क्रिस्टियाना दाइखमान एसोसिएशन फ़ॉर प्री एंड पेरीनेटल सायकोलॉजी एंड हेल्थ (APPPAH) की शिक्षण निदेशिका हैं। वहाँ वे विशेषज्ञों एवं अभिभावकों, दोनों को दुनिया में एक नए जीवन का स्वागत करने के लिए सुखवाह वातावरण बनाना सिखाती हैं। वे अमेरिका में वर्जिनिया के शार्लोट्सविल में रहती हैं। बहुविषयक दृष्टिकोण होने के कारण क्रिस्टियाना अपनी समग्र कार्य-प्रणाली में क्रेनियोसेक्रल थेरेपी (हाथों के हल्के दबाव से दर्द दूर करने की तकनीक), मालिश और प्रसव पूर्व व प्रसवकालीन मनोविज्ञान का उपयोग करती हैं। उनके काम में एक अनोखे तरीके से विज्ञान और अध्यात्म दोनों सम्मिलित हैं।
साक्षात्कार के इस दूसरे भाग में भी क्रिस्टियाना अपने अनुभव डॉ. स्नेहल देशपांडे, जो एक विकासात्मक चिकित्सक व हार्टफुलनेस फ़ैमिली कनेक्ट प्रोग्राम की निदेशिका हैं, के साथ साझा कर रही हैं। इसमें प्रसव-आघात और प्रासविक प्रक्रिया पर उनकी सारगर्भित बातचीत प्रस्तुत की जा रही है।
प्र. - क्रिस्टियाना, माँ और नवजात शिशु के मध्य जुड़ाव बढ़ाने की कोशिश में उन दोनों में पी.टी.एस.डी. (PTSD या पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर) के संकेतों को हम किस प्रकार पहचान सकते हैं? हो सकता है कि माँ और शिशु दोनों इसका अनुभव कर रहे हों लेकिन उन्हें इस बात का एहसास न हो। अक्सर यह जुड़ाव टूटने से संबंधित समस्या होती है जब माँ व्याकुलता का अनुभव करती है जिसका कारण वह समझ नहीं पाती। पी.टी.एस.डी. (PTSD) के प्रभाव किस तरह प्रकट होते हैं और महसूस किए जा सकते हैं, विशेषकर जब उनका जुड़ाव टूट हो रहा हो यानी गर्भनाल काटी जा रही हो?
शिशु अपने शरीर के माध्यम से हमसे संवाद करते हैं। वे रोकर हमें बताते हैं। और मैंने हमेशा देखा है कि लोग इस बात को समझ नहीं पाते कि नवजात शिशु भी सचेत और संवेदनशील होते हैं तथा उनमें भी भावनाएँ होती हैं। हो सकता है कि वे भावनाएँ एकदम बुनियादी स्तर की हों परंतु वे बड़ी महत्वपूर्ण भावनाएँ होती हैं। जैसे क्या मैं सुरक्षित हूँ? क्या मुझे प्यार किया जाता है? क्या मुझे अपनी ज़रूरतें पूरी करने का अधिकार है और क्या मेरी देखभाल करने के लिए कोई है? क्या मुझे सहारा प्राप्त करने का अधिकार है? और समाज यह समझता है कि शिशु में कोई समझ नहीं होती। हमारी तेज़ गति की ज़िंदगी का मानव विकास की शुचिता के साथ कोई तालमेल नहीं है। इसलिए सबसे जुड़ने के लिए पहले स्वयं से जुड़ें जिसके लिए माइंडफुलनेस का अभ्यास करें, मन-शरीर से जुड़े अभ्यास करें और अपने जीवन की तीव्र गति को कम करें।
उस आघात से उन्हें उबरने में समय लगता है और वे इस बात को किसी के साथ साझा करना चाहते हैं।
साँस लेना सबसे आसान काम है लेकिन हम साँस भी सजगता से नहीं लेते। जब हम सजग होकर साँस लेते हैं तब सिर्फ़ तीन गहरी साँसें भी पूरे तंत्रिका तंत्र में सुधार ला सकती हैं। एक माँ होने के नाते जब आप थोड़ा व्याकुल महसूस कर रही हों तो अपने शिशु को भी इसका पता चलने दें मानो वह कोई वयस्क व्यक्ति हो। आप यह मानकर बात करें कि वह आपकी बात को समझता है क्योंकि वह वास्तव में समझता है। आप उससे कहें, “मैं अभी परेशान हूँ लेकिन यह तुम्हारी गलती नहीं है। यह मेरी निजी भावनाएँ हैं, तुम इन्हें जाने दो” जब आप ऐसी दोतरफ़ा बातचीत अपने शिशु के साथ करती हैं तब चाहे वह आपके गर्भ में हो या जन्म ले चुका हो, बहुत सारी व्याकुलता कम हो जाती है। आप जान जाती हैं कि आपका शिशु आपको समझता है और सच में आपको सिर्फ़ प्यार करना चाहता है।
