दाजी चौथे सार्वभौमिक नियम के बारे में बताते हैं - अपना जीवन सरल बना लें और वह ऐसा हो कि प्रकृति के अनुरूप हो जाए। इस समय, मानवता जिन संकटों का सामना कर रही है, वे हमें अपनी जीवनशैली पर पुनरावलोकन करने के लिए विवश कर रहे हैं। हम में से कई लोगों के लिए इसका अर्थ है, अपने जीवन को इस तरह से सरल बनाना जिसकी कल्पना भी हम पाँच वर्ष पहले नहीं कर सकते थे। यह चौथा नियम हमें भविष्य के लिए सही सोच विकसित करने में और रचनात्मक तरीकों से स्वयं को वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल ढालने में सहायक होगा।
एक पक्षी के दो पंख
नियम 1 से 3 में हमने ध्यान एवं प्रार्थना के आध्यात्मिक अभ्यासों और मानव अस्तित्व के परम लक्ष्य के बारे में जाना। बाकी के सात नियम दैनिक जीवन के अन्य पहलुओं को शामिल करते हैं जो हमारी गतिविधियों और अन्य लोगों के साथ पारस्परिक व्यवहार से संबंधित हैं। जीवन में अस्तित्व के दोनों आयाम - सांसारिक एवं आध्यात्मिक - शामिल हैं। वास्तव में वे अलग-अलग नहीं हैं। बाबूजी इस संबंध में यह उपमा देते हैं, “आध्यात्मिकता और सांसारिकता एक पक्षी के दो पंखों की तरह हैं। पक्षी केवल एक पंख के सहारे नहीं उड़ सकता।”
इस कथन में जिस संतुलन की बात कही गई है, उसे पाना आसान नहीं है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग मुख्यतः सांसारिक जीवन पर केंद्रित रहते हैं। कुछ लोग दूसरी पराकाष्ठा की ओर चले जाते हैं जिसमें वे जीवन के मानवीय पहलू से छुटकारा पाने के लिए आध्यात्मिकता में डूब जाते हैं। वे लोग यह मानते हैं कि जब भी उन्हें कोई समस्या होगी, उनका भगवान या गुरु किसी तरह एक जादू की छड़ी घुमाएगा और उस समस्या से उनका बचाव हो जाएगा।
इससे मुझे एक दंतकथा याद आती है जो एथेंस के एक आदमी के बारे में है। वह एक लंबी समुद्री यात्रा पर जा रहा था जब उसका जहाज़ एक भयानक तूफ़ान में टूट गया। किसी तरह वह कुछ अन्य लोगों के साथ उस डूबते जहाज़ से बच निकला। पानी पर तैरते रहने के लिए उन सभी ने टूटे जहाज़ के लकड़ी के तख्तों को पकड़े रखा। पास में ही एक द्वीप था। अतः उनमें से अधिकांश लोग किनारे की तरफ़ तैरने लगे लेकिन एथेंस का वह आदमी नहीं गया। इसके बजाय वह देवी एथेना से प्रार्थना करने लगा, “कृपा करके मुझे इस भयंकर परिस्थिति से बचाएँ। मैं वादा करता हूँ कि अगर मैं बच गया तो आपके सम्मान में एक मंदिर बनवाऊँगा।” जब वह ऐसा निवेदन कर रहा था, एक नाविक तैरते हुए आया और बोला, “एथेना से प्रार्थना अवश्य करो लेकिन अगर तुम बचना चाहते हो तो तैरना भी शुरू करो।”
जब हम सांसारिक समस्याओं को हल करने के लिए आध्यात्मिक आयाम पर ही निर्भर हो जाते हैं, तब क्या होता है? 1980 के दशक के शुरू में जॉन वेल्वुड नामक मनोवैज्ञानिक ने इस वाक्यांश की रचना की - “स्पिरिचुअल बाइपासिंग” अर्थात् आध्यात्मिक उपमार्ग। यह वाक्यांश उस स्थिति का वर्णन करने के लिए था जिसमें लोग अपनी अनसुलझी भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक समस्याओं का सामना करने से बचने के लिए आध्यात्मिक अभ्यासों एवं मान्यताओं का सहारा लेते हैं। आजकल इस वाक्यांश का प्रयोग ऐसे व्यवहार का वर्णन करने के लिए किया जाता है जिसका परिणाम होता है सैद्धांतिक और एक-तरफ़ा अध्यात्म जिसमें जीवन के एक पहलू पर, दूसरे पहलू से अधिक ज़ोर दिया जाता है और जिसमें अवचेतन प्रवृत्तियों से निपटने के लिए कुछ नहीं किया जाता। वेल्वुड ने लोगों के जीवन में, विशेषकर रिश्तों में इसके विनाशकारी प्रभाव को देखा। अध्यात्म सांसारिक जीवन की चुनौतियों से बचने का माध्यम बन जाता है। यह कोई नई बात नहीं है। बाबूजी का भी अपने जीवनकाल में ऐसे विभिन्न प्रकार के आध्यात्मिक मार्गों व अभ्यासों से पाला पड़ा था। उन्होंने महसूस किया कि वास्तविक आध्यात्मिक मार्ग को अस्तित्व के व्यक्तिगत, पारस्परिक और पारवैयक्तिक स्तरों को साथ लेकर चलना होगा।
