दाजी पहले नियम को प्रस्तुत करते हुए बताते हैं कि ध्यान का नियमित अभ्यास करने की आदत कैसे विकसित की जाए और इसकी तैयारी में क्या महत्वपूर्ण है। वे इसे दैनिक जीवन की प्राकृतिक जैविक लय के साथ जोड़ते हैं जिससे हमारे स्वास्थ्य और खुशहाली में बेहतरी होती है।
अभ्यास
पहले तीन नियम अभ्यास के बारे में हैं - उसे ‘कैसे’ करना चाहिए। कोई भी व्यक्ति जो किसी क्षेत्र में महारत पा लेता है, वह जानता है कि अभ्यास ही परिपूर्ण बनाता है। तैराकी में ओलंपिक चैंपियन, माइकल फ़ेल्प्स, ने ओलंपिक इतिहास में सबसे अधिक स्वर्ण पदक प्राप्त किए हैं। जब उनसे पूछा गया कि वह कौन सी बात है जो उन्हें उनके प्रतिद्वंद्वियों से अलग करती है तब उनका जवाब था कि यह अभ्यास ही था जिसने यह कर दिखाया। वे 365 दिन अभ्यास किया करते थे जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी समय-समय पर अवकाश ले लेते थे।
जब हार्टफुलनेस पद्धति के ध्यान, सफ़ाई और प्रार्थना को नियमित रूप से किया जाता है तब मन की ठोस बन चुकी प्रवृत्तियाँ ढीली पड़नी शुरू हो जाती हैं जिससे चेतना का क्षेत्र शुद्धतर व सरलतर बन जाता है और उसका विस्तार आसानी से हो पाता है। इस विस्तार के कारण हमारी आंतरिक दशा धीरे-धीरे जागरूकता को प्रभावित करती है जिससे हमें चेतना की उच्चतर अवस्थाओं के अनुभव प्राप्त होते हैं। हर ध्यान के दौरान चरण-दर-चरण अज्ञानता का पर्दा उठता जाता है जिससे हमें अस्तित्व की ऐसी अवस्था प्राप्त होती है जो मौलिक शुद्ध मन के साथ समरसता में होती है। संक्षेप में, हर ध्यान उस ‘उच्चतर स्व’ यानी परमात्मा की ओर एक कदम है। चूँकि सृष्टि में सब कुछ ऊर्जा और स्पंदन है इसलिए ध्यान के परिणामस्वरूप हम एक उच्चतर स्पंदन का अनुभव करते हैं।
दैनिक ध्यान अभ्यास
ऐसे चार तत्व हैं जो ध्यान के दैनिक अभ्यास के लिए आधारभूत हैं - समय, स्थान, आसन और शुद्धता। इस लेख में हम इन चार तत्वों के पीछे के ज्ञान के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।
समय - प्रकृति के चक्रों और लय के साथ मेल बैठाएँ
प्राचीन परंपराओं और आधुनिक विज्ञान, दोनों में प्रकृति के चक्रों और लय के बारे में गहन समझ है जिसमें जैविक लय, चंद्र कलाएँ, राशि चक्र से गुज़रते हुए सूरज की गति और मौसमों में बदलाव शामिल हैं। सभी जीव प्रकृति की लय से जुड़े हैं। पेड़-पौधे, पशु और पक्षी इन चक्रों के साथ स्वाभाविक रूप से तालमेल में हैं और उनकी दैनिक गतिविधियाँ जैसे जागना, सोना और खाना इन्हीं पर आधारित हैं। मौसमी गतिविधियाँ जैसे सहवास, स्थानांतरण और शीत निद्रा भी इन्हीं से प्रभावित होती हैं। प्राकृतिक चक्र निर्धारित करते हैं कि पेड़ अपने पत्ते कब गिराएँ और फूल कब खिलें। आधुनिक विज्ञान में अध्ययन के इस क्षेत्र को क्रोनोबायोलॉजी यानी कालक्रम जीव विज्ञान कहते हैं।
