दाजी साधक और गुरु के संबंध की विकास-यात्रा को चित्रित करते हैं जो पहचानप्रतिरोध और फिर समर्पण के विभिन्न चरणों से गुज़रती हुई आगे बढ़ती है। दाजी बताते हैं कि जो संबंध बाह्य मार्गदर्शन के रूप में शुरू होता हैउसे अंततः कैसे दिव्यता के साथ आंतरिक जुड़ाव के रूप में विकसित होना चाहिए।

ध्यात्मिक पथ पर चलने के बारे में एक मूलभूत सत्य यह है कि साधक को अपने लिए एक समर्थ गुरु ज़रूर खोजना चाहिए। आध्यात्मिक विकास में एक जीवित गुरु का होना अति महत्वपूर्ण कारक है क्योंकि यदि किसी की मदद न हो तो हमें अपनी कमियों से ऊपर उठने में संघर्ष करना पड़ता है। हममें से अधिकतर लोग लंबे समय से आंतरिक रूप से स्वयं को आगे बढ़ाने की कोशिश में लगे हैं लेकिन इस काम में बाहरी सहायता की भी आवश्यकता होती है। हम अपने आप से कुछ हद तक ही हासिल कर सकते हैं और हमें एहसास हो जाता है कि यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें हमें प्रगति के लिए मार्गदर्शन की आवश्यकता है। हार्टफुलनेस के संस्थापक लालाजी महाराज के समय से आज तक लगातार प्रकृति ने हमारे बीच जीवित गुरु की उपस्थिति को सुनिश्चित किया है। यद्यपि अतीत के संत अपने कार्यों और शिक्षाओं के माध्यम से आज भी हमारे लिए जीवित हैं लेकिन जिस तरह एक बुझी हुई मोमबत्ती से कमरा रोशन नहीं हो सकता, उसी तरह अतीत के संत वर्तमान में आपके अंदर बदलाव लाने में आपकी मदद नहीं कर सकते।

एक बार आप अपने गुरु को पहचान लेते हैं तो स्वाभाविक रूप से यह विचार आता है कि आपको उनके साथ कितना समय बिताना चाहिए। हालाँकि गुरु शिष्य का संबंध मानवीय स्तर के संपर्क पर निर्भर नहीं होता, फिर भी शिष्य को अपने जीवन काल में अपने गुरु से कम से कम एक बार मिलने से अत्यधिक लाभ होता है। यदि आपका मनोभाव सही है तो सिर्फ़ एक बार मिलना भी काफ़ी हो सकता है। आपको उनसे हाथ मिलाने की या उनसे बातचीत करने की भी ज़रूरत नहीं है। फिर भी, यदि आप ग्रहणशील हैं और एक बार भी उनके पास उपस्थित रहते हैं तो उस एक मुलाकात में ही आपकी संपूर्ण आध्यात्मिक यात्रा निर्धारित की जा सकती है। उसके बाद उनसे अन्य मुलाकातों को बोनस माना जा सकता है। आपको उनके आगे-पीछे घूमते रहने की ज़रूरत भी नहीं है जैसा कि हम अक्सर करने लगते हैं। आपको गुरु की पूजा करने की ज़रूरत नहीं है। बहुत से लोग समझते हैं कि गुरु के दैहिक अस्तित्व में उच्चतम स्रोत निहित है और उनकी पूजा करके वे उस शक्ति का कुछ अंश अपने अंदर खींच सकते हैं। वे भूल जाते हैं कि स्रोत हर जगह है और कहीं नहीं भी है। वास्तव में एकमात्र जगह जहाँ आप उसे प्राप्त कर सकते हैं, वह आपके अंदर है। गुरु का काम आपको अपने आंतरिक ‘स्व’ की ओर निर्देशित करना है।

असली गुरु कौन है?