बाबूजी द्वारा दी गई उपमा - एक पक्षी को उड़ने के लिए दोनों पंखों की आवश्यकता होती है - का एक और अर्थ है। जैसे-जैसे हम आध्यात्मिक रूप से प्रगति करते जाते हैं, हमारा भौतिक जीवन हमारे आध्यात्मिक सत्व के सूक्ष्म स्पंदनों से और भी अधिक आवेशित (charged) होता जाता है। इसके परिणामस्वरूप अपने दिव्य स्वरूप के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए दोनों ही क्षेत्रों में हमारी प्रगति एक साथ होती है। वास्तव में, हम एक पूर्ण मनुष्य के रूप में विकसित होते हैं ताकि दोनों पंखों पर ऊँचा उड़ सकें। ऐसी स्थिति में हृदय उस पक्षी की पूँछ की तरह काम करता है जो हमें आगे जाने के लिए मार्गदर्शित करता है।
तो यह मानवीय पहलू किससे संबंधित है? हमारे अस्तित्व के अनेक आयाम या परतें हैं - शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक, सामाजिक, आध्यात्मिक - और सभी आयाम एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। हमारा लक्ष्य है इन आयामों को एक समग्र और गतिशील एकात्मता में लाना। क्वांटम दृष्टिकोण से ये आयाम ऊर्जा के ऐसे आवरण हैं जो उत्तरोत्तर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होते जाते हैं जब हम बाहर से अंदर की ओर, आकार से निराकार की ओर, पदार्थ से ऊर्जा और फिर परमतत्व की ओर बढ़ते हैं। योग में विभिन्न आवरणों को कोश भी कहा जाता है। वे सभी हमारे अस्तित्व की एकात्मकता का अंश हैं।
नियम 1 से 3 हमारे आध्यात्मिक अभ्यास और उद्देश्य पर केंद्रित हैं। हार्टफुलनेस के अंतर्गत इनमें प्राणाहुति के साथ सुबह का ध्यान, शाम की सफ़ाई और रात को सोते समय की प्रार्थना शामिल हैं। कुछ अतिरिक्त अभ्यास भी हैं जैसे सार्वभौमिक सामंजस्य और भाईचारा विकसित करने के लिए बिंदु ‘ए’ पर ध्यान, कामुक ऊर्जा को नियंत्रित व संयमित करने के लिए बिंदु ‘बी’ की सफ़ाई तथा शांति स्थापना के लिए सार्वभौमिक प्रार्थना। जैसे-जैसे हम चक्रों से गुज़रते हैं, वे एकसाथ मिलकर मन को नियमित व हृदय को शुद्ध करते हैं और चेतना का विस्तार करने में हमारी सहायता करते हैं।

लेकिन दिन के उन बाकी बचे 22-23 घंटों में क्या होता है जो हम अपने परिवार एवं मित्रों के साथ, काम करते हुए या पढ़ते हुए, अपने शौक व रचनात्मक गतिविधियों का आनंद लेते हुए और सोते हुए बिताते हैं? क्या हम इस बारे में सचेत हैं कि उस समय हमारे व्यवहार में हमारी आंतरिक अवस्था कैसे प्रकट होती है? यह हमें नियमों के अगले वर्ग में ले आता है जो हमें अपनी आंतरिक प्रगति के अनुकूल जीवन शैली विकसित करने में सहायता करता है।
सरलता
नियम 4 सरलता के आवश्यक मूल्य से संबंधित है।
नियम 4
अपना जीवन सरल बना लें और वह
ऐसा हो कि प्रकृति के अनुरूप हो जाए।
यह मूल्य सीधा नियम 3 के पालन का परिणाम है। जब हम अपने लक्ष्य के साथ समायोजित होंगे अर्थात् ईश्वर के साथ पूर्ण एकात्मकता स्थापित कर लेंगे तब हमारा जीवन सभी आयामों में सरल बन जाएगा। ईश्वर परम सरलता है। अतः केवल सरलतम विधियाँ ही हमें वहाँ तक ले जा सकती हैं। जैसे ही हम अपनी जटिलताओं को अपने तंत्र से निकाल देते हैं, तब चमत्कार होता है। इसी वजह से आध्यात्मिक पद्धतियों में स्वीकार्यता और समर्पण को इतना महत्व दिया गया है। सरल बनने के लिए समर्पण अत्यावश्यक है। तो हम किस प्रकार सरलता के इस मूल्य को अपनाकर अपना पूर्ण रूपांतरण कर सकते हैं?