यही नियम मनुष्यों पर भी लागू होते हैं। जब हम प्राकृतिक लय के अनुरूप होते हैं तब हम प्रकृति के साथ तालमेल में होते हैं जिसका परिणाम होता है - स्वास्थ्य, सामंजस्य और संतुलन। हम उस लय में होते हैं। आज, हम अक्सर इन चक्रों का पालन नहीं करते हैं, चाहे वह रात को सोने का और सुबह उठने का समय हो, हमारे खाने की आदतें हों या दिन के दौरान गतिविधियों और आराम करने के बीच संतुलन लाना हो। इस असंतुलन के कारण हमें विभिन्न जीवनशैली संबंधी बीमारियों, अशांति और असंतुलन का सामना करना पड़ता है। इसीलिए पहला नियम है सुबह सबसे पहले प्रकृति के साथ लय बैठाने के लिए अपनी जीवनशैली को समायोजित करना।
प्राचीन ज्ञान परंपराओं की अपनी गहन समझ के साथ-साथ अपने प्रत्यक्ष बोध और अनुभव के आधार पर, बाबूजी ने पाया कि ध्यान के लिए सबसे अच्छा समय सूर्योदय से ठीक पहले का है, वह समय जब रात का अंत होता है और दिन की शुरुआत होती है। इस समय, प्रकृति में ऊर्जा का प्रवाह लगभग स्थिर होता है जो हमें भी ध्यान के दौरान स्थिर होने में सहायता करता है। सूर्योदय के समय सूर्य की किरणों का प्रभाव न्यूनतम होता है। इसलिए जब हम इस समय ध्यान करते हैं तब सृष्टि रचना के पहले यानी ऊष्मा की अभिव्यक्ति से पहले की उस मूलभूत अवस्था के साथ समरसता लाना आसान होता है।
जब हम सूर्योदय से पहले ध्यान करते हैं तब जो बाहरी ऊष्मा और अन्य प्रभाव रात के समय हमारे शरीर से निकल चुके हैं, वे सूर्य के प्रभाव के कारण फिर से हमारे शरीर में नहीं घुस सकते। ऐसा करने से ध्यान में लगाए गए समय से हमें सबसे बेहतरीन परिणाम प्राप्त करने में मदद मिलती है।
हार्टफुलनेस में, चूँकि हम ध्यान के दौरान प्राणाहुति ग्रहण करते हैं, यह हमें दैनिक चक्र के दौरान ग्रहणशील बने रहने में सहायता करती है। एक बार जब सूर्योदय हो जाता है तब हमारी ऊर्जाओं का प्रवाह बाहर की ओर होने लगता है और ग्रहणशील बने रहना मुश्किल होता है। सूर्योदय से पहले ध्यान हमें ऊर्जा प्रवाह के प्राकृतिक चक्र के साथ तालमेल बैठाने में सहायता करता है।
शाम को सूर्यास्त का समय भी हार्टफुलनेस सफ़ाई के अभ्यास के लिए अनुकूल होता है। सूर्य के अस्त होने से पहले तक हमारा ऊर्जा चक्र बाहर की ओर प्रवाह वाला ही होता है। इसीलिए शरीर से जटिलताओं और अशुद्धियों को निकालना आसान होता है। सूर्यास्त हो जाने के बाद वह प्रवाह फिर से भीतर की ओर हो जाता है। जब हम सुबह ध्यान करते हैं, शाम को सफ़ाई करते हैं और रात को सोने से पहले प्रार्थना करते हैं तब हम चौबीस घंटे के प्राकृतिक चक्र के साथ तालमेल में होते हैं।
यह आदर्श स्थिति है। मेरा सुझाव है कि हर दिन ध्यान करने के लिए एक ही समय निर्धारित कर लें - जो आपके लिए उपयुक्त हो - यह सुबह 4:00 बजे, 6:00 बजे या 7:30 बजे हो सकता है। उसी समय पर अपने आंतरिक स्व के साथ एक मुलाकात तय करें और इसे एक आदत बना लें। एक बार जब यह आदत बन जाए तब आप सूर्योदय के पहले ध्यान करके प्राकृतिक चक्रों के साथ मेल बैठने के लिए इसका समय बदल सकते हैं।
स्थान - ध्यान के लिए एक स्थान निश्चित करें
जब हम किसी भी गतिविधि को करने के लिए एक स्थान निश्चित कर लेते हैं, चाहे वह काम करना हो, सोना, खाना, पढ़ना या टीवी देखना हो, हमारा पूरा तंत्र स्वतः ही गतिविधि के साथ उस स्थान की पहचान बना लेता है। हम आदत डालकर बहुत आसानी से स्वचालन या नियमितता बना लेते हैं। वास्तव में, सभी संस्कृतियों में आमतौर पर हर एक गतिविधि के लिए एक अलग स्थान रखने की सलाह दी जाती है।
