दाजी मार्गदर्शिका के दूसरे सार्वभौमिक नियम के बारे में बता रहे हैं अर्थात् प्रार्थना द्वारा हृदय को प्रेमपूर्ण बनाने का विज्ञान। प्रार्थना वह कड़ी है जो ब्रह्मांड में हर वस्तु को जोड़ती है।
जब बाबूजी दस नियमों को लिख रहे थे उस समय द्वितीय विश्व युद्ध ज़ोर पकड़ चुका था और करोड़ों बहुमूल्य जीवन उसकी चपेट में आ चुके थे। युद्ध के दोनों पक्षों के युवा सैनिकों के अलावा जातीय घृणा एवं धार्मिक कट्टरता के परिणामस्वरूप भी लाखों निर्दोष लोगों के प्राण गए। इस दौरान, भारत में तेज़ी से बढ़ती धार्मिक कट्टरता के कारण देश पूरी तरह से बिखर रहा था। ईश्वर और धर्म के नाम पर एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति की हत्या करने के इस मूर्खतापूर्ण व भयानक व्यवहार से आहत होकर बाबूजी ने घोषित किया -
“ईश्वर किसी विशेष धर्म या वर्ग के दायरे में नहीं पाया जाता। न तो वह किसी निश्चित रूप तक सीमित है और न ही उसे धार्मिक ग्रंथो में ढूँढा जा सकता है। उसे हमें अपने हृदय के अंतरतम में ढूँढना होगा।”
यद्यपि उनकी दर्दभरी पुकार उस समय अनसुनी हो गई, लेकिन अब यही शब्द उस सार्वभौमिक हार्टफुलनेस अभियान को परिभाषित करते हैं जो बिना किसी भेदभाव के सभी धर्मों और आस्थाओं के लोगों को दिल से अपनाता है। बाबूजी ने यह कल्पना की थी कि केवल एक छोटी सी धारा के रूप में शुरू होने वाला यह अभियान दुनिया भर में फैल जाएगा और एक ऐसे विश्व की नींव रखेगा जिसका आधार प्रेम और एकता से परिभाषित आधात्मिकता होगी। उस समय कोई सोच भी नहीं सकता था कि कई आध्यात्मिक संस्थाएँ एवं अभियान एक साथ मिलकर आगे बढ़ेंगे लेकिन हमने इसे शुरू होते देख लिया है। यह सिर्फ़ शुरुआत है - यह शांत क्रांति धीरे-धीरे और निश्चित रूप से मानवीय चेतना को रूपांतरित कर रही है।
बाबूजी के अनुभव में, ईश्वर हर प्राणी के हृदय में शाश्वत रूप से विद्यमान है। आत्म-चिंतन और जागरूकता जैसे गुणों से संपन्न, हम सभी मनुष्यों में इस मौजूदगी को अपने अंदर महसूस करने की क्षमता है। यह केवल हमारे द्वारा अर्जित जटिलताओं और अशुद्धियों को हटाकर मन को शुद्ध करने से ही हो जाता है। यह हृदय से उन सभी कामनाओं एवं वासनाओं को हटाने के परिणामस्वरूप भी हो जाता है जिनके कारण हृदय में भारीपन आ जाता है। इसे संभव बनाने के लिए उन्होंने ध्यान, सफ़ाई और प्रार्थना जैसे हार्टफुलनेस अभ्यासों को बनाया। दूसरा नियम प्रार्थना के महत्व को समझाता है - उसे कैसे किया जाना चाहिए, प्रार्थना किसको संबोधित की जानी चाहिए और अंततः प्रार्थना का क्या परिणाम होता है और उसकी अंतिम अवस्था कैसी होती है।

प्रार्थना स्रोत के साथ जुड़ने का, स्रोत के साथ संबंध स्थापित करने का और उस संबंध को विकसित करते हुए गहन एकात्मकता स्थापित करने का सचेत प्रयास है।
उन्होंने इस दूसरे नियम के सार को इस प्रकार प्रस्तुत किया –
नियम-2
“ध्यान, प्रार्थना से आरंभ करें। प्रार्थना आत्मिक उन्नति के लिए हो और उसे इस तरह किया जाए कि हृदय प्रेम से भर जाए।”