मान्यताओं का महत्व
हमारे तीन शरीर हैं - स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। कारण शरीर हमारी आत्मा, हमारा शाश्वत सत्व है। जो क्षेत्र कारण शरीर से उत्पन्न होता है, वह हमारी शुद्ध चेतना (चित्त) का सूक्ष्म शरीर है। इसी शुद्ध चेतना के क्षेत्र में अन्य सूक्ष्म शरीर - जिसमें चित्त, अहंकार, बुद्धि एवं चिंतनशील मनस शामिल हैं - कार्य करते हैं।
अहम् हमारी व्यक्तिगत पहचान है और अपने मूल रूप में यह केवल एक साधारण पहचान होती है जिसमें कोई पूर्वधारणाएँ या आसक्तियाँ नहीं होती हैं। मनस के कार्य के रूप में यह हमारी शक्ति है जिससे चीज़ें प्रकट होती हैं। यह हमारे ऊर्जा कोश, अर्थात् प्राणमय कोश, से संबंधित है। इसके बिना हम न सोच पाएँगे, न काम कर पाएँगे और न किसी चीज़ में रुचि ले पाएँगे। लेकिन जैसे-जैसे हमारी चेतना के क्षेत्र में जटिलताएँ विकसित होने लगती हैं, हमारा अहम् इन जटिलताओं से जुड़ जाता है जिससे इसकी पहचान की शुद्धता नष्ट हो जाती है। अब हम विभिन्न चीज़ों के साथ तादात्म्य स्थापित करने लगते हैं - सिद्धांत, मान्यताएँ, संस्कृति, अनुकूलन, महत्वकांक्षाएँ और वे भूमिकाएँ जो हम निभाते हैं जैसे पति, पत्नी, माता, पिता और सी.ई.ओ. तथा हमारे गुण जैसे बुद्धिमान, मूर्ख, उदार, रचनात्मक आदि। हम इस हद तक भी चले जाते हैं कि हम अपनी वस्तुओं व संपत्ति को अपनी पहचान बना लेते हैं, जैसे हमारा घर या कार, गहने या बैंक में रखी धनराशि। ये सभी चीज़ें हमारी मान्यताओं को परिभाषित करती हैं। भले ही हम जानें या न जानें, हमारी प्रवृत्तियाँ और कर्म इन्हीं मान्यताओं से उत्पन्न होते हैं। अतः, यदि हम वास्तव में अपनी प्रवृत्तियों और कर्मों में बदलाव लाना चाहते हैं तो हमें अपनी मान्यताओं को बदलने की ज़रूरत है।
हमारे विचार में भी वही शक्ति है जैसी उस मूल विचार में थी जिससे ब्रह्मांड की रचना हुई। इस विशाल ब्रह्मांड के अंदर हम अपना छोटा संसार बनाते हैं। यह संसार हम अपने अनुरूप निर्मित करते हैं।
मान्यताओं की उत्पत्ति
मान्यताएँ कैसे बनती हैं? ये समय के साथ हमारे उन विचारों, भावनाओं और परिस्थितियों के प्रति प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप एकत्रित हो जाती हैं जो हमारी चेतना के सूक्ष्म क्षेत्र में छापें बनाती हैं - जटिलताओं की वे परतें या ग्रंथियाँ जिन्हें हम संस्कार कहते हैं। हमारे विचार में भी वही शक्ति है जैसी उस मूल विचार में थी जिससे ब्रह्मांड की रचना हुई। इस विशाल ब्रह्मांड के अंदर हम अपना छोटा संसार बनाते हैं। यह संसार हम अपने अनुरूप निर्मित करते हैं। पैमाने के अलावा एक बड़ा अंतर यह है कि हमारी व्यक्तिगत संरचना के बीज वो छापें या संस्कार हैं जो चेतना के सूक्ष्म क्षेत्र में स्थापित किए गए हैं। सूक्ष्म शरीर के स्तर पर वे एक अद्वितीय व्यक्तिगत रूपरेखा बनाते हैं, बिलकुल वैसे ही जैसे स्थूल स्तर पर हमारी उँगलियों के निशान का विशिष्ट ब्लूप्रिंट होता है। संस्कार भावनात्मक भारीपन, परेशानियों और उन उलझनों के लिए ज़िम्मेदार होते हैं जिनका हम अनुभव करते हैं। हमारा यह स्वनिर्मित जटिल ताना-बाना बाह्य परिस्थितियों व वातावरण से भी प्रभावित होता है।
हमारे ताने-बाने और दूसरे के ताने-बाने का पारस्परिक संबंध हमारे व्यक्तित्व एवं चरित्र को निर्धारित करता है जिसके परिणामस्वरूप हमारी आदतें व प्रवृत्तियाँ बनती हैं। तंत्रिका विज्ञान की दृष्टि से देखें तो हम कह सकते हैं कि हमारे सांस्कारिक स्वरूप हमारे तंत्रिका मार्गों में दृढ़ता से स्थापित हो चुके होते हैं। मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से वे हमारे मनो-भावनात्मक अवचेतन जगत द्वारा निर्धारित किए जाते हैं। इसमें हमारे वो भाग सम्मिलित होते हैं जिनके लिए हम शर्मिंदा होते हैं, जिन्हें हम दबाते हैं, त्याग देते हैं, नकारते हैं, नफ़रत करते हैं और नज़रों से दूर गहराई में दफ़ना देते हैं। वे हमारी चेतना के आवरण के पीछे छिपे रहते हैं। यदि हम उन्हें निकाल नहीं पाते हैं तो वे कभी भी उभरकर बाहर आ सकते हैं, विस्फोट पैदा कर सकते हैं। अभौतिक (metaphysical) दृष्टिकोण से यह वही जटिल ताना-बाना है जो हमारे अस्तित्व के वास्तविक दिव्य स्वरूप को ढके हुए है। इस प्रकार हम अपनी ही बनाई कारागार में फँसे हुए हैं।
हमारा वास्तविक स्वरूप क्या है?