ध्यान पर भी यही बात लागू होती है। ध्यान के लिए एक निश्चित स्थान रखने से, जो कि व्यक्तिगत, स्वच्छ, आरामदायक, सुखद हो और विकर्षणों से मुक्त हो, बहुत मदद मिलती है। ऐसा करके हम स्वतः ही अपने अंतरतम से जुड़ जाते हैं।
इसके अलावा, जैसे-जैसे हम ध्यान करना जारी रखते हैं, ध्यान करने का स्थान हमारे विचारों और भावनाओं का प्रभाव ग्रहण कर लेता है और शुद्धता व पवित्रता के स्पंदन वहाँ फैलने लगते हैं। यह वातावरण हमें और भी अच्छी तरह से ध्यान करने में मदद करता है और समय के साथ इसका प्रभाव या इसकी ऊर्जा कम नहीं होती है।
ध्यान को प्रभावी बनाने हेतु उसके लिए एक अलग स्थान का होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। क्या आपने कभी ऐसे स्थान पर बैठकर ध्यान किया है जहाँ किसी महान ऋषि ने कुछ समय के लिए ध्यान किया हो? आप उसके चार्ज या ऊर्जा को महसूस कर सकते हैं।
आसन - एक ऐसी मुद्रा जिसे आप आराम से बनाए रख सकते हैं
परंपरागत रूप से, ध्यान करने वाले ज़मीन पर पालथी लगाकर सीधे बैठते थे। यह पालथी लगाकर बैठने वाला आसन क्यों? पालथी लगाकर बैठने से शरीर के निचले हिस्से में एक सिमटाव पैदा होता है जिससे अंगों की ऊर्जा नीचे या बाहर की ओर फैलने के बजाय भीतर की ओर खींची जाती है। सिमटाव नीचे से शुरू होता है और धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ता है। हम पैरों को एक स्थिर मुद्रा में लाते हैं और इसे योग में आसन कहा जाता है। ‘आसन’ शब्द संस्कृत की ‘आस्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है ‘बैठना’ - मूल आसन ध्यान के लिए बैठने की मुद्रा था। पतंजलि ने अपने योग सूत्रों में समझाया है - बैठने के लिए एक स्थिर व आरामदायक आसन अपनाएँ ताकि आप अपने प्रयासों को शिथिल कर सकें और अपनी चेतना को अनंत के साथ लय होने दे सकें। इससे आप अस्तित्व के द्वंद्वों के प्रभाव से मुक्त हो जाएँगे।
आसन का यही उद्देश्य है। यह परमतत्व की ओर हमारा मार्ग प्रशस्त करता है। फिर आसन वही बना रह सकता है और हमारा भौतिक शरीर एक एंटीना की तरह हो जाता है जो स्रोत के साथ संपर्क में होता है। अपना ध्येय प्राप्त करने के लिए हम ध्यान में यही करते हैं।
जब हम झुककर या तिरछा बैठने के बजाय एक सीधी मुद्रा में बैठते हैं तब ऊर्जा बिना किसी रुकावट के रीढ़ की हड्डी से ऊपर तक प्रवाहित हो सकती है। यह आसन सतर्कता, एक अच्छे स्वभाव और शरीर की ताज़गी की ओर भी संकेत करता है। अपनी पुस्तक, ‘राजयोग’, में स्वामी विवेकानंद बताते हैं कि जब हम ध्यान करते हैं तब शरीर में बहुत सी गतिविधियाँ चलती रहती हैं। उन्होंने कहा – “तंत्रिका धाराओं को विस्थापित करके उन्हें एक नया प्रवाह देना होगा। नए प्रकार के स्पंदन शुरू हो जाएँगे और भीतर की पूरी संरचना को फिर से गढ़ा जाएगा। लेकिन गतिविधि मुख्यतः रीढ़ की हड्डी में ही होगी। इसलिए आसन के लिए जो ज़रूरी है वह है, रीढ़ की हड्डी को इन गतिविधियों के लिए मुक्त रखा जाए। यह तीन अंगों - छाती, गर्दन और सिर - को एक सीध में रखकर बिलकुल सीधे बैठने से होता है। शरीर के पूरे भार को पसलियों के सहारे रहने दें और तब आपका आसन सरल व स्वाभाविक हो जाएगा जिसमें रीढ़ की हड्डी सीधी रहेगी।”