अधिकतर लोग समर्थ गुरु की पहचान नहीं कर पाते। असली गुरु सदैव देने वाला होता है जबकि आजकल अधिकांश गुरु लेने वाले हैं। वे किसी न किसी रूप में गुरु दक्षिणा की अपेक्षा करते हैं। उन्हें अपनी पूजा करवाना पसंद होता है। वे चाहते हैं कि लोग उनका अनुसरण करें और आदर-सम्मान करें। आजकल जो कोई भी गेरुए वस्त्र पहनकर प्राचीन ग्रंथों के ज्ञान का प्रदर्शन करता है और कुछ ज्ञानवर्धक शब्द बोल लेता है, गुरु बन जाता है। अंततः गुरु की यह ज़िम्मेदारी होती है कि वह अपने हर शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति सुनिश्चित करे। यदि वह अपनी अनिच्छा के कारण या स्वयं की योग्यता में कमी के कारण अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर पाता तो मेरा मानना है कि प्रकृति उस व्यक्ति को इसके लिए अवश्य दोषी ठहराएगी।

तो फिर एक असली गुरु कैसा होना चाहिए? बाबूजी महाराज ने योग्य गुरु के दो प्रमुख गुण बतलाए हैं - पहला, उसमें व्यक्ति के रूपांतरण के लिए अपनी आध्यात्मिक शक्ति उसमें संप्रेषित करने की योग्यता होनी चाहिए। और दूसरा यह कि उसकी उपस्थिति में व्यक्ति को तत्क्षण शांति की दशा का अनुभव होना चाहिए।

उदाहरणार्थ, मेरे अनुभव में बाबूजी ने अपने आपको कभी गुरु की तरह प्रस्तुत नहीं किया। वे स्वयं को सदैव अत्यंत विनम्रता के साथ बिलकुल मामूली समझते थे। मैंने चारीजी में भी यही मनोभाव देखा। वे अपने आपको सदैव बाबूजी का शिष्य ही कहा करते थे। अनेक आत्मघोषित गुरुओं के आचरण के विपरीत, असली गुरु अपने आपको लोगों का सेवक समझता है। बाबूजी के उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि असली गुरु कभी यह नहीं सोच सकता कि वह वास्तव में गुरु है, क्योंकि यदि वह ऐसा समझने लगे तो वह गुरु होने के योग्य नहीं रह जाता।


एक असली गुरु कैसा होना चाहिएबाबूजी महाराज ने योग्य गुरु के दो प्रमुख गुण बतलाए हैं - पहलाउसमें व्यक्ति के रूपांतरण के लिए अपनी आध्यात्मिक शक्ति उसमें संप्रेषित करने की योग्यता होना चाहिए। और दूसरा यह कि उसकी उपस्थिति में व्यक्ति को तत्क्षण शांति की दशा का अनुभव होना चाहिए।


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एक सच्चा गुरु आपको न केवल मोक्ष बल्कि उसके भी आगे चेतना की उच्चतर दशाओं और ईश्वर साक्षात्कार की ओर ले जाने के योग्य होना चाहिए। यह गुरु ही है जो साधक को उन आंतरिक बाधाओं के पार ले जाता है जिन्हें वह अपने आप पार नहीं कर सकता। उच्चतम स्तरों पर भी जहाँ समर्पण पूर्ण हो जाता है, साधक अपने में निष्क्रियता महसूस कर सकता है और मार्ग में आगे बढ़ने की इच्छा खो सकता है। यहाँ गुरु फिर सामने आते हैं और जिज्ञासु को धीरे से सहारा देकर आगे ले जाते हैं।

उस यात्रा को प्राणाहुति से ऊर्जा मिलती है जिसका संरक्षक गुरु होता है। फिर भी, जो काम अनगिनत प्राणाहुतियों से भी संपन्न नहीं हो पाता वह गुरु की दिव्य कृपा की एक बार प्राप्ति से हो जाता है। दिव्य कृपा बहुत सूक्ष्म और शक्तिशाली होती है जिसे अनुभव से ही समझा जा सकता है।