सहजता ही हमारी मूलभूत प्रकृति है - और सहजता चेतना की पवित्रता के साथ भी जुड़ी हुई है। सृष्टि रचना से पहले जो अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान था, यह उसका प्रतिबिंब है। यह अस्तित्व का आधार है जहाँ स्थिरता और निःशब्दता विद्यमान हैं। यह विचार के दायरे के परे, चेतना के परे और रूप के परे है। यह सभी रूपों के आविर्भाव का उद्गम है।
जब हम उस अवस्था में वापस जाते हैं, हम उस परम इकाई में विलीन हो जाते हैं। यह एक वैज्ञानिक कल्पना की तरह लगता है लेकिन बाबूजी ने हमें उस सरणी के माध्यम से वह मार्ग दिखाया है जो स्रोत तक जाती है। यह वही सरणी है जिसके माध्यम से हम अवतरित हुए हैं। हमें केवल वापस जाना है।
यह किसी सूत के गोले को वापस लपेटने की तरह है जिसे किसी छोटे बच्चे ने खेलते-खेलते उलझा दिया हो। कल्पना करें कि हम एक छोटी सी चींटी को सूत के आरंभ तक अपना रास्ता वापस ढूँढने में मदद कर रहे हैं। हमें “अपने स्वनिर्मित व्यक्तिगत जाल को तोड़कर” बहुत ध्यान से सभी गाँठों और ग्रंथियों को हटाते हुए उसे सीधा करना होगा।
लेकिन इससे पहले कि यह हो, हमें अपने इरादे और अवधान के प्रवाह को अधिक से अधिक जटिलता, विविधता और अस्त-व्यस्तता के बाहरी खिंचाव से पलटकर सहजता, शुद्धता और ऐक्यता के आंतरिक खिंचाव की ओर मोड़ना होगा। हमें स्वयं को एकात्मकता की ओर, ईश्वर की ओर अभिकेंद्रित प्रवाह के साथ एकलय करना होगा। क्या हम यह अकेले कर सकते हैं? नहीं। इसमें एक ऐसे सहयात्री की सहायता की आवश्यकता है जिसने उस एकात्मकता का पहले ही अनुभव कर लिया हो।
यह इतना सरल नहीं है।
सहजता को अपने जीवन में लागू करना इतना सरल नहीं है। ऐसा क्यों है? क्योंकि जब तक जटिलता के आवरण हट न जाएँ, हमें सहजता का कोई अनुभव प्राप्त नहीं होता। यह जंगलों और नालों को पार करते हुए एक पहाड़ पर चढ़ने की तरह है। जब तक हम शिखर पर नहीं पहुँच जाते, हम उस ऊँचाई और नज़ारे की कदर नहीं कर सकते जहाँ तक हम पहुँच गए हैं। हम में से अधिकांश लोग पूरी तरह यह समझे बिना कि ध्यान के लिए वास्तव में क्या आवश्यक है, ध्यान करना शुरू कर देते हैं। हम में कुछ है जो हमें अंदर से खींचता है। एक समय पर हमें एक प्रशिक्षक मिल जाता है जो हमें यह सिखाता है कि ध्यान कैसे करना है। आमतौर पर हमारे कई प्रश्न और चिंताएँ होती हैं। यदि हम उनका समाधान करने में सफल हो जाते हैं तो एक ‘अभ्यासी’ बन जाते हैं। हम आंतरिक रूपांतरण का और अपने आध्यात्मिक जगत की विशालता का अनुभव करते हैं और इस बात का एहसास करते हैं कि ध्यान करने से संबंधित और भी बहुत कुछ है जिसके बारे में हमने पहले सोचा भी नहीं था। अतः हमारा स्तर बढ़ जाता है और हम रोज़ाना अभ्यास करने लगते हैं। अब यहाँ से हमारी आंतरिक यात्रा शुरू होती है।
इस पड़ाव पर हमें गुरु के कार्य की एक झलक मिलती है। लेकिन एक कुशल अभ्यासी बनने के बाद ही हममें वास्तव में उनके लिए श्रद्धा विकसित होती है। तब हम पूरी तरह से उन्हें स्वीकार करते हैं और उनके प्रति पूर्ण समर्पण कर देते हैं। इसके लिए अहम् को परिष्कृत करना आवश्यक है।

जब हम आगे की यात्रा के लिए अपनी इच्छा से गुरु से सहायता लेते हैं तब इस विकास में हमारा काम होता है - अपने चरित्र व व्यवहार को परिष्कृत करना जो जीवन का मानवीय पक्ष है। आध्यात्मिक प्रगति गुरु का काम है और चरित्र निर्माण हमारा काम है। प्रगति करने के लिए दोनों का साथ-साथ होना आवश्यक है। वास्तव में, चरित्र ही अध्यात्म का आधार है। असली विस्तार तभी होता है जब लंबवत (vertical) प्रगति और क्षैतिज (horizontal) प्रगति दोनों एक-दूसरे के अनुपात में हों।
