वन विभाग से सेवानिवृत्त अधिकारी, डॉ. वी. रमाकांत, ने अपने वयस्क जीवन का अधिकांश समय जंगलों में बिताया है। वे वहीं रहे, वहीं काम किया और अपने परिवार का भरण-पोषण किया। अब वे औषधीय पेड़-पौधों के बारे में अपने असीम ज्ञान और उनसे संबंधित रुचिकर कहानियों को वर्ष 2025 में एक बार फिर हमारी पत्रिका में प्रस्तुत कर रहे हैं। इस माह वे हमारे लिए अपने विशिष्ट अंदाज़ में सप्तपर्णी वृक्ष से जुड़े विज्ञान, पारंपरिक ज्ञान और लोककथाओं से बनी एक कहानी लेकर आए हैं।

सप्तपर्णी एक विशाल, सदाबहार वृक्ष है जो लगभग 120 फुट की ऊँचाई तक बढ़ सकता है। कहा जाता है कि केरल के पालक्काड़ शहर और तहसील का नाम इसी वृक्ष से पड़ा है - ‘पाला’ वहाँ के वृक्ष (सप्तपर्णी) हैं और ‘कडु’ का अर्थ है, जंगल। सप्तपर्णी यक्षी-पाल्य के नाम से भी जाना जाता है, यानी यक्षिणी का वृक्ष। यक्ष और यक्षी प्रकृति-आत्माएँ हैं जिन्हें सामान्यतः धरती पर विचरण करने वाले उदार आकाशीय प्राणी माना जाता है। लेकिन उनका दुष्टता से भरा विकृत और भयानक रूप भी होता है जो लोगों के सामने अत्यंत सुंदर और मनमोहक स्त्री के रूप में प्रकट हो सकता है।
दक्षिण भारत के कई प्रांतों में यह माना जाता है कि सप्तपर्णी वृक्ष में यक्षी का वास होता है। यदि गाँव के किसी पुरुष की सेहत खराब और वज़न अचानक कम होने लगता है तो गाँव के बड़े-बुज़ुर्गों के मन में सबसे पहले यही शंका आती है कि कहीं उसका किसी यक्षी के साथ संबंध तो नहीं है।
एक चेतावनी भरी कहानी -
एक लोककथा के अनुसार, एक ब्राह्मण काम से दूर के गाँव गया हुआ था। लौटते हुए उसे बहुत देर हो गई। सूर्यास्त का समय था और सूर्य की सुनहरी किरणें भी क्षितिज से विलीन होने लगी थीं। घर से दूर और अंधेरे से भयभीत होने के कारण ब्राह्मण तेज़ी से कदम बढ़ाने लगा। अचानक उसकी नज़र सफ़ेद साड़ी पहने हुए एक अत्यंत सुंदर युवती पर पड़ी जिसे देखकर उसे बहुत आश्चर्य हुआ। उसके लंबे बाल सप्तपर्णी के सुगंधित फूलों से सुसज्जित थे।
उसे और भी अधिक आश्चर्य तब हुआ जब वह महिला स्वयं उसके पास आई। बड़ी ही मीठी आवाज़ में उसने ब्राह्मण से कहा कि उसे अपनी सहेली के घर से लौटने में बहुत देर हो गई और चूँकि अंधेरे से उसे बहुत डर लग रहा रहा था, इसलिए क्या वह थोड़ी ही दूरी पर स्थित उसके घर तक साथ चल सकेगा?
उसके अलौकिक सौंदर्य और मीठी आवाज़ से मंत्रमुग्ध ब्राह्मण सहर्ष ही उसके पीछे-पीछे नदी के किनारे स्थित उसके विशाल घर तक गया। तब तक पूरी तरह से अंधेरा छा चुका था। उस सुंदर युवती ने ब्राह्मण को उसके साथ रात बिताने के लिए कहा। सावधानी को ताक पर रखकर ब्राह्मण ने यह भी नहीं सोचा कि वह सुंदर युवती एक अलग-थलग घर में अकेली क्यूँ रहती थी। वह खुशी-खुशी उसकी बात मान गया। वह रात सच में उसकी एक यादगार रात बन गई।

