दो भाइयों के बारे में यह कहानी मुंशी प्रेमचंद (1880-1936) द्वारा लिखी गई है। मुंशीजी भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय लेखकों और समाजसुधार प्रेरकों में से एक थे। उन्होंने कमज़ोर वर्ग और वंचित समाज के शोषण पर अनेक मार्मिक कहानियाँ लिखी हैं। सारा बब्बर ने इस कहानी में एक रोचक गतिविधि भी जोड़ दी है।

मेरे बड़े भैया

मेरे भाई साहब मुझसे पाँच साल बड़े थे, लेकिन तीन दरजे आगे। उन्होंने भी उसी उम्र में पढ़ना शुरू किया था जब मैंने शुरू किया। लेकिन तालीम जैसे महत्व के मामले में वह जल्दीबाज़ी से काम लेना पसंद न करते थे। एक साल का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। उन्हें मेरी तम्बीह और निगरानी का पूरा जन्मसिद्ध अधिकार था। और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्म को कानून समझूँ। 

वह स्वभाव से बड़े अध्ययनशील थे। मेरा जी पढ़ने में बिलकुल न लगता था। एक घंटा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ था। मौका पाते ही हॉस्टल से निकलकर मैदान में आ जाता और कभी कंकरियाँ उछालता, कभी कागज़ की तितलियाँ उड़ाता और कहीं कोई साथी मिल गया तो पूछना ही क्या! कभी चारदीवारी पर चढ़कर नीचे कूद रहे हैं, कभी फाटक पर वार, उसे आगे-पीछे चलाते हुए मोटरकार का आनंद उठा रहे हैं। लेकिन कमरे में आते ही भाई साहब का रौद्र रूप देखकर प्राण सूख जाते। उनका पहला सवाल होता- “कहाँ थे?” हमेशा यही सवाल, इसी ध्वनि में पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवल मौन था। न जाने मुँह से यह बात क्यों न निकलती कि ज़रा बाहर खेल रहा था। मेरा मौन कह देता था कि मुझे अपना अपराध स्वीकार है। 

भाई साहब ने मुझ से कहा कि इस तरह अंग्रेज़ी पढ़ोगे तो ज़िंदगी भर पढ़ते रहोगे और एक हर्फ़ न आएगा। अंग्रेज़ी पढ़ना कोई हँसी-खेल नहीं है कि जो चाहे पढ़ ले, नहीं तो ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सभी अंग्रेज़ी के विद्वान हो जाते। मैं इरादा करता कि आगे से खूब जी लगाकर पढ़ूँगा। चटपट एक टाइम-टेबिल बना डालता। मगर टाइम-टेबिल बना लेना एक बात है, उस पर अमल करना दूसरी बात। पहले ही दिन से उसकी अवहेलना शुरू हो जाती। मैदान की वह सुखद हरियाली, हवा के वे हलके-हलके झोंके, फुटबाल की उछल-कूद, कबड्डी के वे दाँव-घात, वॉली-बाल की वह तेज़ी और फुरती मुझे अज्ञात और अनिवार्य रूप से खींच ले जाती और वहाँ जाते ही मैं सब कुछ भूल जाता।

सालाना इम्तहान हुआ। भाई साहब फ़ेल हो गए, मैं पास हो गया और दरजे में प्रथम आया। मेरे और उनके बीच केवल दो साल का अंतर रह गया। जी में आया, भाई साहब को आड़े हाथों लूँ लेकिन वह इतने दु:खी और उदास थे कि मुझे उनसे दिली हमदर्दी हुई और उनके घाव पर नमक छिड़कने का विचार ही लज्जास्पद जान पड़ा। हाँ, अब मुझे अपने ऊपर कुछ अभिमान हुआ और आत्माभिमान भी बढ़ा। भाई साहब का वह रोब मुझ पर न रहा। आज़ादी से खेलकूद में शरीक होने लगा। मेरे रंग-ढंग से साफ़ ज़ाहिर होता था कि भाई साहब का वह आतंक अब मुझ पर नहीं है। भाई साहब ने इसे भाँप लिया। एक दिन मुझ पर टूट पड़े - देखता हूँ, इस साल पास हो गए और दरजे में अव्वल आ गए तो तुम्हें दिमाग हो गया है। मगर भाईजान, घमंड तो 