स्वामी विवेकानंद ने यह भी बताया कि हम रीढ़ की हड्डी और मस्तिष्क के इस तालमेल को कैसे बनाए रख सकते हैं - “अपने आप से कहें कि आप दृढ़ता से बैठे हैं और कुछ भी आपको अस्थिर नहीं कर सकता। उसके बाद एक-एक करके सिर से पैर तक शरीर की पूर्णता पर विचार करें। इसे स्फटिक (crystal) की तरह पारदर्शी और जीवन सागर पर तैरने वाली एक श्रेष्ठ पोत की तरह समझें।”
बाबूजी आगे समझाते हैं - “सीधे बैठकर ध्यान करना प्राचीन काल से ही बहुत लाभप्रद बताया गया है क्योंकि इस अवस्था में बैठने से दिव्य कृपा का प्रवाह अभ्यासी में सीधे उतरता है। यदि अभ्यासी अव्यवस्थित, टेढ़ा-मेढ़ा या अस्थिर बैठता है तो दिव्य कृपा के प्रवाह में रुकावट आती है या विघ्न पैदा होता है और अभ्यासी दिव्य कृपा का पूर्ण लाभ प्राप्त करने से वंचित रह जाता है। अतः पूर्ण रूप से आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने के लिए यह ज़रूरी है कि सही और स्थिर आसन में बैठा जाए।”
हम अपने हाथों को भी अपनी गोद में हल्के से जोड़कर बैठते हैं ताकि भुजाओं की ऊर्जा उँगलियों के माध्यम से बाहर की ओर फैलने के बजाय हमारे शरीर के भीतर ही समाहित रहे।
सारांश यह है कि ध्यान सबसे अच्छी तरह तभी होता है जब आप पालथी लगाकर बैठे हों, आपके हाथ हल्के से जुड़े हों, आपकी आँखें हल्के से बंद हों और आपका शरीर एक स्वाभाविक, आरामदायक सीधी स्थिर मुद्रा में हो। नियमित रूप से एक ही मुद्रा को अपनाने पर ज़ोर दिया जाता है ताकि आसन भी ध्यान करने की आदत से जुड़ जाए। यदि आप पालथी लगाकर नहीं बैठ सकते हैं तो आप एक पैर के आगे दूसरा पैर रखकर कुर्सी पर बैठ सकते हैं।
शुद्धता –सत्य का मौलिक स्वरूप
आधुनिक संसार में शुद्धता को हमेशा सकारात्मक दृष्टि से नहीं देखा जाता है। वास्तव में, आप में से कुछ लोग शायद यह शब्द देखते ही पढ़ना बंद कर दें। मैं निवेदन करूँगा कि थोड़ा रुककर सोचें। हम जिस शुद्धता की बात यहाँ कर रहे हैं, उसमें कोई आलोचना नहीं है, कोई कड़ी नैतिकता या स्वयं के सदाचारी होने का दंभ नहीं है। यह शुद्धता की वही अवधारणा है जिसके बारे में हम शुद्ध खाना खाने, शुद्ध पानी पीने, शुद्ध पानी से नहाने की बात करते समय कहते हैं। जब हम अपना ध्यान उच्चतम पर लगाते हैं तब उसकी शुद्धता हमें उसके गुण का अनुकरण करने के लिए प्रेरित करती है। पहले नियम की अपनी व्याख्या में बाबूजी हमें बताते हैं, “शुद्धता का सिद्धांत इस विचार पर आधारित है कि जिस शुद्ध अस्तित्व में हमें प्रवेश करना है, वह समस्त मलिनताओं और दोषों से मुक्त है एवं पूर्णरूपेण शुद्ध है।” वे यह भी कहते हैं, “हमारा ध्यान जब उस उच्चतम स्तर की शुद्धता को पाने की ओर निर्देशित होता है तब हम सभी बाहरी तौर-तरीकों में इसकी नकल करना शुरू करते हैं, विशेषकर शरीर की सफ़ाई पर ध्यान देकर।”
