद का वाहक है।


हम कहते हैं, “तुम्हें वहाँ होना चाहिए था।”

केवल एक या दो सदी पहले सारा संगीत प्रत्यक्ष रूप से ही प्रस्तुत किया जाता था। लोग पब में गाते थे, प्रेमी प्रेम गीत गाते थे और माँ बच्चे को लोरी सुनाती थी। रात के खाने के बाद लोग पियानो के पास इकट्ठा होकर संगीत बजाते थे। खेतों में काम करते समय गीत गाए जाते थे और खेल के मैदान में बच्चे गाते थे। ओपेरा व छोटे समूहों द्वारा सीमित श्रोताओं के बीच संगीत प्रस्तुत किया जाता था। नाई की दुकान की चौकड़ी, चर्च के गायक मंडल, सिम्फ़नी ऑर्केस्ट्रा आदि प्रत्यक्ष रूप से ही संगीत प्रस्तुत करते थे। हर स्थिति में, कोई न कोई किसी और के लिए बजा रहा होता था या गा रहा होता था।

आज आधुनिक समाज के संगीत में ऐसे अनुभव दुर्लभ हैं। आजकल का अप्रत्यक्ष संगीत सुनने से मनुष्य को पोषण नहीं मिलता बल्कि एक तरह का भ्रम बढ़ता है। यहाँ तक कि इससे एक धोखे का एहसास भी होने लगता है। लाखों वर्षों का अनुभव कहता है, “कोई मेरे लिए गा रहा है।” रेडियो के अंदर कोई बैंड ज़रूर होगा लेकिन ऐसा नहीं है। यह गाना किसी ऐसी जगह और समय पर गाया गया था जिसके साथ मेरा कोई संबंध नहीं था। और इसलिए मैं थोड़ा ठगा हुआ सा महसूस करता हूँ।

कृपया इसका यह मतलब न निकालें कि हमें रिकॉर्ड किया हुआ संगीत नहीं सुनना चाहिए। यह मनोरंजन कर सकता है, आनंद और प्रेरणा दे सकता है, भावनाएँ जगा सकता है या यादें भी ताज़ा कर सकता है। वाकई, यह संगीत के न होने से तो बेहतर है। लेकिन जब यह प्रत्यक्ष संगीत की जगह ले लेता है तब आधुनिक दुनिया में ज़िंदगी, जो पहले ही खाली है, थोड़ी और खाली हो जाती है। इसमें कोई वास्तविकता नहीं रहती। जब कोई हमारे सामने संगीत बजाता है, भले ही वह सुरों का अभ्यास करता हुआ मेरा बेटा ही हो, तब स्रोत से कान तक और वापस कान से स्रोत तक का चक्र पूरा हो जाता है। जो मेरे कानों को सुनाई दे रहा है, वह संगीत सच में प्रत्यक्ष रूप से मेरे सामने ही प्रस्तुत किया जा रहा है। मैं अन्यथा कुछ नहीं सुन रहा हूँ।

रिकॉर्ड किए गए संगीत को ‘आभासी संगीत’ कहा जा सकता है। इसमें संगीत का पूरा श्रवणात्मक रूप होता है लेकिन न तो कोई वाद्य यंत्र बजाया जाता है और न ही कोई गीत का स्वर गाया जाता है। यह बात सिंथेसाइज़र से बने संगीत के लिए और भी ज़्यादा सच है। इसके मामले में इस समय कोई गिटार नहीं बजा रहा है बल्कि इसे किसी ने कभी बजाया ही नहीं है।

संगीत के बारे में जो सच है, वह बात सभी रिकॉर्ड की गई ध्वनियों के बारे में भी सच है। यह सब लिखते समय कभी-कभी मेरा ध्यान खिड़की के बाहर चहकते झींगुरों पर भी चला जाता है। मेरे कान रात में उनको सुनते रहते हैं। यदि मैं झींगुरों की आवाज़ की रिकॉर्डिंग सुन रहा होता तो क्या मेरा अनुभव कुछ अलग होता? मानवीय कान शायद यह अंतर ठीक से न जान पाएँ लेकिन झींगुर हर समय एक ही तरह से नहीं चहकते बल्कि तापमान और अन्य कारकों के अनुसार उनकी आवाज़ तेज़ या धीमी हो जाती है। अनुभवी कान शायद मौसम की शुरुआत या बाद में या बारिश के बाद अलग-अलग स्वरों को पहचान सकें। जब कोई व्यक्ति या जानवर उनके ज़्यादा पास आता है तब असली झींगुर चहकना बंद कर देते हैं। एक सजग श्रोता झींगुरों की आवाज़ सुनकर बहुत कुछ जान सकता है कि बाहर क्या हो रहा है। ऐसे अनुभव से श्रोता दुनिया में और भी गहराई से समाहित होने लगता है और वह उसे संबंधों के ताने-बाने से जोड़ देता है। कोई भी व्यक्ति बाहर जाकर झींगुर की आवाज़ सुनकर उस अनुभव की पुष्टि कर सकता है।