पुनः परिभाषित प्रार्थना
अधिकांश धार्मिक परंपराओं में, प्रार्थना देवी-देवता को खुश करने के लिए, कुछ माँगने के लिए या फिर अमंगल से सुरक्षा पाने के लिए की जाती है। ऐसा समझा जाता है कि ईश्वर हमारे बाहर किसी काल्पनिक स्वर्ग में स्थित हैं।
इस विषय में आध्यात्मिक सोच बहुत भिन्न है जिसके अनुसार परमतत्व या स्रोत हमारे अंदर ही है। वास्तव में, यह हर प्राणी व वस्तु के केंद्र में है यहाँ तक कि एक परमाणु के केंद्र में भी यह विद्यमान है। सृष्टि-रचना से पूर्व, केवल परमतत्व ही विद्यमान था। जब हम इससे उत्पन्न हुए तब हम भौतिक जगत के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करने लगे लेकिन वह केंद्र बिंदु हमारे अंतरतम में गहनता से स्थापित है।
इस संदर्भ में, प्रार्थना स्रोत के साथ जुड़ने का, स्रोत के साथ संबंध स्थापित करने का और उस संबंध को विकसित करते हुए गहन एकात्मकता स्थापित करने का सचेत प्रयास है। फिर यह संबंध स्रोत से कृपा के प्रवाह को मनुष्य के हृदय में उतरने में मदद करता है। मनुष्य का भक्ति भाव खालीपन या खिंचाव पैदा करता है जो स्रोत से आने वाली कृपा को आकर्षित करता है। और प्रेम ही इस संबंध या रिश्ते को बनाता है। फिर यह रिश्ता उस निकटता से मज़बूत होता जाता है जो निरंतर जुड़े रहने से स्थापित होती है। इसे हम सतत स्मरण कहते हैं।
हार्टफुलनेस परंपरा में, हमारी वास्तविक यात्रा स्रोत की ओर वापस जाने, अपने असली घर लौटने से संबंधित है। यह यात्रा इस बात को मानने से शुरू होकर धीरे-धीरे एक गहन अनुभूति बन जाती है कि स्रोत हमारे अंदर ही विद्यमान है और हम इसके साथ एक हैं। प्रार्थना स्रोत के साथ जुड़ने या संवाद करने के लिए सुविचारित कार्य है। स्रोत के साथ स्थायी संबंध बनाने की प्रक्रिया के विभिन्न चरण हैं - स्रोत के साथ जुड़ना, कृपा को आकर्षित करने के लिए खिंचाव पैदा करना और फिर उस संबंध को स्थायी बनाना।
जुड़ाव और संबंध स्थापित करना
प्रार्थना के विज्ञान को समझने के लिए तारसंचार एक अच्छा उदाहरण है। लंबी दूरी पर लोगों से संपर्क करने के लिए यह बाबूजी के समय की सबसे उन्नत तकनीक थी। आज संसार में, वाइफ़ाई का उपयोग करके इंटरनेट से जुड़ना एक बेहतर उपमा हो सकती है। प्रारंभ में, जब आप संपर्क स्थापित करने के लिए लॉग-इन करते हैं तब आपको अपनी पहचान बनानी होती है, अपनी पहचान को प्रमाणित करना होता है, पासवर्ड आदि का उपयोग करना होता है। एक बार जब आपका प्रारंभिक संपर्क स्थापित हो जाता है तब यह प्रक्रिया स्वतः होने लगती है। इस प्रकार पहला कदम है अपनी उपस्थिति को ज्ञात कराना और अपने भीतर मौजूद परमात्मा का ध्यान आकर्षित करना। दूसरे शब्दों में, यह उद्देश्य निर्धारित करने से संबंधित है।
इसके अलावा, तारसंचार में भी, विद्युत प्रवाह धनात्मक से ऋणात्मक (पॉज़िटिव से नेगेटिव) की ओर प्रवाहित होता है। इस अंतर के बिना कोई भी संदेश संचारित नहीं हो पाएगा। इससे हम अगले कदम पर आते हैं।
प्रार्थना हृदय को प्रेम से कैसे भर सकती है?