इस प्रकार हम बाह्य स्वच्छता पर विशेष ध्यान देकर, शुद्धता की भावना पैदा करके स्वयं को ध्यान के लिए तैयार करते हैं। लेकिन मन की शुद्धता के बारे में क्या किया जाए? केवल शरीर पर ध्यान देना ही पर्याप्त नहीं है। यदि आवश्यक हो तो हम ध्यान करने से पहले कुछ मिनट के लिए हार्टफुलनेस सफ़ाई कर सकते हैं क्योंकि यह मन की अशुद्धियों को निकाल देगी। बाबूजी समझाते हैं कि शुद्धता की यह भावना ही हमारे मार्ग को और अधिक सुगम बनाने की ताकत बन जाती है ताकि हम ऊँचे से ऊँचे स्तर पर पहुँच पाएँ। इस प्रकार, शुद्धता हमारे यौगिक लक्ष्य को प्राप्त करने में हमारी सहायता करती है। हार्टफुलनेस परंपरा में जब प्राणाहुति की सूक्ष्म शक्ति से तंत्र को शुद्ध किया जाता है तब मन की नीचे की ओर जाने वाली प्रवृत्तियों को ऊपर की ओर मोड़ दिया जाता है। इससे हृदय में केंद्र या स्रोत तक पहुँचने के लिए तड़प पैदा होने लगती है।
अभ्यास की आदत बनाने के दृष्टिकोण से शरीर और मन को शुद्ध करने से हम ध्यान के लिए तैयार होते हैं और इससे प्रक्रिया सुगम हो जाती है।
इन सभी अवधारणाओं को एक साथ रखते हुए बाबूजी का नियम 1 इस प्रकार है –
नियम 1 -
प्रातः सूर्योदय से पहले उठें। अपनी प्रार्थना और अपना ध्यान निश्चित समय पर आरंभ करें और यथासंभव सूर्योदय से पहले समाप्त कर लें। ध्यान के लिए एक अलग जगह और बैठने का स्थान नियत कर लें। जहाँ तक संभव हो एक ही आसन में बैठने की आदत डालें। शारीरिक और मानसिक शुद्धता का विशेष ध्यान रखें।
प्रथम नियम पर विचार
समय, स्थान, आसन और शुद्धता - ये चारों तत्व एक साथ प्रतिदिन सुबह ध्यान करने की आदत में सहयोग देते हैं। हम हर काम अपनी आदत के अनुसार करते हैं। जब हम एक आदत बना लेते हैं तो यह हमारे अवचेतन मन में चली जाती है और वह स्वचालित बन जाती है। फिर हमें सचेत रूप से उसे करने का प्रयास नहीं करना पड़ता है। तब शरीर माँसपेशियों की स्मृति जैसी जैवभौतिक (biophysical) प्रक्रियाओं के माध्यम से बातों को याद रखता है और बिना प्रयास के कार्य करता है। इसके उदाहरण हैं गाड़ी चलाना, साईकिल चलाना और तैराकी। हम पुनरावृत्ति से आदत बनाते हैं। पुनरावृत्ति द्वारा तंत्रिका तंत्र (neural networks) एक ही पैटर्न या प्रतिरूप में जुड़ते हैं और आदत बनाते हैं। समय, स्थान और आसन इसी प्रतिरूप का हिस्सा बन जाते हैं। इसके विपरीत, यदि हम हर दिन समय, स्थान और मुद्रा को बदलते रहें तो आदत बनाना असंभव हो जाता है। एक दैनिक आदत की बजाय यह एक दैनिक संघर्ष बन जाता है।
शुद्धता एक दृष्टिकोण, एक भावना और एक गुण है। इसलिए जब हम शारीरिक और मानसिक रूप से अपनी सफ़ाई करके ध्यान की तैयारी करते हैं तब इससे एक आदतन प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है, ठीक वैसे ही जैसे एक धूम्रपान करने वाला व्यक्ति हवा में सिगरेट के धुएँ को सूँघते ही सिगरेट पाने की कोशिश करता है।
सीधे बैठकर ध्यान करना प्राचीन काल से ही बहुत लाभप्रद बताया गया है क्योंकि इस अवस्था में बैठने से दिव्य कृपा का प्रवाह अभ्यासी में सीधे उतरता है।