उसके बाद से कामुक सुख भोग में डूबा ब्राह्मण दिन-रात उस युवती के साथ बिताने लगा। जैसे-जैसे दिन बीतने लगे ज़िंदगी में उसकी रुचि कम होती चली गई, यहाँ तक कि उसे खाने-पीने की भी सुध नहीं रही। धीरे-धीरे वह एक हड्डियों का ढाँचा बनकर रह गया और कुछ ही दिनों में उसकी मृत्य हो गई। कहा जाता है कि वह यक्षी अब सुनसान जगहों में अपने अगले शिकार की तलाश में है।
भारत के गाँवों में आज भी नवयुवकों को सप्तपर्णी वृक्ष के नीचे सोने से मना किया जाता है। वैसे भी, समझदारी इसी में है कि फूलों से लदे सप्तपर्णी की छाँव में न सोया जाए क्योंकि अत्यधिक मात्रा में मौजूद उसके पराग से स्वास्थ्य को हानि पहुँच सकती है।
वनस्पति शास्त्र से प्राप्त जानकारी -
भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिणी चीन, पापुआ न्यू गिनी और ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड प्रदेश में सप्तपर्णी के वृक्ष बहुत अधिक संख्या में पाए जाते हैं। इन पेड़ों को उनके धूसर-भूरे छाल से, जिसे कटाने पर दूधिया द्रव निकलता है और घुमावदार आकृति बनाते हुए चार से आठ चमकदार पत्तों के गुच्छों से आसानी से पहचाना जा सकता है।
इसके छोटे-छोटे हरे-सफ़ेद फूलों के कसकर बंधे गुच्छे बहुत ही सुगंधित होते हैं। इसके फल जोड़े में उगते हैं और पतली फलियों जैसे दिखते हैं।

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सप्तपर्णी को और भी कई नामों से जाना जाता है जैसे डेविल्स ट्री, डीटा बार्क ट्री, मिल्कवुड पाइन, चितवन और ब्लैकबोर्ड ट्री। एपोसाइनेसी (डॉगबेन) वृक्षों के परिवार से जुड़े सप्तपर्णी वृक्ष का लैटिन नाम है ‘एलस्टोनिया स्कॉलरिस’। 1950-60 के दशक में सप्तपर्णी के तने से स्लेटों का ढाँचा या फ्रेम बनाया जाता था। इन स्लेटों का इस्तेमाल छोटे बच्चे अक्षर-अभ्यास करने के लिए किया करते थे, जिस कारण से इस वृक्ष की प्रजाति का नाम ‘स्कॉलरिस’ हो गया।

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औषधीय उपयोग -
भारत में सप्तपर्णी पेड़ के कुछ भागों का उपयोग आयुर्वेद, सिद्ध, यूनानी और अन्य घरेलू उपचार प्रणालियों में मलेरिया, पीलिया, कैंसर, जठरांत्रीय बीमारियों के उपचार में किया जाता है। सप्तपर्णी के औषधीय उपयोगों का उल्लेख आचार्य भवमिश्रा द्वारा लिखित औषधीय पुस्तक ‘भावप्रकाश’ में है। इसके छाल से निकले कड़वे द्रव का उपयोग लंबे समय तक चलने वाले अतिसार, दस्त, दमा और बुखार के उपचार में किया जाता है। इस दूधिया द्रव का उपयोग घावों और फोड़ों के उपचार में भी किया जाता है। सप्तपर्णी के पत्तों का उपयोग बेरीबेरी, जलोदर यानी ड्रॉप्सी और लिवर में रक्त-संचयन के उपचार में भी किया जाता है।
चीन में इसके छाल और पत्तियों का उपयोग सिरदर्द, ज़ुकाम, श्वसन-शोथ (ब्रोंकाइटिस) और निमोनिया के उपचार में किया जाता है। ऑस्ट्रेलिया के आदिवासी इसकी छाल का उपयोग पेट दर्द और बुखार के उपचार में करते हैं।
अन्य उपयोग -
सप्तपर्णी की लकड़ी नरम, हल्की और बारीक गठन की होने के कारण बहुत ज़्यादा मज़बूत या टिकाऊ नहीं होती है। इसका उपयोग कभी-कभी खिलौने, छोटे-मोटे फ़र्नीचर या चाय रखने की पेटी बनाने में किया जाता है। इसका उपयोग प्लाईवुड और निम्न स्तर की माचिस की तीलियाँ बनाने में भी किया जाता है। छाल से निकलने वाले द्रव का उपयोग उच्चकोटी के च्यूइंग गम बनाने में किया जाता है (भानुप्रताप एवं अन्य, 2013)। इसके तने से रेशे भी निकाले जाते हैं, लेकिन प्लास्टिक के इस दौर में इन रेशों के लिए कोई विशेष माँग नहीं है। तने से निकलने वाले एक पीले रंग के डाई का उपयोग सूती कपड़ों को रंगने के लिए किया जाता है। इसके फूलों से सुगंधित तेल निकला जाता है।