प्रकृति में, जहाँ कहीं भी प्रवाह होता है वह उच्चतर-स्तर से निचले-स्तर की तरफ़ होता है, या यह स्थानांतरण धनात्मक और ऋणात्मक ध्रुवीयता से निर्धारित होता है। हमेशा कुछ अंतर होना ज़रूरी है क्योंकि जब कोई दो चीज़ें एक स्तर पर होती हैं तो प्रवाह नहीं होता। प्रार्थना में जब हम परमात्मा से जुड़ते हैं, उस समय यदि हम अपने हृदय में शून्यता की स्थिति पैदा करते हैं तो दिव्य कृपा का प्रवाह उस ओर होने लगता है। यदि हम अपने अंदर उस प्रार्थनामयी अवस्था को विकसित कर लेते हैं तो हमारा अस्तित्व प्रेम से भर जाता है। इसका अर्थ है अपने आप को अपने निम्नतम संभव स्तर पर ले आना। तब हमारा हृदय अत्यंत ग्रहणशील और विनम्र बन जाता है। यह झुकाव भक्ति और इस बात को स्वीकार करने के मनोभाव या अवस्था से उत्पन्न होता है कि देने वाला वह ईश्वर है और हम तो सिर्फ़ विनम्र ग्रहणकर्ता हैं। भक्ति से हृदय में वह रिक्तता उत्पन्न होती है जिसे कृपा के बहाव से भरा जा सकता है।
एक पल के लिए कल्पना करें कि प्रेम की जगह आपका हृदय अहंकार और इच्छाओं से भरा हुआ है। ऐसे हृदय में क्या प्रवेश कर सकता है? प्रार्थना के दौरान प्रवाह को एक से अधिक धाराओं में बाँटने से हमारे प्रयास कमज़ोर पड़ने लगते हैं। प्रार्थना को पूरे दिल से किया जाना चाहिए, आधे-अधूरे ध्यान से काम नहीं चलता। प्रेम से भरे हृदय द्वारा पूरी तरह ध्यान देने से हमारे अंदर पवित्र भावनाएँ जागृत होती हैं। ऐसे क्षणों में हमारा हार्दिक मनोभाव परमात्मा के हृदय से संपर्क स्थापित करने में हमारी सफलता सुनिश्चित करता है।
बाबूजी ने एक महान कवि का संदर्भ दिया था जिसने एक बार कहा था, “ऐ दिव्य नशे के प्यासे, अपने हृदय को इस प्रयोजन के लिए खाली कर दे क्योंकि शराब की बोतल एक खाली गिलास पर ही झुकती है।” शायद ईसा मसीह का यही मतलब होगा जब उन्होंने पर्वत पर परमानंद के बारे में उपदेश देते हुए कहा था, “धन्य हैं वे जो अपने आपको दीन मानते हैं क्योंकि स्वर्ग उन्हीं का है। धन्य हैं वे जो शोक करते हैं क्योंकि उन्हें सांत्वना मिलेगी। धन्य हैं वे जो विनम्र हैं क्योंकि धरती पर उन्हीं का राज होगा।” यह अत्यधिक विनम्रता का मनोभाव ही है जिससे यह झुकाव उत्पन्न होता है और हृदय में दिव्य कृपा प्रवाहित होने लगती है।
प्रेम का स्थायी प्रवाह बनाना
कोई भी संबंध हो, वह बार-बार संपर्क में रहने से विकसित होता है। स्रोत के साथ हमारा संबंध इससे कुछ अलग नहीं है, जो प्रेम से पोषित होता है। प्रेम यह संबंध बनाता है। यह संबंध हार्टफुलनेस पद्धति के अन्य अभ्यासों की सहायता से परिपक्व और गहरा होने लगता है।
उचित मनोभाव एवं इरादे के साथ किया गया अभ्यास अंततः एक स्थायी प्रार्थनामयी अवस्था बनाता है जो हृदय की स्थायी विनम्र, सुनम्य और पूर्णतः कोमल अवस्था पर आधारित होती है। इससे दिव्य स्रोत के साथ निरंतर तारतम्य स्थापित होता रहता है। ऐसा व्यक्ति एक गुरु या मार्गदर्शक होता है, इसलिए जब हम ऐसे गुरु के साथ जुड़ते हैं तब हम तुरंत स्रोत से प्राणाहुति महसूस करते हैं। हमें उनके सान्निध्य से बेहद लाभ मिलता है क्योंकि वे बाधाओं को दूर करके और प्राणाहुति को हमारे हृदय में प्रेषित करके परमात्मा के साथ हमारे जुड़ने की प्रक्रिया में हमारी मदद करते हैं।
प्रार्थना किससे करें?