मेरे अनुभव में, सुबह के ध्यान की तैयारी पिछली शाम को सफ़ाई के साथ शुरू हो जाती है। याद कीजिए कि हमने आध्यात्मिक अभ्यास के लिए दिन में दो शुभ घड़ियों के बारे में चर्चा की थी - एक शाम की और दूसरी सुबह की। मैं शाम 6 बजे से रात्रि 9 बजे तक और सुबह 3 बजे से 6 बजे तक के समय को आध्यात्मिक अभ्यास के लिए आदर्श समय मानता हूँ। यदि हम रात 10 बजे से पहले सो जाएँ तो हमारे लिए आठ घंटे की आरामदायक नींद लेकर ध्यान के लिए सुबह 6 बजे से पहले जागना संभव है। इस तरह से प्रकृति के 24-घंटे के शुभ चक्र से जुड़ने में निश्चित ही सफलता मिलती है।
सुबह के ध्यान की तैयारी पर पुनः बात करते हैं। शाम की सफ़ाई और रात्रि प्रार्थना के पूरक अभ्यास एक मनोभाव और आंतरिक अवस्था बना देते हैं। सफ़ाई की प्रक्रिया सभी अशुद्धियों और जटिलताओं को हमारे शरीर से निकाल देती है और प्रार्थना स्रोत के साथ हमारे जीवंत संपर्क को फिर से स्थापित करती है ताकि यह नींद के दौरान जारी रहे। सोने जाने से पहले, यदि आप सूक्ष्म रूप से सुझाव दें कि आप सुबह के ध्यान के लिए रात भर तैयार हो रहे हैं तो आप सुबह तरोताज़ा उठने पर बहुत खुश होंगे और आसानी से ध्यान में लीन हो जाएँगे।
यह पहला नियम एक अच्छे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। अभ्यास के बिना वास्तविक प्रगति की कोई संभावना नहीं होती। इसलिए, अभ्यास को दैनिक आदत बनाना महत्वपूर्ण है। आदत बनाने के लिए चार आवश्यक तत्व हैं - एक निश्चित समय, संभव हो तो सूर्योदय से पहले, एक नियत स्थान, एक स्थिर मुद्रा तथा मन और शरीर की शुद्धता।
अभ्यास को दैनिक आदत बनाना महत्वपूर्ण है। आदत बनाने के लिए चार आवश्यक तत्व हैं - एक निश्चित समय, संभव हो तो सूर्योदय से पहले, एक नियत स्थान, एक स्थिर मुद्रा तथा मन और शरीर की शुद्धता।
इसे देखते हुए आप अपना मूल्याँकन करें - क्या आप ध्यान के लिए स्वयं को बेहतर तरीके से तैयार कर सकते हैं? इस पर काम करने के लिए आपको क्या प्रोत्साहित या प्रेरित करेगा? इसका सबसे लोकप्रिय उत्तर आत्म-अनुशासन है। आत्म-अनुशासन को क्या प्रेरित करता है? निश्चय ही यह इच्छाशक्ति है। लेकिन यह प्रक्रिया कब प्रयासरहित बन जाती है जिसमें इच्छाशक्ति की आवश्यकता ही नहीं रहती? यदि आप इस पर विचार करें तो आप जल्द ही देखेंगे कि यह तब होता है जब हममें दिलचस्पी और उत्साह होता है। क्या एक छोटे बच्चे को आइसक्रीम खाने के लिए इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है? ‘उत्साह’ का अंग्रेज़ी अनुवाद एन्थूज़ीऐज़म शब्द ग्रीक भाषा का शब्द एन्थूज़ीऐज़्मौस से आया है जिसका अर्थ है ‘ईश्वर से प्रेरित होना या उससे उन्मत्त होना।’ प्रार्थना के माध्यम से दिव्य अर्थात् स्रोत से जुड़कर हमारा उत्साह स्वाभाविक रूप से अपने आप ही बढ़ता जाता है ताकि साथ-साथ ध्यान में हमारी दिलचस्पी भी बढ़ती जाए।
प्रार्थना हमें कहाँ ले जाती है? हमें दूर तक देखने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह स्थान हमारे भीतर, हमारे हृदय के भीतर है। हृदय का मार्ग ही प्रेम का मार्ग है। सब कुछ प्रेम से ही ऊर्जा प्राप्त करता है।
और प्रेम का वह स्रोत क्या है जिसे हम अपने हृदय में महसूस करते हैं? मैं आपको इस प्रश्न के साथ छोड़ता हूँ। यह कुछ ऐसा है जिसे आपको स्वयं ही खोजना होगा और जब आप इसे पा लेंगे तब आपके पास सब कुछ होगा।