अहम् शत्रु नहीं बल्कि एक अच्छा साधन, एक अच्छा मित्र है।
अहम् के लिए अंग्रेज़ी शब्द ‘ईगो’ को मनोविश्लेषण के संस्थापक सिग्मंड फ़्रॉएड और उनके सहयोगियों द्वारा 20वीं सदी की शुरुआत में लोकप्रिय बनाया गया था, हालाँकि इसका वर्णन हज़ारों साल पहले से योगिक साहित्य में सूक्ष्म शरीरों में से एक, ‘अहंकार’ के रूप में किया जा चुका है। इस अहम् के विज्ञान पर प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा गहरी खोज की गई थी। इस खोज का पिछले 150 वर्षों में योगियों द्वारा और भी गहराई से विकास किया गया है। यह लगभग वही समय है जब फ़्रॉएड और पश्चिमी मनोविज्ञान ने इस विषय को गंभीरता से लिया।
योग अहंकार को सूक्ष्म शरीरों में से एक के रूप में, मन के कार्यों में से एक के रूप में और उस पहचान के रूप में वर्णित करता है जिसे आत्मा इस भौतिक जगत में जीवन जीने के लिए धारण करती है। यह नष्ट नहीं हो सकता, होना भी नहीं चाहिए, क्योंकि व्यक्तियों के रूप में हमारा अस्तित्व इसी पर निर्भर करता है।
आध्यात्मिक यात्रा में चरण दर चरण यह अहम् परिष्कृत और शुद्ध होता जाता है। इसका मुख्य परिष्करण मनस क्षेत्र के चक्र 6 से 12 के साथ संबंधित है, जिन्हें अहम् के चक्र भी कहा जाता है। यह सब बहुत अच्छे से बाबूजी की इन पुस्तकों में समझाया गया है – ‘सत्य का उदय’ और ‘अनंत की ओर’।
जैसे-जैसे हम अपने अहम् को परिष्कृत करते जाते हैं, हमारा दृष्टिकोण भी लगातार बदलता जाता है, ठीक वैसे ही जैसे शिखर की ओर चढ़ते हुए एक पर्वतारोही का बदलता है। वास्तव में, जब तक हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा में एक विशेष स्तर तक उन्नति नहीं कर लेते, हम कुछ चीज़ों को छोड़ नहीं पाते और हम में समर्पण करने की वह क्षमता नहीं आती जिसका परिणाम सहजता होता है। उस विशिष्ट उन्नति के स्तर को प्रपन्न का क्षेत्र कहते हैं। हम कह सकते हैं कि यह चरण सहजता की प्रक्रिया की शुरुआत है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं यह परिष्कृत होती जाती है। लेकिन यह अब भी सहजता की उस परम अवस्था से बहुत दूर है।



यहाँ हम वास्तव में गुरु के कार्य में सहयोग देने लगते हैं और उन आदतों व व्यवहारों को विकसित करते हैं जो गुरु के प्रयासों में सहयोग देते हैं। ऐसी आदतें पतंजलि के अष्टांग योग में बताई गई हैं - ‘यम’ द्वारा अनचाही प्रवित्तियों को हटाना, ‘नियम’ द्वारा अच्छे गुणों को विकसित करना, ‘आसन’ द्वारा सही मुद्रा अपनाना, ‘प्राणायाम’ द्वारा ऊर्जावान शरीर को संतुलित करना, ‘प्रत्याहार’ द्वारा इंद्रियों पर नियंत्रण पाना, ‘धारणा’ द्वारा परम लक्ष्य पर एकाग्रचित्त होने के लिए अपने विचारों में सहजता लाना, ‘ध्यान’ द्वारा मन का नियमन करके मन से परे जाना और ‘समाधि’ की मूल अवस्था तक पहुँचना। इन्हीं पहलुओं को इन 10 नियमों द्वारा भी प्रस्तुत किया जा सकता है जिसकी शुरुआत बाबूजी के ‘दस नियमों’ से हुई। उनकी भी वही विषय-वस्तु है लेकिन अधिक सामयिक एवं आधुनिक संदर्भ में। बाबूजी ने हमें कुछ व्यावहारिक हल भी दिए हैं। अतः इन सभी पहलुओं के लिए हार्टफुलनेस का ध्यान एवं अभ्यास हैं जिनका हार्टफुलनेस के साहित्य में विस्तार से वर्णन किया गया है।