अमेज़न वर्षावन की आवाज़ों की उच्च स्तरीय ध्वनि-गुणवत्ता वाली रिकॉर्डिंग उपलब्ध हैं। उन्हें सुनकर ऐसा लगता है मानो आप जंगल के बीच में हैं - लेकिन वास्तव में आप वहाँ नहीं हैं। यहाँ मुख्य शब्द ‘मानो’ है। मानो आप जंगल में हैं। आपके कान आपको बताते हैं कि आप वहाँ हैं। सुनो, एक तेंदुआ पास में मंडरा रहा है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। जब मैं ऐसी रिकॉर्डिंग सुनता हूँ तब कुछ तो है जो मुझे पूरी तरह से उसमें डूबने से रोकता है - शायद वही सहज बोध जो मुझे इंटरनेट के ठगों से सतर्क करता है। झूठ की मौजूदगी का आभास हो ही जाता है।

 

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उपरोक्त सभी बातें चित्रों पर भी समान रूप से लागू होती हैं। मैंने इस विषय पर कुछ समय पहले लिखे एक निबंध, ‘इंटेलिजेंस इन द ऐज ऑफ़ मैकेनिकल रिप्रोडक्शन’ (यांत्रिक पुनरुत्पादन के युग में बुद्धिमत्ता) में विस्तार से चर्चा की थी। यह वाल्टर बेंजामिन को श्रद्धांजलि थी। यू-ट्यूब देखते हुए आँख हमें बताती है, “वहाँ एक बिल्ली का बच्चा है।” वह एक पिंग-पोंग गेंद से खेलता हुआ दिखाई देता है। लेकिन वास्तव में कोई बिल्ली का बच्चा नहीं है। यह बात तैल-चित्रों के लिए भी सच थी लेकिन चित्रकला स्वयं एक अद्वितीय भौतिक वस्तु बनी रही। (रिकॉर्डिंग तकनीक से पहले भी आवाज़ों की नकल की जा सकती थी)। कुछ भी हो, कंप्यूटर-जनित छवियों और वीडियो में हम स्क्रीन पर जो देखते हैं, वह न केवल स्थान और समय में हमसे अलग होता है बल्कि वह कभी अस्तित्व में था ही नहीं। आँख हमें एक चीज़ दिखाती है (बिल्ली का बच्चा) जबकि तर्क हमें कुछ और बताता है (कोई बिल्ली का बच्चा नहीं है)।


आभासी ध्वनियों और छवियों के संसार में डूबे रहने से अलगाव और अकेलेपन की भावनाएँ पैदा होती हैं।


दृष्य-श्रव्य (Audio-Visual) रिकॉर्डिंग तकनीक के माध्यम से और उससे भी ज़्यादा सृजनात्मक कृत्रिम बुद्धिमत्ता के माध्यम से हम जो देखते और सुनते हैं, उससे खुद को दूर रखने की आदत सीखते हैं। ये उन इंद्रियों में से हैं जो संसार में हमारी उपस्थिति स्थापित करती हैं। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि बहुत से लोग यहाँ खोया हुआ महसूस करते हैं।