हमारे अंदर मौजूद उस परमतत्व अर्थात् स्रोत से प्रार्थना करना ही श्रेष्ठ है। प्रार्थना से हम आत्म-प्रभुत्व की अवस्था प्राप्त करते हैं, लेकिन उसे प्राप्त करने के लिए हमें अपने से किसी उच्चतर अस्तित्व के आगे समर्पण करने की आवश्यकता भी है। इसीलिए गुरु की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है जो हमें स्रोत से जुड़ने में मदद करते हैं और उस ओर मार्गदर्शित करते हैं। इसलिए इस प्रश्न का कोई एक उत्तर नहीं है। इसे आपके हृदय के साथ अनुनादित होना चाहिए ताकि आप अपने अंदर दिव्यता को महसूस करें।

दोनों ही स्थितियों में, प्रार्थना का जो विचार बाबूजी ने बताया है, वह पारंपरिक धार्मिक आस्था से बिलकुल भिन्न है। यह एक गहरी तड़प है जो हम अपने अंदर पैदा करते हैं - उस स्रोत के साथ एक होने की तड़प जिससे हम आए हैं और जो अब भी हमारे अस्तित्व का मूल आधार है। यह हमारे हृदय की गहराइयों से निकली तीव्र पुकार है जो स्रोत को हमारी तरफ़ मोड़ देती है। हम प्रार्थना में कोई भी विशेष चीज़ नहीं माँगते हैं। यह एक ऐसा संबंध है जो गहरे विश्वास पर और इस अंतर्ज्ञान पर आधारित है कि हम पहले से ही ‘वह’ हैं।
प्रार्थना कैसे करें?
1940 के दशक में, ऊपर से एक विशेष प्रार्थना बाबूजी के समक्ष प्रकट हुई और वह इस प्रकार है -
हे नाथ! तू ही मनुष्य जीवन का वास्तविक ध्येय है।
हम अपनी इच्छाओं के गुलाम हैं जो हमारी उन्नति में बाधक हैं।
तू ही एकमात्र ईश्वर एवं शक्ति है जो हमें उस लक्ष्य तक ले चल सकता है।
इस प्रार्थना के चार भाग हैं -
पहला भाग यह स्पष्ट करता है कि हम किसको संबोधित कर रहे हैं - सर्वोच्च मालिक को। इसका बहुत गहरा अर्थ है जिसे समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है। स्रोत यानी केंद्र को परम शून्यता कहा गया है। वह अपने आप में संपूर्ण है। वह एकसाथ आदि और अंत दोनों है। वह सृष्टि से परे, चेतना से परे और सृष्टिकर्ता से परे है। उसे किसी भी चीज़ से नहीं छुआ जा सकता। वह हमारी प्रार्थना कैसे सुनेगा और उसका उत्तर कैसे देगा?