शुद्धता एवं सरलता के साथ अपनी नियति का निर्माण करना
जो अव्यक्त शक्ति सृष्टि रचना के समय मौजूद थी, वह हम में भी है। आमतौर पर वह हमारे अपने बनाए हुए जाल में फँसी रहती है। उसे पुनः जागृत करके और सही तरीके से उसका उपयोग करके हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। बाबूजी के शब्दों में, हम “स्वयं के द्वारा बुने गए जाल को छिन्न-भिन्न कर उस सुप्त शक्ति को फिर से अपना सकते हैं जो प्रकृति का सारतत्व है। प्रकृति की सरलता को, जो सभी को दृष्टिगोचर हो रही है, आदर्श मानकर हम अपने लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयास इस प्रकार कर सकते हैं कि इंद्रियाँ उसमें लीन होकर पूर्ववर्ती छापों के नष्ट होने के बाद की स्थिति के समरूप हो जाएँ।”
आध्यात्मिक अभ्यास में हम सूक्ष्म शरीरों को शुद्ध करते हैं। और हमारे चरित्र-परिष्करण में उसका समरूप है सरलीकरण अर्थात् व्यावहारिक जटिलताओं को हटाना। पतंजलि अपने योग सूत्रों में यही बात कहते हैं, जब वे यह समझाते हैं कि दो चीज़ों के परिणामस्वरूप हम अव्यक्त गति की स्थिरता प्राप्त कर सकते हैं - हमारा अभ्यास और वैराग्य अर्थात् अपनी इच्छाओं व कामनाओं को मन से निकाल देने की हमारी क्षमता –
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः॥१२॥
आध्यात्मिक अभ्यास द्वारा और सभी मानसिक प्रभावों को मन से निकालकर वृत्तियों को स्थिर किया जाता है।
अपने अभ्यास और अनचाही जटिलताओं को हटाकर (यम) हम उस परम अवस्था अर्थात् स्थिरता की मौलिक अवस्था के साथ एकलय होने लगते हैं। बेचैनी समाप्त हो जाती है। बाबूजी के शब्दों में, “हमें अपनी गतिविधियों को कम करते जाना चाहिए। शुद्धतम अवस्था के लिए, जिसे हमने अंत में प्राप्त करना है, हमें अपने व्यक्तिगत ताने-बाने को नष्ट करना ही होगा और सभी अवांछित वस्तुओं को, जो हमारे अस्तित्व में प्रवेश कर गई हैं, दूर करना होगा।” जैसे-जैसे हम अपने जीवन को सहज बनाते जाते हैं और दिव्य प्रकृति के साथ तालमेल बैठाते जाते हैं, हम शुद्धतर से शुद्धतर होते जाते हैं।
बाबूजी ने सन् 1982 में अपने सहयोगियों को एक सुंदर संदेश दिया था।
“हम सभी भाई-बहन हैं और एक-दूसरे से बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक रूप से जुड़े हुए हैं - जो मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य है। ‘यह और वह’ का भेद समाप्त हो चुका है। ईश्वर के सभी कार्यों और वातावरण में केवल शुद्धता ही शेष है जो लोगों की आध्यात्मिक नियति को उस परमतत्व के साथ जोड़ने का काम करती है।”
एक बार फिर वे मानव जीवन के लक्ष्य के रूप में हमारे आध्यात्मिक जुड़ाव की बात करते हैं। ‘यह और वह’ द्वैत अर्थात् भौतिक अस्तित्व के द्वंद्वों की ओर संकेत करता है - अच्छा और बुरा, सही और गलत, अंधेरा और उजाला आदि। अंततः हम इन द्वंद्वों के परे जाते हैं, हम सांसारिक अस्तित्व के द्वैत को पार करके वहाँ पहुँचते हैं जहाँ शुद्धता अधिक दिखाई देती है।
कर्म में सरलता
ये सब उन कार्यों के संकेत हैं जिन्हें हमें करने की आवश्यकता है। यह हमारा काम है कि उन संकेतों को समझकर अपने दैनिक जीवन में उन्हें लागू करें। नियम 4 यह संदेश देता है कि हम अपने जीवन को सरल बनाएँ ताकि हम अपनी दिव्य प्रकृति के साथ एकलय हो जाएँ। तो चलिए देखते हैं कि हम इसे अपने जीवन में किस तरह लागू कर सकते हैं।
बाह्य प्रकृति