इस बारे में बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है कि शिशु किस प्रकार से अपनी बात कहते हैं और उनके रोने का क्या अर्थ है। शिशुओं की विभिन्न आवश्यकताओं के लिए भिन्न-भिन्न तरह का रोना होता है। माताएँ धीरे-धीरे समझने लगती हैं कि यह रोना किसलिए है। आमतौर पर यदि शिशु की शारीरिक आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं – आपने उसे खाना खिला दिया, उसका डायपर बदल दिया, वह आरामदायक कपड़ों में हैं – और फिर भी वह रो रहा है तो समझो उसे कुछ भावनात्मक कष्ट हो रहा है। ऐसे में शिशु की भावनात्मक ज़रूरतों को पूरा करना होगा। उनके पास कहने के लिए एक कहानी है। मैं ऐसे एक दिन की कल्पना करती हूँ जब हमारी दुनिया ऐसी होगी जिसमें माताएँ इस बात को समझ सकेंगी कि जन्म का कितना महत्व है और यह जो कहानी गर्भावस्था से शुरू हुई है, वह शिशु के जन्म के बाद भी जारी रहती हैं। उस आघात से उन्हें उबरने में समय लगता है और वे इस बात को किसी के साथ साझा करना चाहते हैं।
आपने पूछा कि हमें कैसे पता चलता है कि माताओं को प्रसव के पश्चात अवसाद या तनाव होता है। आपकी नींद पूरी नहीं होती, आप बहुत हताश महसूस करती हैं, आप व्याकुल होती हैं, आप गुस्से में रहती हैं, किसी से कोई बात नहीं करना चाहतीं या आप सिर्फ़ गायब हो जाना चाहती हैं - ये सब इस बात की ओर इशारा करते हैं कि आपको अधिक सहायता की आवश्यकता है। प्रसूति के बाद के समय में यही करना सबसे महत्वपूर्ण होता है। पुराने समय में पूरा गाँव ही प्रसूता की देखभाल में लग जाता था। उस समय उस नवजात की माँ के आस-पास महिलाओं का एक समूह होता था जो उसकी देखभाल करता था ताकि वह अपनी जीवन शक्ति, ‘ची’, को पुनः प्राप्त करने पर केंद्रित हो सके। तब वह अपने शिशु पर पूरा ध्यान दे सकती थी। उसके लिए खाना पकाने, साफ़-सफ़ाई करने और उसके शरीर को पुनः ऊर्जित करने के रीति-रिवाज़ों के लिए उसके आस-पास लोग उपस्थित होते थे। आज के समय में अधिकांशतः यह सब नहीं होता है। प्रसवोत्तर देखभाल अब बच्चे को कार में घर से डॉक्टर के क्लीनिक तक ले जाकर वज़न करवाने भर तक सीमित रह गई है। मेरी राय में तो डॉक्टरों को हमारे इन सबसे नाज़ुक लोगों की देखभाल के लिए उनके घर जाना चाहिए ताकि माताओं को प्रसव के पश्चात के पहले 40 दिनों तक अपने घर के आरामदायक वातावरण को छोड़कर बाहर न निकलना पड़े। प्रसवोपरांत के शुरुआती कुछ हफ़्तों में डॉक्टर से मिलने जाने की साधारण-सी यात्रा में भी बहुत कुछ गड़बड़ हो सकता है।
हमारी तेज़ गति की ज़िंदगी का मानव विकास की शुचिता के साथ कोई तालमेल नहीं है। इसलिए सबसे जुड़ने के लिए, पहले स्वयं से जुड़ें जिसके लिए माइंडफुलनेस का अभ्यास करें, मन-शरीर से जुड़े अभ्यास करें और अपने जीवन की तीव्र गति को कम करें।
प्र. - पहले के समय में हम शिशुओं का जिस तरह स्वागत करते थे वह बहुत खूबसूरत था और यह उन्हें महसूस कराता था कि वे वांछित हैं। आप उस परंपरा को जारी रखने की बात कह रही हैं जो वास्तव में उल्लेखनीय बात है। मेरे पास केन्डल-टैकेट के शोध से संबंधित एक प्रश्न है। आपके अनुसार उनके कार्य ने प्रसव आघात से संबंधित पी.टी.एस.डी. (PTSD) के लिए इलाज के तरीके की वर्तमान समझ को किस तरह प्रभावित किया है?