जो व्यक्ति हमेशा छल-कपट के माहौल में रहता है, वह किसी भी चीज़ पर भरोसा न करना सीखता है। इस अविश्वास के गंभीर राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक परिणाम होते हैं। एक गंभीर राजनीतिक परिणाम यह है कि हम मानवता के विरुद्ध अपराधों के छायाचित्रों या वीडियो सबूतों पर भरोसा नहीं करते। यह अविश्वास अपराधों को एक ऐसी ढाल प्रदान करता है जिसकी वजह से वे जनता की नज़रों के सामने खुलेआम होते रहते हैं। हम स्क्रीन पर जो कुछ भी देखते हैं, उसे अपने आप ही खारिज कर देते हैं क्योंकि कहीं न कहीं हम जानते हैं कि यह वास्तविक नहीं है - इस अर्थ में कि वहाँ कोई बिल्ली का बच्चा उछल-कूद नहीं मचा रहा है और जो कुछ भी हम देख रहे हैं, वह वर्तमान क्षण में घटित नहीं हो रहा है। (या, कंप्यूटर-जनित छवियों के मामले में, बिलकुल भी नहीं हो रहा है।) दूसरे शब्दों में, स्क्रीन पर जो कुछ भी दिखता है, हम उसके आदी हो गए हैं।

यह आदत काफ़ी समझदारी से पैदा होती है क्योंकि टीवी पर हम जो हिंसा और नाटक देखते हैं वह सच में अवास्तविक ही होता है। यदि हम टीवी पर दिखाई जाने वाली उन सभी गोलीबारी और कार का पीछा करने वाले दृश्यों को सच मानने लगें तो हमारी मानसिक स्थिति बिगड़ जाएगी। इसलिए हम उन्हें नज़रअंदाज़ कर देते हैं - उनके साथ हम उन छवियों और कहानियों को भी नज़रअंदाज़ कर देते हैं जो वास्तविक हैं। आँख और कान आसानी से यह नहीं पहचान पाते कि कौन सी वास्तविक है और कौन सी अवास्तविक। वे सभी एक जैसी ही प्रतीत होती हैं। डिजिटल रूप से प्रसारित जानकारी को नज़रअंदाज़ करने की यह आदत जनता को भयावह घटनाओं के प्रति उदासीन बना देती है। अनजाने में हममें यह मान लेने की आदत हो गई है कि यह वास्तव में हो ही नहीं रहा है।

आभासी ध्वनियों और छवियों के संसार में डूबे रहने से अलगाव और अकेलेपन की भावनाएँ पैदा होती हैं। जब हम ऐसी चीज़ें देखते और सुनते हैं जो वास्तव में मौजूद नहीं होतीं तब एक भयावह डिरियलाइज़ेशन (अवास्तवीकरण) की भावना उत्पन्न होती है, जिसमें व्यक्ति सोचता है, “शायद मैं भी वास्तव में यहाँ मौजूद नहीं हूँ।” यह आमतौर पर कोई स्पष्ट विचार नहीं होता, बल्कि यह एक भावना होती है, बनावटीपन व अर्थहीनता का एहसास, नकली जीवन जीने का एहसास होता है। स्वाभाविक रूप से हम उस चीज़ के बारे में परवाह करना बंद कर देते हैं जो वास्तविक लगती ही नहीं।

यह केवल बड़े पैमाने पर उत्पादित ध्वनियाँ और छवियाँ नहीं हैं जो आधुनिक अवास्तवीकरण में योगदान देतीं हैं। वस्तुओं के बड़े पैमाने पर उत्पादन और उनके स्वरूप के निर्धारण को लेकर काम उनके अस्तित्व में आने से पहले ही शुरू हो जाता है। जैसे रिकॉर्ड की गई ध्वनि में उसे बनाने वाले श्रम का कोई स्पष्ट संकेत नहीं होता, वैसे ही एक वस्तु - जो एक मानक, सामान्य वस्तु है - उसमें भी उसे बनाने वाले सामाजिक श्रम का कोई दृश्य चिन्ह नहीं होता। ऐसा लगता है मानो वह कहीं से अचानक आ गई हो। उसके इतिहास, उत्पादन के सामाजिक और पारिस्थितिक प्रभावों के बारे में लोगों को कोई जानकारी नहीं होती। न ही वे उसके साथ जुड़ी किसी कहानी को जानते हैं, सिवाय इसके कि उन्होंने उसे कहाँ खरीदा और उसकी कीमत कितनी थी।

