नोएल स्टर्न हमारी सबसे तकलीफ़देह भावनाओं यानी द्वेष और ईर्ष्या के बारे में बात कर रही हैं और बता रही हैं कि कैसे दूसरों से प्रतिस्पर्धा या तो हमें कमज़ोर कर सकती है या फिर हमें अधिक सकारात्मक और प्रबुद्ध दृष्टिकोण दे सकती है।

मेरी प्रतिस्पर्धा की भावना कई बार ईर्ष्या की पीड़ा बन गई - जब मैंने अपनी हाईस्कूल की कक्षा में पीछे बैठने वाले उस विज्ञान के ज्ञानी लड़के को मैक आर्थर फेलोशिप पाते हुए देखा या अपनी एक मित्र का टेक कंपनी के अरबपति मालिक से विवाह होते हुए देखा। ऐसा तब भी हुआ जब मैंने देखा कि बुक क्लब की एक सदस्या (जिसका उपन्यास पूरा ही नहीं हो रहा था) को एक बड़े प्रकाशक से अनुबंध मिल गया या फिर, जब मैं इस लेख को लिख रही हूँ, एक उपन्यासकार, जिसने न्यूयॉर्क टाइम्स में 14 सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास लिखे हैं, के लेख शीर्ष पत्रिकाओं में छपते हैं और कई टीवी कार्यक्रमों में उसकी प्रस्तुति होती है।

40 डेज़ इन लेटिंग गो - लेंट 2023’ नामक एक छोटी पुस्तिका में रेवरेंड सिल्विया हेज़ ने ईर्ष्या की उन अनुभूतियों का सटीक वर्णन किया है - “प्रतिस्पर्धा हमें उस पर केंद्रित रखती है जो हमारे विचार में हमें होना चाहिए, बजाय इसके कि हम उसी से खुश रहें जो हम पहले से हैं। इसके तहत हम अपने विशिष्ट कौशलों, गुणों, प्रतिभाओं और अभिव्यक्तियों की सराहना करने के बजाय दूसरों की उपलब्धियों की तुलना में अपनी योग्यता को आंकते हैं।

जितना भी मैं अपना ध्यान दूसरी तरफ़ ले जाने की कोशिश कर लूँ, ये तुलनाएँ व पीड़ाएँ मेरे हृदय पर बोझ की तरह बनी रहती हैं और हर चीज़ को प्रभावित करती हैं - चाहे वह स्वादिष्ट पास्ता हो, आनंदपूर्ण झपकी हो या स्फूर्तिदायक तैराकी। हालाँकि मैं अपने आपसे बार-बार कहती रहती हूँ कि दूसरों की सफलता से मेरी सफलता प्रभावित नहीं होती लेकिन मैं खुद को कभी इससे सहमत नहीं कर पाई। जल्द ही यह पीड़ा मुझ पर हावी हो जाती है और मैं पूरी तरह से अवसाद ग्रस्त हो जाती हूँ।

उपाय

मैंने अपने इस अवसाद को कम करने के लिए कई तरीके अपनाए हैं। मैं अपने आपको इन विचारों से सांत्वना देती हूँ - उस ज्ञानी का कोई सार्थक रिश्ता नहीं है जबकि मेरा प्रेम-संबंध बहुत लंबे समय से कायम है; मेरी महिला मित्र अपना वज़न कम नहीं कर पा रही है जबकि मैं पतली हूँ और वज़न कम रख पा रही हूँ; बुक क्लब की सदस्या के बाल उलझे हुए रहते हैं जबकि मेरे बाल सुंदर और व्यवस्थित हैं; उस बहुत से उपन्यास लिखने वाले की रुचि सूत्रबद्ध अतिप्राकृतिक प्रेम-कहानियों में है जिसे मैं कभी न लिखूँ। लेकिन ये सारे उपाय मुझे थोड़ी देर का ही आराम देते हैं।

मैं अपने आपको लेखन में डुबो देती हूँ ताकि किसी दूसरी चीज़ का खयाल ही न आए। लेकिन जल्द ही मेरे भीतर का परेशान करने वाला आंतरिक संपादक सर उठाने लगता है और कहता है - यह सब कचरे की तरह बेकार है। इसे उठाकर बाहर फेंक दो। तुम कहीं नहीं पहुँचोगी। 

मन बहलाने के लिए मैं मित्रों के साथ बाहर जाती हूँ। या एक कॉर्न चिप के पूरे बैग के साथ कोई रोमांटिक कॉमेडी फ़िल्म या वकीलों का शो देखती हूँ या फिर ज़रूरत से ज़्यादा समय तक सोती हूँ। 

इनमें से कोई तरकीब काम नहीं करती। भावनाएँ बहुत देर तक छिपाई, दबाई या किसी दूसरी भावना से बदली नहीं जा सकतीं। मैंने हर संभव तरीके से उन्हें रोकने की कोशिश की लेकिन मैं बेहतर अनुभव नहीं कर पाई। और फिर ये भावनाएँ उत्कट प्रतिशोधी इच्छाओं में बदल जाती हैं - जैसे उस विज्ञान-ज्ञानी का नवीनतम आविष्कार बर्बाद हो जाए, मेरी महिला मित्र का वज़न इतना बढ़ जाए कि वह चल भी न पाए, बुक क्लब की सदस्या अपनी पांडुलिपि निर्धारित समय पर न दे पाए और उसका अनुबंध रद्द हो जाए, उस उपन्यासकार का अगला लेखन बहुत खराब हो।

अपनी छोटी सोच, अनुदार भावना और क्रूरता की वजह से इन द्वेषपूर्ण इच्छाओं के लिए मैं अपने आपसे घृणा करती हूँ। मुझे पता नहीं था कि मैं ऐसा सोच भी सकती हूँ।

तो अब क्या किया जाए?