हार्टफुलनेस में प्राणाहुति और कृपा के बिना अभ्यास का सारतत्व ही खो जाता है। गुरु ही दोनों का संवाहक होता है।

यदि कभी आपको अपने गुरु से अपने जुड़ाव की पुष्टि करने की ज़रूरत महसूस हो तो अपने हृदय पर ध्यान दें। मन तो हमेशा संदेह कर सकता है क्योंकि यही उसकी प्रकृति है लेकिन हृदय में भारी और स्थायी शंका का बना रहना स्पष्ट संकेत होता है। यदि आपका हृदय किसी व्यक्ति के सम्मुख भारीपन और बेचैनी महसूस करता है तो समझो वह आपका गुरु बनने योग्य नहीं है। यदि आप अपने गुरु से सचमुच असंतुष्ट महसूस करते हैं तो आप उन्हें छोड़ने के लिए स्वतंत्र हैं। चुनाव आपको करना है। अपनी प्रगति के लिए किसी अयोग्य गुरु पर भरोसा करने से बेहतर है कि आप अकेले ही यात्रा करते रहें।

दूसरी ओर, जब गुरु के सान्निध्य में आपका हृदय संतुष्ट महसूस करता है तब मानसिक शंकाओं को हमेशा के लिए पालते न रहें। तब समय है अपने अभ्यास के प्रति समर्पित और उस पर केंद्रित होने का।

स्वयं को तैयार करें

आजकल बहुत से लोग अपने गुरु के पास मुख्यत: सांसारिक मामलों में सहायता की अपेक्षा से जाते हैं। दैनिक जीवन के संघर्षों से अभिभूत होकर वे अक्सर सोचते हैं, “यदि मेरे गुरु मेरी यह समस्या हल नहीं करेंगे तो उनके पास जाने का क्या लाभ है?” वे उनके पास विशेष अवसरों पर जैसे जन्मदिन, वर्षगाँठ, विवाह, गृह प्रवेश, नई नौकरी या व्यावसायिक उद्यमों या दूसरों के साथ हुए अपने मनमुटावों के बारे में बताने के लिए जाते हैं। लेकिन जब हम अपने गुरु के पास इन विशेष अनुरोधों के साथ जाते हैं तब क्या होता है? चाहे भौतिक लाभ के लिए हो या आध्यात्मिक उन्नति के लिए, अपेक्षा करने मात्र से हम एक स्पष्ट अवरोध खड़ा कर लेते हैं। यह अपेक्षा हमारे और गुरु के हृदय के बीच के स्वाभाविक प्रवाह को बाधित कर देती है। हो सकता है कि जितना हम चाहते हैं, गुरु उससे ज़्यादा हमें देना चाहते हों। लेकिन स्वयं को छोटी-छोटी व लेन-देन वाली इच्छाओं तक सीमित कर देने के कारण हम जीवन की बड़ी संभावनाओं से वंचित रह जाते हैं।

असली आशीर्वाद क्या है? यह एक ऐसा वरदान है जो हमारे जीवन की गुत्थी को सुलझा कर आत्मा के उद्देश्य की पूर्ति करने में सहायता करता है। यदि आपको जीवन में एक बार भी गुरु से ऐसा आशीर्वाद मिल जाता है तो उसके सामने जन्मदिवस पर आशीर्वाद माँगना कितना महत्वहीन लगता है।