मैं कैथलीन केन्डल-टैकेट को बहुत पसंद करती हूँ। वे बहुत प्रतिभाशाली हैं! उन्होंने स्तनपान जैसी सामान्य बातों से महिलाओं को होने वाली परेशानियों के बारे में बताया है। उनके शोध द्वारा हमें यह समझने में मदद मिली कि जब कोई माँ स्तनपान कराने में असमर्थ रहती है या किसी कारण से माँ और शिशु के मध्य प्रारंभिक संबंध में बाधा आ जाती है तो इन लक्षणों के और भी कई दूरगामी प्रभाव होते हैं जो दोनों में ही दिखाई दे सकते हैं। कैथलीन को यह एहसास हुआ कि ये लक्षण पी.टी.एस.डी. (PTSD) से मिलते-जुलते हैं। इससे महिलाओं को अपने प्रसव अनुभवों की याद ताज़ा हो सकती है, वे पसीने में तर-बतर हो सकती हैं और उनमें थॉयराइड की समस्या उभर सकती है जो कि प्रसवोत्तर महिलाओं में एक आम बात है। उनमें घबराहट, नींद पूरी न हो पाना व अन्य लक्षण भी दिखाई दे सकते हैं।
कैथलीन ने पाया कि अनेक माताएँ इन लक्षणों का बिना कोई सहायता मिले सामना करती हैं और अक्सर इन संघर्षों को किसी को बता नहीं पातीं क्योंकि समाज अपेक्षा करता है कि उन्हें इस सबसे स्वयं निपटना चाहिए। एकल परिवार और एकल माँ के चलन होने से प्रसूताओं के लिए उचित सहायता उपलब्ध नहीं हो पाती।
आजकल, महिलाएँ पूर्णकालिक नौकरी, विवाह और मातृत्व की ज़िम्मेदारियाँ स्वयं संभालती हैं जो बहुत बड़ी ज़िम्मेदारियाँ हैं। लेकिन वे यह सब पहले समय में मिलने वाली पूरे गाँव की सहायता के बिना कर रही हैं। वैज्ञानिक साक्ष्य द्वारा यह देखा गया है कि यह तनाव हानिकारक है और गर्भावस्था के दौरान घातक हो सकता है। इससे मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ, मोटापा व अन्य स्वास्थ्य समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। कैथलीन केन्डल-टैकेट ने इस बात पर से पर्दा उठाने में मदद की है। उन्होंने वैज्ञानिक समुदाय और मनोवैज्ञानिकों को यह दिखाया है कि हमारी सबसे अधिक नाज़ुक आबादी – हमारे शिशु – एक ऐसी दुनिया में आ रहे हैं जिसमें उनकी माताओं को बहुत कम साहयता प्राप्त है और उनका तंत्रिकातंत्र अत्यधिक तनाव के बोझ से दबा हुआ है।
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मैं मानती हूँ कि यह आज की चुनौतियों से लड़ने का सर्वोत्तम तरीका है – अपने भीतर जाकर यह जानना कि हम वास्तव में क्या हैं और यह समझना कि हमारे लिए वास्तव में क्या महत्वपूर्ण है।
प्र. - यह स्पष्ट है कि हमें समुदाय बनाना शुरू करने की ज़रूरत है क्योंकि जैसी कि कहावत है, “एक बच्चे का पालन-पोषण पूरा गाँव करता है।” हमें इन सुंदर आत्माओं की देखभाल करने की और अपनी मानसिकता व समुदाय में एक परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। ऐसे में उपचार के विभिन्न तरीके, जैसे क्रेनियोसेक्रल थेरेपी, सोमेटिक एक्सपीरियंस (दैहिक अनुभव) और शरीर-मन-आत्मा की जागरूकता, किस प्रकार से प्रसव के आघात से उबरने में सहायता करेंगे? और क्या आपको लगता है कि प्रसव-पूर्व देखभाल में हार्टफुलनेस अभ्यासों को जोड़ने से प्रसव आघात को रोकने में मदद मिल सकती है?