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बड़े-बड़े का नहीं रहा, तुम्हारी क्या हस्ती है। इतिहास में रावण का हाल तो पढ़ा ही होगा। महज़ इम्तहान पास कर लेना कोई चीज़ नहीं। असल चीज़ है बुद्धि का विकास। जो कुछ पढ़ो, उसका अभिप्राय समझो। यह समझ लो कि तुम अपनी मेहनत से नहीं पास हुए, अंधे के हाथ बटेर लग गई। मगर बटेर केवल एक बार हाथ लग सकती है, बार-बार नहीं। मेरे दरजे में आओगे तो दाँतो पसीना आएगा जब अलजबरा और जामेट्री के लोहे के चने चबाने पड़ेंगे और इंगलिस्तान का इतिहास पढ़ना पड़ेगा। बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं। आठ-आठ हेनरी गुज़रे हैं। कौन-सा कांड किस हेनरी के समय हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो? 

स्कूल का समय निकट था, ईश्वर जाने यह उपदेश-माला कब समाप्त होगी। फिर सालाना इम्तहान हुआ और कुछ ऐसा संयोग हुआ कि मैं फिर पास हुआ और भाई साहब फिर फ़ेल हो गए। मैंने बहुत मेहनत न की पर न जाने कैसे दरजे में अव्वल आ गया। मुझे खुद अचरज हुआ। भाई साहब ने प्राणांतक परिश्रम किया था। लेकिन विधि की बात कौन टाले?

मेरे और भाई साहब के बीच में अब केवल एक दरजे का अंतर और रह गया। मेरे मन में एक कुटिल भावना उदय हुई कि कहीं भाई साहब एक साल और फ़ेल हो जाएँ तो मैं उनके बराबर हो जाऊँ। फिर वह किस आधार पर मेरी फजीहत कर सकेंगे? लेकिन मैंने इस विचार को दिल से बलपूर्वक निकाल डाला। अबकी भाई साहब बहुत-कुछ नर्म पड़ गए थे। मेरी स्वच्छंदता भी बढ़ी। 

मुझे कनकौए उड़ाने का नया शौक पैदा हो गया था और अब सारा समय पतंगबाजी ही की भेंट होता था। फिर भी मैं भाई साहब का अदब करता था और उनकी नज़र बचाकर कनकौए उड़ाता था। मांझा देना, कन्ने बाँधना, पतंग टूर्नामेंट की तैयारियाँ, आदि समस्याएँ अब गुप्त रूप से हल की जाती थीं। 

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भाई साहब को यह संदेह न करने देना चाहता था कि उनका सम्मान और लिहाज़ मेरी नज़रों में कम हो गया है।

एक दिन संध्या समय होस्टल से दूर मैं एक कनकौआ लूटने बेतहाशा दौड़ा जा रहा था। आँखे आसमान की ओर थीं और मन उस आकाशगामी पथिक की ओर जो मंद गति से झूमता पतन की ओर चला जा रहा था। सहसा भाई साहब से मेरी मुठभेड़ हो गई जो शायद बाज़ार से लौट रहे थे। उन्होंने वहीं मेरा हाथ पकड़ लिया और उग्रभाव से बोले - इन बाज़ारी लौंडो के साथ धेले के कनकौए के लिए दौड़ते तुम्हें शर्म नहीं आती? तुम्हें इसका भी कुछ लिहाज़ नहीं कि अब नीची जमात में नहीं हो, बल्कि आठवीं जमात में आ गए हो और मुझसे केवल एक दरजा नीचे हो। आखिर आदमी को कुछ तो अपनी पोज़ीशन का ख्याल करना चाहिए। एक ज़माना था कि लोग आठवाँ दरजा पास करके नायब तहसीलदार हो जाते थे। मैं कितने ही मिड़लचियों को जानता हूँ जो आज अव्वल दरजे के डिप्टी मजिस्ट्रेट या सुपरिटेंडेंट हैं। तुम ज़हीन हो, इसमें शक नहीं - लेकिन वह ज़ेहन किस काम का जो हमारे आत्मगौरव की हत्या कर डाले। मैं तुमसे पाँच साल बड़ा हूँ और हमेशा रहूँगा। मुझे दुनिया का और ज़िंदगी का जो तजुर्बा है, तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते। समझ किताबें पढ़ने से नहीं आती है। हमारी अम्मा ने कोई दरजा पास नहीं किया और दादा भी शायद पाँचवी जमात के आगे नहीं गए, लेकिन हम दोनों चाहे सारी दुनिया की विधा पढ़ लें, अम्मा और दादा को हमें समझाने और सुधारने का अधिकार हमेशा रहेगा। केवल इसलिए नहीं कि वे हमारे जन्मदाता हैं बल्कि इसलिए कि उन्हें दुनिया का हमसे ज़्यादा तजुर्बा है और रहेगा। 