इसलिए गुरु से मुलाकात के समय हम किस मनोभाव से उनके पास जाते हैं, इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है। अपने गुरु के पास बिना किसी अपेक्षा के, सिर्फ़ प्रेम की खातिर जाने वाला व्यक्ति दुर्लभ ही होता है। लेकिन जब ऐसा होता है तब वह वास्तव में ‘निष्काम कर्म’ के सच्चे भाव को दर्शाता है जिसकी भगवान श्री कृष्ण ने इतनी प्रशंसा की है। जब हृदय अपेक्षा से मुक्त और सच्चे प्रेम से भरा होता है तब असली गुरु स्वाभाविक रूप से उसका प्रत्युत्तर देता है। उसमें शब्दों की आवश्यकता नहीं होती। उस समय गुरु और साधक में एक गहन जुड़ाव पैदा हो जाता है - एक नि:शब्द जुड़ाव, जिसमें दोनों के हृदय एक-दूसरे को पूरी तरह समझते हैं। दोनों हृदयों के बीच यह आंतरिक तालमेल अनायास हो जाता है। दोनों पूर्ण शांति में परस्पर सामंजस्य में स्पंदित होने लगते हैं जिसमें किसी स्पष्टीकरण या आश्वासन की आवश्यकता नहीं रह जाती। लेकिन जब हृदय सदा इच्छाओं से भरा रहता है और हम साल दर साल उसी तरीके की बातों को दोहराते जाते हैं तब ऐसा स्वाभाविक जुड़ाव बनने में देरी होती है। जो बात पलभर में हो सकती थी, उसे उजागर होने में अब कई जन्म लग सकते हैं।

दुर्भाग्यवश अक्सर लोगों में काफ़ी शर्म और अपराधबोध होता है जो उन्हें गुरु के सामने जाने से रोकता है। एक शिष्य सोच सकता है, “मैंने विगत दिनों में अपना अभ्यास नहीं किया है। मेरी दशा उनके सामने जाने लायक नहीं है।” फिर पास में खड़ा कोई व्यक्ति यह कहते हुए रोक देता है, “चले जाइए! वे अभी किसी से मिलना नहीं चाहते।” यह सच भी हो सकता है और नहीं भी। लेकिन गुरु के साथ होने के प्रति इस विरोधाभासी दृष्टिकोण को ठीक से समझा जाना चाहिए - कि कब हम अपने आप को उन पर थोपने से बचें और किस तरह उनसे दूर रहकर भी उनसे जुड़े रहें।

लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा व्यक्तिगत प्रयास उत्प्रेरक का काम करता है। हर दिन नियमित रूप से अपना आध्यात्मिक अभ्यास करने से हम अपने हृदय को इस तरह बनाते व तैयार करते हैं कि गुरु जो भी देते हैं, वह उसे ग्रहण कर पाता है। भले ही आप उनसे रोज़ाना मिलें, बात करें और उनके साथ खाना खाएँ लेकिन आपके आंतरिक प्रयास के बिना सिर्फ़ गुरु की दैहिक उपस्थिति में रहने से कोई चमत्कार नहीं हो सकता।


जब हृदय अपेक्षा से मुक्त और सच्चे प्रेम से भरा होता है तब असली गुरु स्वाभाविक रूप से उसका प्रत्युत्तर देता है। उसमें शब्दों की आवश्यकता नहीं होती। उस समय गुरु और साधक में एक गहन जुड़ाव पैदा हो जाता है - एक नि:शब्द जुड़ावजिसमें दोनों के हृदय एक-दूसरे को पूरी तरह समझते हैं। दोनों हृदयों के बीच यह आंतरिक तालमेल अनायास हो जाता है। दोनों पूर्ण शांति में परस्पर सामंजस्य में स्पंदित होने लगते हैं जिसमें किसी स्पष्टीकरण या आश्वासन की आवश्यकता नहीं रह जाती।