इसीलिए, कुछ तो अवश्य है जो स्रोत के साथ विलय की स्थिति में है और उत्तर दे सकता है और वे हैं गुरु। चाहे इन्हें आप आंतरिक मालिक के रूप में अस्तित्व के केंद्र में अनुभव करें या फिर जीवित मालिक यानी गुरु के रूप में। वे गुरु ही हैं जो हमारी प्रार्थना का उत्तर देते हैं, गुरु ही स्रोत के साथ जुड़ाव की कड़ी हैं। इस अवधारणा को अभ्यास के शुरुआत में समझना और स्वीकार करना मुश्किल है लेकिन जैसे-जैसे हम प्रगति करते हैं, अनुभव से यह स्पष्ट होता जाता है।

दूसरा भाग स्पष्ट रूप से हमारे जीवन का लक्ष्य बताता है - मालिक ही मनुष्य जीवन का ध्येय हैं। इसका मतलब है कि हम अलग-अलग व्यक्ति नहीं हैं जो अपने व्यक्तिगत विकास या मुक्ति के लिए प्रार्थना कर रहें हैं। हम सभी मनुष्यों के लिए उपलब्ध उच्चतम अवस्था के लिए प्रार्थना कर रहे हैं। हम सभी मनुष्यों के लिए उस अवस्था में लय हो जाने की प्रार्थना कर रहें हैं। इस प्रार्थना में सभी को सम्मिलित किया जाता है।
तीसरा भाग हमारी वर्तमान सामूहिक मानवीय स्थिति का विवरण है। हमारी कामनाएँ और इच्छाएँ हमें नीचे की ओर खींचती हैं और रास्ते में बाधाएँ डालती हैं। वे हमारी उन्नति में विघ्न डालती हैं। यह अपनी स्थिति की एक सच्ची एवं विनम्र स्वीकृति है। यह एक प्रबुद्ध दृष्टिकोण है - हम स्थिति के प्रति अंधे नहीं हैं या उसे अस्वीकार नहीं करते हैं। इससे हमें स्थिति को स्वीकार करने और प्रार्थी बनने में मदद मिलती है। हमारी कामनाएँ और इच्छाएँ हमारे ध्यान व केंद्रीयता को हमारे अस्तित्व की परमावस्था अर्थात् परमात्मा से एक होने के मूल उद्देश्य से दूर कर देती हैं।
प्रार्थना की आखिरी पंक्ति एक विनम्र स्वीकृति है कि गुरु ही वह दिव्य शक्ति हैं जो प्राणहुति की सहायता से हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचने में मदद कर सकते हैं। हम वहाँ केवल अपने निम्नतर-स्व के प्रयासों से नहीं पहुँच सकते क्योंकि हमारा अहंकार हमें असफल कर देता है। हम अपने निम्नतर-स्व के साथ अंतर बनाने के लिए उस उच्चतर-स्व पर निर्भर करते हैं। इसका यह भी तात्पर्य है कि हम परमात्मा से ही प्रार्थना करते हैं कि वह हमें अंतिम लक्ष्य तक ले जाए।
प्रार्थना करने का उपयुक्त समय सुबह के ध्यान से पूर्व और रात में सोने से पूर्व है। इसका अभ्यास करने का यही तरीका है कि इसे शांति से मन में दो-तीन बार दोहराएँ और फिर धीरे-धीरे शब्दों में खोने की कोशिश करें ताकि शब्दों से आगे बढ़ते हुए उनमें छिपी भावनाओं और स्पंदनों तक पहुँच पाएँ। उन्हें अपने दिल में गूँजने दें। हम इसका मंत्र-जाप नहीं करते हैं। प्रार्थना का अर्थ समय के साथ अपने आप प्रकट हो जाता है और यह ऊपर दिए गए सरल सारांश से कहीं अधिक गहन है। यह केवल मूलभूत समझ के लिए एक शुरुआत है और आप इसको अनदेखा करके अपने अनुभव द्वारा इसका अर्थ स्वयं खोज सकते हैं। आप उसी को स्वीकार कीजिए जो आपके हृदय को प्रसन्नता दे।
हाल ही में मैंने एक सभा के अंत में प्रतिष्ठित आध्यात्मिक संगठनों के आधा दर्जन प्रमुखों को अपने विशेष वस्त्रों में एकता और सार्वभौमिक शांति के लिए प्रार्थना करते हुए, संस्कृत में श्लोकों का उच्चारण करते देखा। परंतु मैंने उन्हें बहस करते हुए और प्राचीन धर्मग्रंथों की अपनी अभिव्यक्ति में अधिक सटीकता लाने का प्रयास करते हुए देखा। उन अद्भुत श्लोकों का उच्चारण करते हुए भी, कोई भी उनके ज्ञान एवं पद के घमंड को प्रत्यक्ष रूप से देख सकता था।
यह अत्यधिक विनम्रता का मनोभाव ही है जिससे यह झुकाव उत्पन्न होता है और हृदय में दिव्य कृपा प्रवाहित होने लगाती है।
कहाँ से प्रारंभ करें?