प्राकृतिक संसार के साथ एकलय होकर जीवन जीने का अर्थ है उसके साथ लयबद्ध होना, प्रकृति की लय के साथ तालमेल में होना और बिना कारण किसी भी प्राणी को आहत न करना। केवल मनुष्य ही ऐसे प्राणी हैं जो प्रकृति की लय के विरुद्ध चलते हैं। जब हम अपने खाने, सोने, व्यायाम करने, श्वास लेने और जीवन के सभी पहलुओं को प्राकृतिक चक्रों के साथ लयबद्ध करने के लिए सहज बना लेते हैं तब हम प्रकृति के साथ अपने सामंजस्यपूर्ण संबंध को पुनः स्थापित करते हैं। अपने हृदय के साथ-साथ अपने शरीर को और उसके संदेशों को सुनने से भी हमें प्रकृति के साथ एकलय होने में मदद मिलेगी।

कुछ अन्य सिद्धांत एवं नियम भी हैं जो प्रकृति का संचालन करते हैं। उदाहरण के लिए, प्रकृति में बहुत विविधता है। ग्रहणशील बनना, विविधता स्वीकार करना, विविधता में एकता देखना, ऐसे सबक हैं जो हम प्रकृति से सीख सकते हैं। इसके अतिरिक्त, प्रकृति बिना सोचे अपना सर्वस्व देती रहती है, वह संचय नहीं करती। जब हम उदार बनकर अपने उपहारों को दूसरों के साथ बाँटते हैं तब हम प्रकृति के साथ एकलय होते हैं। प्रकृति के संतोष और शांति का अनुकरण करना प्रकृति के साथ एकलय होने का एक और तरीका है।
यह हमारा कर्तव्य भी है कि हम प्रकृति का शोषण करने के बजाय उसका सम्मान करें और उसकी रक्षा करें। अगर हम प्रकृति के साथ एकलय होना चाहते हैं तो ऐसी गतिविधियों को रोकना होगा जिनसे प्रदूषण, मौसम में बदलाव, अन्य प्रजातियों का उन्मूलन व हानि तथा मनुष्यों की विभिन्न जातियों का शोषण और उनके साथ गलत व्यवहार बढ़ता है।
इसे करने का एक तरीका है कि अपनी आय के अनुसार ही जीवन जिएँ और अपनी तथाकथित आवश्यकताओं को कम करें। कई लोग दूसरों को प्रभावित करने के लिए और समाज में अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए अपव्ययी जीवन शैली को अपनाते हैं। पर्याप्त आराम लेना एक वास्तविक आवश्यकता है लेकिन किसी भी तरह की फ़िज़ूलखर्ची अहंकार की आवश्यकता है। इससे बचा जा सकता है और संसार की वर्तमान स्थिति हमें यही करने की चुनौती दे रही है।
आंतरिक प्रकृति
हमारी एक आंतरिक दिव्य प्रकृति भी होती है जिसका सत्व सरलता है। सरल जीवन में शुद्धता, विनम्रता, शांति, संतुलन, आनंद और समर्पण भी साथ में होते हैं और इसका परिणाम अबोधता होता है। यही वह अंतिम दशा है जिस पर हम पहुँचते हैं।
अंत में कुछ विचार
अंत में मैं यही कहना चाहूँगा कि वास्तविक प्रगति प्राप्त करने के लिए हमें दोनों पंखों से एकसाथ काम करना होगा। हमारे व्यक्तिगत ताने-बाने को तोड़ना और मन की प्रवृत्तियों को समाप्त करना गुरु का आध्यात्मिक कार्य है। वे हमारी आत्मा की यात्रा शुरू करते हैं, चेतना के सूक्ष्म क्षेत्र में ग्रंथियों को सुलझाते हैं और एक-एक करके हमें चक्रों को पार कराते हैं ताकि हमारी चेतना लक्ष्य की ओर विस्तारित होती रहे। यह आंतरिक कार्य है। जितनी बार भी हम ध्यान करते हैं, हमें नई दशाओं का अनुभव होता है। इस संदर्भ में हमारी जिम्मेदारी है कि उनका सहयोग करने के लिए हम सतर्कतापूर्वक अभ्यास करें।
जिम्मेदारी लेना
मनुष्य के सांसारिक आयाम के लिए प्राथमिक जिम्मेदारी हमारी ही होती है, भले ही गुरु इस क्षेत्र में भी हमें जहाँ तक संभव हो मार्गदर्शन देते हैं। यह लगातार अपना ही बेहतर स्वरूप बनने से संबंधित है। क्या आप एक क्षण के लिए कल्पना कर सकते हैं कि अब से एक साल बाद आप स्वयं को कैसा देखना चाहेंगे? या अपनी अंतिम श्वास लेते समय आप ईश्वर के सामने स्वयं को कैसे प्रस्तुत करेंगे?