दैव न करें, आज मैं बीमार हो आऊँ तो तुम्हारे हाथ-पाँव फूल जाएँगे। दादा को तार देने के सिवा तुम्हें और कुछ न सूझेगा। लेकिन तुम्हारी जगह पर दादा हों तो किसी को तार न दें, न घबराएँ, न बदहवास हों। पहले खुद मरज पहचानकर इलाज करेंगे, उसमें सफल न हुए तो किसी डाक्टर को बुलाएँगे। अपने हेडमास्टर साहब ही को देखो। एम.ए. हैं कि नहीं और यहाँ के एम.ए. नहीं, ऑक्सफ़ोर्ड के। एक हज़ार रूपये पाते हैं लेकिन उनके घर इंतज़ाम कौन करता है? उनकी बूढ़ी माँ। जब से उनकी माताजी ने प्रबंध अपने हाथ में ले लिया है, जैसे घर में लक्ष्मी आ गई है। तो भाईजान, यह ज़रूर दिल से निकाल डालो कि तुम मेरे समीप आ गए हो और अब स्वतंत्र हो। मेरे देखते तुम बेराह नहीं चल पाओगे। अगर तुम यों न मानोगे तो मैं (थप्पड़ दिखाकर) इसका प्रयोग भी कर सकता हूँ। मैं उनकी इस नई युक्ति से नतमस्तक हो गया। मुझे आज सचमुच अपनी लघुता का अनुभव हुआ और भाई साहब के प्रति मेरे मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई। मैंने सजल आँखों से कहा - हरगिज़ नहीं। आप जो कुछ फ़रमा रहे हैं, वह बिलकुल सच है और आपको कहने का अधिकार है।

भाई साहब ने मुझे गले लगा लिया संयोग से उसी वक्त एक कटा हुआ कनकौआ हमारे ऊपर से गुज़रा। उसकी डोर लटक रही थी। लड़कों का एक गोल पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था। भाई साहब लंबे हैं ही, उछलकर उसकी डोर पकड़ ली और बेतहाशा हॉस्टल की तरफ़ दौड़े। मैं पीछे-पीछे दौड़ रहा था।

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तं महोत्सव 

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में पतंगें उड़ाना एक त्योहार का हिस्सा है जो 14 जनवरी (लीप वर्षों में 15 जनवरी) को आता है। इसे उत्तर भारत में मकर संक्रांति, गुजरात में उत्तरायण, असम में बिहु, तमिलनाडु में पोंगल और पंजाब में लोहड़ी के नाम से जाना जाता है।

दक्षिणायन के अंत को दर्शाती यह संक्रांति हर साल एक ही तारीख को पड़ती है जो इस तथ्य का भी द्योतक है कि अब दिन बड़े और रातें छोटी होने वाली हैं। 

मकर संक्रांति के आसपास सर्दियों की फसल की कटाई होती है और इसलिए यह हर्ष और उल्लास का अवसर होता है। अच्छी फसल एक उत्सव का मौका और सभी के लिए भोजन लेकर आती है। 

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कलाकृति - लक्ष्मी गद्दाम


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सारा बब्बर

सारा एक कहानीकार, मोंटेसरी सलाहकार और बच्चों की एक पुस्तक की लेखिका हैं। वे एक प्रकृतिवादी भी हैं और बाल्यावस्था में पारिस्थितिकी चेतना के विषय में डॉक्टरेट कर रही हैं। वे आठ वर्षों... और पढ़ें

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