क्रूर प्रतिस्पर्धात्मक भावनाओं को कैसे रोकें? 

मैंने उन विचारों से दूर रहना सीख लिया है जिनकी वजह से मुझमें ये प्रतिस्पर्धात्मक और अवसाद पैदा करने वाली भावनाएँ आती हैं। यह ज़रूरी नहीं है कि मेरा आध्यात्मिक अध्ययन और ध्यान की विधियाँ आपके लिए भी अनुकूल हों लेकिन मैंने उन्हें अत्यधिक उपयोगी पाया है। आप भी उन्हें आज़मा कर देख सकते हैं।

जब मैं कष्ट के अधीन होती हूँ तब उन विचारों को दूर कर देना कठिन होता है। अगर मैं इसमें कामयाब हो जाऊँ तो भी यह आधा निदान ही है। यह उन भावनाओं की मुझपर पकड़ और तीव्रता को कम तो कर सकता है लेकिन कुछ और भी किए जाने की ज़रूरत है। 

विचारों से भावनाएँ पैदा होती हैं और मैं अपने आपको स्मरण कराती हूँ कि मुझमें अपने विचारों को बदल देने की मानसिक क्षमता और इच्छा-शक्ति है। यह उपाय सरल नहीं है। हमें जानते-बूझते उन विचारों की जगह दूसरे सकारात्मक विचार लाने होंगे।

मुझे बाइबिल का एक पाठ्यांश मिला जो मेरी क्रोध भरी ईर्ष्या के लिए उत्तम विकल्प बन गया। ‘1 कोरिन्थियनमें पॉल, कोरिंथ, ग्रीस में विकसित हो रहे चर्च को वहाँ के नेतृत्व और विभिन्न हस्तियों के मध्य हो रहे संघर्ष के बारे में लिखते हैं। 

अपने अन्य कई पत्रों की तरह पॉल इस पत्र में भी सदस्यों को प्रोत्साहित करते हैं और अपने मतभेद हल करने के लिए कहते हैं और उन्हें ईश्वर की सर्वोच्चता का स्मरण कराते हैं।

जिस अंश ने मुझे प्रभावित किया 

(1 कोरिंथियन्स 12: 4-11), उसमें पॉल इस गलत विचार, कि एक व्यक्ति की प्रतिभा दूसरे व्यक्ति की प्रतिभा से श्रेष्ठ है, की बात करते हैं। यह युगों से चली आ रही अनमोल शिक्षा के साथ भी अनुनादित होता है, खासकर जब प्रतिस्पर्धा रूपी शैतान सर उठाने लगता है।

पॉल हर इंसान को प्रदत्त क्षमताओं को एक-एक करके गिनाते हैं जो समय और संस्कृति के उपयुक्त हैं - विवेक, ज्ञान, आस्था, उपचार, चमत्कार करने की क्षमता, भविष्यवाणी, विभिन्न भाषाओं का ज्ञान, उनमें बातचीत करना और उसे समझना। उनके समापन वचन हैं - 

ये सब प्रदान करना ईश्वर का ही कार्य है। और ‘वही उन्हें हर एक को उसी तरह वितरित करता है जैसा वह चाहता है 

(1 कोर. 12:11)।

यद्यपि पॉल द्वारा दिए गुणों के उदाहरण आज के परिप्रेक्ष्य में, वे नहीं हैं जिन्हें हम गुण के रूप में चाहते हैं लेकिन उनका अंतर्ज्ञान आज भी सही है। मेरे लिए क्षमता के रूप में उपन्यासकारों की प्रतिभाएँ और सफलताएँ हो सकती हैं। मेरी मोटी महिला मित्र के लिए यह क्षमता किसी पतली मॉडल का खानपान और इच्छाशक्ति हो सकती है। मेरे बुक क्लब की साथी के लिए यह किसी ऐसे लेखक की दृढ़ता हो सकती है जिसकी पुस्तक के आधार पर चलचित्र बन रहे हों। अतिप्राकृतिक प्रेम कथाएँ लिखने वाली लेखिका के लिए यह कोई पूर्णतः वास्तविकता आधारित उपन्यास लिखना हो सकती है।

फिर भी ऐसा कौन कह सकता है कि एक लेखिका के पास एयरपोर्ट परिचारक की तुलना में या एक विधायक के पास सफ़ाई कर्मचारी की तुलना में या एक डॉक्टर के पास एक मिस्त्री की तुलना में अधिक क्षमताएँ हैं?