अपने उच्चतम-स्व के साथ हमारा संबंध मानव जीवन का अभिन्न और महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसीलिए हार्टफुलनेस अभ्यास हैं। भक्ति से भरे दिल से की गई सीधी-सादी प्रार्थना के माध्यम से हम अपने अस्तित्व के स्रोत से जुड़कर परमात्मा का ध्यान आकर्षित करते हैं। उस प्रार्थनामयी हृदय की अवस्था तक, जिसमें प्रार्थना स्वतः ही होने लगती है, पहुँचने के लिए अभ्यास आवश्यक है। यह कहने के बाद, मैं आपका ध्यान बाबूजी के निम्नलिखित कथन की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ जिसमें उन्होंने बड़े शानदार ढंग से प्रार्थना के अभ्यास और सिद्धांत की व्याख्या की है -
“जब संसार वर्तमान रूप में प्रकट हुआ तब केंद्रीय बिंदु सभी में पहले से ही समाहित था। परमात्मा का अंश होने के कारण यह हमारा ध्यान स्रोत की ओर मोड़ देता है। प्रार्थना में हम उस केंद्रीय बिंदु तक पहुँचने का प्रयास करते हैं। हालाँकि यह तभी संभव है जब यह हालत हम अपने अंदर पैदा कर लें। इसके लिए अभ्यास आवश्यक है। यह स्थिति तभी प्राप्त की जा सकती है जब हम पूर्ण रूप से अपने आप को दिव्य इच्छा पर छोड़ दें जो अत्यंत सरल एवं शांत है। प्रकट रूप से यह बहुत कठिन लगता है, किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। यह उनके लिए कठिन नहीं है जो इसकी उत्कट इच्छा रखते हैं। जब कोई अपने में परमतत्व को प्राप्त करने के लिए तड़प पैदा कर लेता है तब वह वास्तव में प्रार्थना की हालत में आ जाता है। सभी को इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए। यदि क्षण भर के लिए भी कोई इस अवस्था में प्रवेश पा जाता है तो उसकी प्रार्थना स्वीकार हो जाती है। किंतु इस हालत को पाने के लिए निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है।”
इसे खुले दिल एवं चिंतनशील मन के साथ पढ़ें और इस पर गहराई से मनन करें। इसका सार आपकी चेतना में समा जाएगा और आपके अस्तित्व के साथ एक हो जाएगा। फिर, जब भी आप यह प्रार्थना करेंगे, यह अलग-अलग शानदार तरीकों से प्रकट होगी। याद रखें, प्रार्थना एक स्थिर कड़ी नहीं है, यह स्रोत के साथ जुड़ने की एक गतिशील और जीवंत कड़ी है।
यह हमारे हृदय की गहराइयों से निकली तीव्र पुकार है जो स्रोत को हमारी तरफ़ मोड़ देती है।
सावधान रहें
सांसारिक समस्याओं का सामना करते समय, प्रार्थना करना अंतिम उपाय ही होना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि आपकी बहन किसी दुर्घटना के कारण कष्ट भोग रही है तो क्या आप उसे अस्पताल ले जाएँगे या आप सिर्फ़ प्रार्थना करेंगे और यह कहकर खुश रहेंगे कि आपने अपनी जिम्मेदारी निभा ली? यदि आप जहाज़ से समुद्र में गिरते हैं तो क्या आप केवल सहायता के लिए प्रार्थना करेंगे या फिर तैरना शुरू कर देंगे? इसलिए हमें सांसारिक समस्याओं के लिए प्रार्थना का उपयोग तभी करना चाहिए जब समस्या को हल करने के लिए हमारे पास उपलब्ध सभी साधन समाप्त हो जाएँ।