मैं मानती हूँ कि लोगों को गर्भधारण की योजना बनाने से पहले ही अपनी क्रेनियोसेक्रल थेरेपी (हाथों के हल्के दबाव से आराम पहुँचाने की तकनीक) प्रारंभ कर देनी चाहिए। यह तंत्रिका तंत्र को साफ़ करती है और जिसे हम ‘शून्यता की अवस्था’ यानी मौलिक अवस्था कहते हैं, उस अवस्था में ले आती है। यह हार्टफुलनेस अभ्यासों के समान ही है। यदि हम लोगों को यह सिखाते हैं कि अपने पूरे दिन पर किस तरह चिंतन-मनन करें और प्राणायाम जैसे मन-शरीर संबंधी व्यायामों को करने के लिए नियमित विराम लें तो वे अपने तंत्रिका तंत्र को धीमा करके उसे अपनी प्राकृतिक लय के साथ तालमेल में ला सकते हैं। क्रेनियोसेक्रल थेरेपी एक उदाहरण है लेकिन अब हमारे पास बायोफ़ीडबैक (इसमें इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल करके, अचेतन प्रक्रियाओं की जानकारी को मापा जाता है और चेतन मन तक पहुँचाया जाता है) और अनेक मनोदैहिक (सायकोसोमेटिक) व ऊर्जा संबंधी साधन हैं जो लोगों को अधिक जागरूक अवस्थाओं में प्रवेश करने में मदद करते हैं, जिनमें वे ग्रहणशील व जिज्ञासु होते हैं और अपने हृदय से जुड़े रहते हैं।
यह जीवन का एक रोमांचक समय है, क्योंकि ‘क्वांटम भौतिकी’ चिकित्सीय तरीकों को प्रभावित कर रही है और हम सबको अपने आंतरिक ‘स्व’ की ओर लौटने के साधन उपलब्ध करा रही है। मैं मानती हूँ कि यह आज की चुनौतियों से लड़ने का सर्वोत्तम तरीका है – अपने भीतर जाकर यह जानना कि हम वास्तव में क्या हैं और यह समझना कि हमारे लिए वास्तव में क्या महत्वपूर्ण है। जितना अधिक हम यह कर पाएँगे उतने ही अधिक हम रचनात्मक और दूसरों के काम आने वाले बनेंगे। मैं हार्टफुलनेस को इसमें जोड़ना चाहूँगी क्योंकि इसे कोई भी कर सकता है और यह सबके लिए दैनिक अभ्यास बन सकता है। अमेरिका में, हॉर्टमैथ इंस्टीट्यूट हमें मस्तिष्क-हृदय का सामंजस्य बनाने के लाभ बताता है और हार्टफुलनेस में मन, शरीर, विशाल संसार और सूक्ष्म संसार को जोड़कर अपने भीतर जाकर हम उन जवाबों को ढूँढते हैं जो पहले से ही हमारे अंदर विद्यमान हैं।
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क्रिश्चिआना दाइखमान
क्रिश्चिआना ‘एसोसिएशन फ़ॉर प्री एंड पेरिनेटल साइकोलॉजी एंड हेल्थ’ में शिक्षा निदेशक हैं। बहु-विषयक दृष्ट... और पढ़ें