कुछ क्षमताएँ अधिक महत्वपूर्ण और उपयोगी लग सकती हैं। लेकिन ऐसा कौन कह सकता है कि सफ़ाई कर्मचारी रोज़ अपने आसपास के सभी लोगों को अपना काम करके खुशियाँ नहीं दे रहा है? “ए कोर्स इन द मिरेकल्स में पॉल के कथन को दोहराया गया - “प्रेम में कोई तुलना नहीं होती।” 

मैं आपको अपने स्वयं के गुणों और उनके लाभार्थियों के बारे में सोचने के लिए आमंत्रित करती हूँ।

जूलिया कैमरॉन अपनी पुस्तक, ‘द आर्टिस्ट्स वे’, में कहती हैं, “प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या सदैव भय छिपाने के मुखौटे होते हैं - इस बात का भय कि हम जो चाहते हैं वह प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं, इस बात की कुंठा कि जिस पर हमारा अधिकार है वह किसी और को मिल रहा है, चाहे हम उसके लिए प्रयास करने से भी डर रहे हों।

कैमरॉन कहती हैं कि प्रतिस्पर्धा एक आध्यात्मिक नशे की तरह है। हम अपने काम के बजाय गलत चीज़ पर यानी दूसरों पर व उनकी उपलब्धियों पर केंद्रित रहते हैं। वे इसका समाधान अंतर्मुख होकर उस दिशा में जाना बताती हैं जिस ओर हमारा आंतरिक मार्गदर्शन इंगित करता है। जैसे ही हम अंतर्मुख होते हैं हमारा ध्यान हमारे अपने कार्य पर होता है, हम उसके प्रति उत्साहित हो जाते हैं (चाहे थोड़ा ही सही) और अपने दुर्भाग्य और दूसरे व्यक्ति की सफलता के लिए दुखी होने के बजाय अपने कार्य में ही व्यस्त रहते हैं।

कैमरॉन कहती हैं, “अगर आपको किसी ऐसे मित्र से ईर्ष्या है जो उत्तम अपराध कथानक लिखता है तो आप भी लिखने की कोशिश कीजिए। मेरे अनुसार उपन्यासकारों की कष्टकारक ईर्ष्या का उत्तर है पहले अपने खुद के उपन्यास को पूरा करना और प्रकाशक को भेज देना। कैमरॉन आश्वस्त करती हैं और एक तरह से पॉल को ही दोहराती हैं, “सच तो यह है कि इस संसार में हम सभी के लिए जगह है।”

उसकी संतों जैसी सलाह के अतिरिक्त मुझे इस कपटी विषैले राक्षस यानी प्रतिस्पर्धा की भावना का एक और प्रतिकार मिला है – कृतज्ञता - अपने उपहारों को पहचानना और उनके लिए सदैव कृतज्ञ बने रहना। जब भी यह राक्षस डराता है, मैं उससे विमुख होकर ईश्वर से कहती हूँ, “जो कुछ मेरे पास है और जो मैं दे सकती हूँ उसके लिए धन्यवाद।” और यह काम करता है।

पॉल और भी बातें बताते हैं - हम सभी को “ईश्वर की इच्छानुसार” गुण और इच्छाएँ दी गई हैं। तो क्या हमें उन विशेष उपहारों के लिए और उनके उपयोग के लिए मिले अनेक अवसरों - स्थान, लोग और परिस्थितियों - के लिए उसके प्रति कृतज्ञ नहीं होना चाहिए? जवाब है, हाँ।

और क्या हमें उनका अधिकतम विकास और उपयोग नहीं करना चाहिए ? जवाब है, हाँ।

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विचारों से भावनाएँ पैदा होती हैं और मैं अपने आपको स्मरण कराती हूँ कि मुझमें अपने 
विचारों को बदल देने की मानसिक क्षमता और इच्छा-शक्ति है। यह उपाय सरल नहीं है। 
हमें जानते-बूझते उन विचारों की जगह दूसरे सकारात्मक विचार लाने होंगे।


ईश्वर ने हमारी और दूसरों की भलाई के लिए हमारी क्षमता के अनुसार हमें उपहार दिए हैं। तो क्या हमने कृतज्ञता अभिव्यक्त नहीं करनी चाहिए ? जवाब है, हाँ।

इस तरह के अनुस्मारक मुझे बताते हैं कि किस तरह मैं प्रतिस्पर्धा के इंजन में ईंधन डालना बंद कर सकती हूँ जिसके कारण मेरा लेखन, सहयोग देने की मेरी इच्छा और जीवन का आनंद खत्म हो जाता है। प्रतिस्पर्धा का यह इंजन घर-घराकर बंद हो जाता है और एक कृतज्ञ हृदय के साथ मैं पुनः अपना काम करने लगती हूँ।


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नोएल ज़िन्दगी भर लिखती रही हैं। और साथ ही वे एक मुख्यधारा विषयक एवं शैक्षिक संपादक, लेखन प्रशिक्षक तथा आध्यात्मिक परामर्शदाता भी हैं। उनकी कई कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं जिनमें चैलेंजेज़... और पढ़ें

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