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सप्तपर्णी के बारे में विज्ञान क्या जानता है?
मलेरिया से लेकर कैंसर तक की बीमारियों में उपयोग में आने वाले उसके औषधीय तत्वों के कारण विश्व भर के शोधकर्ता सप्तपर्णी की ओर ध्यान दे रहे हैं। यह एक बहुत ही बहुमूल्य औषधिक वृक्ष है क्योंकि इसमें जैवसक्रिय एल्कलॉइड भरपूर हैं। इसकी जड़ों, छाल, पत्तों, फूलों और फलों में करीब 70 अलग-अलग प्रकार के एल्कलॉइड पाए गए हैं। सप्तपर्णी से एक कड़वा मूल तत्व, दितेन जिसे ठोस नहीं बनाया जा सकता, को निकाला गया और शोध से इस बात की पुष्टि हुई कि यह पदार्थ बुखार के उपचार में उपयोगी है। पशुओं पर किए गए कई शोधों से पता चला है कि सप्तपर्णी में रोगाणुरोधी, दस्तरोधी, मलेरियारोधी, दमारोधी, कैंसररोधी, यकृतरक्षक गुण हैं और घावों को भरने की क्षमता है।

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कर्नाटक के तटवर्ती इलाकों और पश्चिमी घाटों में जुलाई महीने में आने वाली आषाढ़ अमावस्या के शुभ अवसर पर सप्तपर्णी वृक्ष से जुड़ी एक प्रथा है। प्रथानुसार, परिवार का मुखिया भोर से पहले वृक्ष के पास जाकर उसकी अनुमति लेकर उसकी छाल के कुछ टुकड़े तोड़ता है और उन्हें घर ले जाता है। घर की गृहणी फिर उस छाल को उबालकर एक काढ़ा बनाती है जिसे घर के सभी सदस्य थोड़ा-थोड़ा पीते हैं। इसका स्वाद बहुत खराब होता है, जो कुछ लोगों के अनुसार वर्षभर याद रहता है। माना जाता है कि इसे पीने से मलेरिया नहीं होता।
दिलचस्प बात यह है कि इसकी छाल का उपयोग ‘आयुष 64’ नामक व्यवसायिक उत्पादन में भी किया जाता है, जिसे राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम, भारत सरकार, डाबर इंडिया लिमिटेड कंपनी के साथ मिल कर बनाती है। इसे मलेरिया के उपचार में इस्तेमाल किया जाता है।
इस बहूपयोगी वृक्ष को जैन धर्म में भी मान्यता दी गई है। इसे दूसरे जैन तीर्थंकर, अजीतनाथ का पवित्र वृक्ष माना जाता है। और पहले गैर यूरोपीय नोबल पुरस्कार विजेता, श्री रवींद्रनाथ टैगोर, ने सप्तपर्णी वृक्ष को एक शुभ वृक्ष का दर्जा दिया था। उनके द्वारा स्थापित एक केंद्रीय महाविद्यालय, विश्व-भारती में उन्होंने एक परंपरा स्थापित की जिसमें हर स्नातक और स्नातकोत्तर विद्यार्थी को कुलाधिपति द्वारा सप्तपर्णी के कुछ पत्ते दिए जाते हैं। कुलाधिपति को ये पत्ते भारत के प्रधानमंत्री द्वारा दिए जाते हैं। हाल ही के वर्षों में, इन वृक्षों को अत्यधिक क्षति पहुँचने से बचाने के लिए, कुलाधिपति से उपकुलाधिपति सारे विद्यार्थियों की ओर से सप्तपर्णी के एक पत्ते को स्वीकार करता है।
औषधीय उद्योग में बहुत अधिक माँग होने के बावजूद सप्तपर्णी अपने प्राकृतिक आवासों में अच्छे से पनप रहा है। इसे सबसे कम चिंताजनक वृक्ष का दर्जा दिया गया है (IUCN 3.1)। यह वृक्ष बहुत जल्दी बढ़ता है और प्रदूषण का इस पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है।
संदर्भ -
अमित तोमर (2016)। अल्स्टोनिया स्कॉलरिस आर. ब्र. का भौगोलिक वितरण। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ बॉटनी स्टडीज़ 1(3)-01-02
महेंद्र एस. ख्याडिया, दीपक एम. कसोतेब और नित्यानंद पी. वैकोस (2014)। अल्स्टोनिया स्कॉलरिस (एल.) आर. ब्र. और अल्स्टोनिया मैक्रोफ़िला वॉल। पूर्व जी. डॉन - पारंपरिक उपयोग, फ़ाइटोकेमिस्ट्री और फ़ार्माकोलॉजी पर एक तुलनात्मक समीक्षा। जर्नल ऑफ़ एथनोफ़ार्माकोलॉजी 153(1) - 1-18.

वी. रमाकांत
रमाकांत ‘भारतीय वन सेवा विभाग में प्रधान वन संरक्षक के पद पर कार्य कर चुके हैं। वे एक शिक्षाविदऔर पढ़ें