औद्योगिक युग से पहले भौतिक वस्तुएँ भी संबंधों की वाहक होती थीं। या तो लोग उन्हें स्थानीय सामग्रियों से स्वयं बनाते थे या कोई अन्य व्यक्ति, जिसके साथ वे कई अन्य तरीकों से जुड़े होते थे, उनके लिए बनाता था। आर्थिक संबंध सामाजिक संबंधों के साथ गुँथे हुए थे। भोजन, वस्त्र और मानव हाथों से निर्मित हर वस्तु उपहारों के रूप में ली व दी जाती थी जो देने वाले और लेने वाले को आपस में जोड़े रखती थी। वे पुष्टि करते थे कि व्यक्ति समाज में मौजूद है। लोग दुनिया से एक सहभागी की तरह जुड़े होते थे न कि केवल एक उपभोक्ता की तरह। वे सामाजिक तंत्र का हिस्सा होते थे। अमेज़न पर की गई खरीदारी के माध्यम से कहीं से भी प्रकट होने वाली वस्तुएँ आपको किसी इंसान, किसी स्थान या समुदाय से नहीं जोड़तीं।

इस तरह बाज़ार में उपलब्ध वस्तु एक प्रकार की अवास्तविकता को दर्शाती है। मज़बूत दिखने के बावजूद इससे एक व्यापक नकलीपन का ही एहसास होता है। यह उपलब्ध तो है फिर भी किसी ने इसे विशेष रूप से मेरे लिए नहीं बनाया है। यह एक भौतिक वस्तु है जो भौतिक उत्पादन की किसी भी दृश्य प्रक्रिया से गुज़रे बिना प्रकट होती है। आपको खाने की थाली पर एक अत्यंत बारीक और सुंदर डिज़ाइन देखने को मिल सकता है लेकिन इसे किसी कलाकार ने चित्रित नहीं किया, कम से कम इस थाली पर तो नहीं। विषयगत रूप से इसका कोई इतिहास नहीं, कोई संबंध नहीं। यह उस ‘आभा’ के ह्रास को दर्शाता है जो वाल्टर बेंजामिन के अनुसार यांत्रिक रूप से पुनः बनाई गई कलाकृति में होता है। यह समाज में तयशुदा भूमिकाओं को निभाने वाले लोगों की पूर्वनिर्धारित प्रस्तुतियों को भी दर्शाता है। ऐसी भूमिकाएँ अवैयक्तिक होती हैं। इनको निभाने वाले व्यक्ति वास्तविक नहीं लगते, ठीक उसी तरह जैसे ये वस्तुएँ भी वास्तविक वस्तुएँ नहीं लगतीं। इसलिए, जे. डी. सैलिंगर जैसे सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील लोग लगभग 70 साल पहले, कंप्यूटर-जनित ध्वनियों और छवियों के युग से बहुत पहले, नकलीपन को आधुनिक समाज के एक विशिष्ट लक्षण के रूप में पहचान पाए।

आज हमारे पास न केवल मशीन-निर्मित वस्तुएँ, ध्वनियाँ और छवियाँ हैं बल्कि मशीन-निर्मित व्यक्तित्व भी हैं। एआई चैटबॉट हर तरह से ऐसा आभास देता है जैसे कि कोई इंसान लिख रहा है या आपसे बात कर रहा है, आपको सुन रहा है, आपको जवाब दे रहा है, आपको समझ रहा है, आपको महसूस कर रहा है और आपके साथ वहाँ है। हालाँकि, शब्दों के पीछे कोई भी कुछ महसूस नहीं कर रहा होता है। दिखावा और वास्तविकता फिर से अलग हो जाते हैं और अंत में हम इलेक्ट्रॉनों को ही पकड़ कर रह जाते हैं।

संपादक की टिप्पणी - अगले महीने के अंक में आइज़न्स्टाइन इसके बारे में बात करेंगे कि विभिन्न प्रकार के ये आभासी प्रतिस्थापन कृत्रिम बुद्धिमत्ता में सबसे अंतरंग और संभवतः खतरनाक कैसे बन जाते हैं, जहाँ मशीनें न केवल संगीत या चित्रों की नकल करती हैं बल्कि किसी अन्य सचेत प्राणी द्वारा समझे जाने, खयाल रखे जाने और पहचाने जाने के अनुभव की भी नकल करती हैं।

 

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चार्ल्स आइज़न्स्टाइन

चार्ल्स आइज़न्स्टाइन

चार्ल्स एक लेखक, दार्शनिक, वक्ता औ... और पढ़ें

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