आधुनिक तकनीक के साथ हर उत्पाद के अनेक प्रारूप होते हैं जैसे एप्पल आई.ओ.एस. वर्शन 12, वर्शन 14..और कुछ पुरानी एप्लीकेशन नए वर्शन पर काम भी नहीं करेंगी। हमारे अंतिम प्रारूप (version) के बारे में क्या कहा जाए? मैं “कमलेश वर्शन 5000” के रूप में किस तरह का अपना अंतिम रूप, अपना अंतिम आंतरिक अस्तित्व देखना चाहूँगा? क्या यह मेरे वर्तमान अस्तित्व से मेल खाता है? यदि नहीं, तो मुझे क्या बदलाव करने होंगे ताकि मैं उस प्रारूप के और अधिक करीब आ जाऊँ जिसका मैं सपना देख रहा हूँ?
जब आप ध्यान करते हैं या थोड़ा शांत समय अकेले बिताते हैं तब आप अपने आप से पूछ सकते हैं - मैं क्या बन रहा हूँ? मैं स्वयं को कैसा देखना चाहूँगा? महान हस्तियों के व्यक्तित्व के बारे में सोचें और उन हस्तियों को उनके सत्व से, गुणात्मक दृष्टिकोण से समझने की कोशिश करें। सोचें कि किस प्रकार आप गुणों की दृष्टि से विकसित हो सकते हैं।

सरल जीवन में शुद्धता, विनम्रता, शांति, संतुलन, आनंद और समर्पण भी साथ में होते हैं और इसका परिणाम अबोधता होता है। यही वह अंतिम दशा है जिस पर हम पहुँचते हैं।
इस दिशा में पहला कदम है अपने तंत्र से सभी जटिलताओं और अशुद्धियों को हटाना। फिर अपने अहम् के स्वरूप को पहचानना, समझना और उसे परिष्कृत करना। हमारी मान्यताएँ वे हैं जिनसे हमारे अहम् ने अपनी पहचान को जोड़ लिया है। और हमारी मान्यताएँ उन सभी प्रभावों का कुल जोड़ हैं जिसमें हमारे अनुमान, वैश्विक दृष्टिकोण और मनो-भावनात्मक अवस्थाएँ शामिल हैं। हम अपनी मान्यताओं को कैसे बदलें? सबसे पहले तो हमें इसे अपने लक्ष्य, अपनी आंतरिक प्रकृति के सत्व अर्थात् सरलता के साथ एकलय करना होगा और फिर इस पर अपनी नज़र जमाकर रखनी होगी।
अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करके, नई आदतें बनाकर और अपनी प्रवृत्तियों को संयमित करके इसे सुदृढ़ किया जाता है। रूपांतरण की इस प्रक्रिया में मदद करने के लिए बिंदु ‘ए’ पर ध्यान और बिंदु ‘बी’ की सफ़ाई से हमें मदद मिल सकती है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण है कि हम ध्यान के दौरान मिलने वाली दशाओं को आत्मसात करना सीखते हैं जिससे रोज़ाना ही हम अपना एक बेहतर प्रारूप (वर्शन) बनाते हैं। इसके अलावा, हम अपने उन हिस्सों के साथ आत्मीयता स्थापित करते हैं जिनको हमने दबाया और अपना मानने से इंकार किया था। इनमें ऐसे तत्व भी शामिल हैं जिन्हें हम देखने से कतराते हैं। इसमें हमारी सबसे बड़ी सहयोगी हमारी अपनी जागरूकता होती है जो बिना किसी आँकलन के उन सभी पर प्रकाश डालती है जो हम हैं। छुपाने और शर्मिंदा होने के लिए कुछ भी नहीं है क्योंकि हम जानते हैं कि हम पर्याप्त हैं, पूर्ण हैं और हमें प्रेम प्राप्त है।
संक्षेप में, हम केवल मनुष्य नहीं हैं जो आध्यात्मिक रूप से विकसित होना सीख रहे हैं। हम मनुष्य रूप में जागृत हुए आध्यात्मिक प्राणी हैं जो पूर्ण मनुष्य बनना सीख रहे हैं।