गुरु का सान्निध्य

गुरु की उपस्थिति में बैठने की प्रेरणा और खिंचाव सिर्फ़ अंदर से आ सकता है। बहुत बार मैं देखता हूँ कि कुछ लोग, जैसे नए अभ्यासी या बच्चे, तैयारी से पहले ही आध्यात्मिक गुरु के सामने धकेल दिए जाते हैं। आध्यात्मिक अभ्यास के आधार के बिना यह समझ पाना मुश्किल होता है कि उस क्षण में गुरु क्या दे रहे हैं। बच्चों के साथ तो अधिक सावधानी की ज़रूरत है। बच्चों को गुरु के सामने ऐसा कुछ भी करने के लिए ज़बरदस्ती नहीं करनी चाहिए जिसके वे आदी न हों या जिसमें उन्हें असुविधा हो, जैसे प्रणाम करना, नमस्ते कहना या प्रसाद लेना या आश्रम में कोई विशिष्ट व्यवहार करना। ऐसा करने से उनमें नाराज़गी आ जाएगी जिससे वे आगे चलकर निश्चित ही इस परिस्थिति के विरुद्ध विद्रोह कर देंगे।

क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम अपने गुरु से प्रेमपूर्ण भाव के साथ मिलें? जब निष्ठावान अभ्यासी अपने गुरु से मिलने के लिए घर से निकलते हैं तब उनकी आंतरिक प्रत्याशा प्रेम, उत्सुकता और तड़प लिए होती है। जब वे उनके निकट जाते हैं तो वहाँ सौम्यता और प्रार्थनापूर्ण हृदय से प्रवेश करते हैं। वे हलके कदमों से सावधानी से चलते हैं और तब उनके सभी विचार, इच्छाएँ और राय स्वाभाविक रूप से, कम से कम उस क्षण के लिए, मन से हट जाती हैं क्योंकि तब वे, जो कुछ भी गुरु उन्हें देना चाहते हैं, उसे ग्रहण करने के लिए अपने आप को तैयार करते हैं। आदर्श रूप से, वे गुरु का विश्लेषण नहीं करते या उनके कार्यों को लेकर निष्कर्ष नहीं निकालते। ऐसा करना शिष्य के लिए अनुचित है और गुरु के उस सूक्ष्म कार्य में बाधा उत्पन्न करता है जो वे उस पर करने की कोशिश करते हैं। गुरु की उपस्थिति में हमें अपना वैयक्तिकता का भाव मन से हटा देना चाहिए। यदि यह पूरी तरह से खत्म नहीं भी होता तो भी एक सच्चा शिष्य सम्मानपूर्ण आंतरिक मौन बनाए रखता है।

जैसा कि बाबूजी ने एक बार कहा था, “कई लोग मुझे देखने आते हैं लेकिन कोई भी वास्तव में नहीं देख पाता।” सामान्यतः हम वही देखते हैं जो हम उस समय की अपनी चेतना और समझ के स्तर के अनुसार देख पाते हैं। अधिकांश लोग जब गुरु को देखने की कोशिश करते हैं तब अक्सर गुरु के सारतत्व को देखने से वंचित रह जाते हैं।

वे उनके लौकिक कृत्यों की नकल करने की कोशिश करते हैं - उनके काम करने के तरीकों, हाव-भाव, वस्त्रों या तौर-तरीकों की नकल। लेकिन इसमें उनकी कोई गलती नहीं है। किसी चीज़ या किसी व्यक्ति का सही-सही आकलन करने के लिए हमें उस चीज़ से अधिक सूक्ष्म होना चाहिए। यही कारण है कि आध्यात्मिक गुरु का वास्तविक स्वरूप शिष्य की समझ से परे होता है। उनकी सूक्ष्मता का स्तर ऐसा होता है कि हमारे लिए उन्हें देख पाना लगभग असंभव होता है। अधिक से अधिक हम उन्हें ऐसे परिष्कृत व्यक्ति के रूप में देखते हैं जो अक्सर विवेकपूर्ण सत्य उजागर करते हैं।

अभ्यास द्वारा हम अधिक सूक्ष्म होते जाते हैं और गुरु के आंतरिक स्वरूप को समझने लगते हैं।

 

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जब निष्ठावान अभ्यासी अपने गुरु से मिलने के लिए घर से निकलते हैं तब उनकी आंतरिक प्रत्याशा प्रेमउत्सुकता और तड़प लिए होती है। जब वे उनके निकट जाते हैं तो वहाँ सौम्यता और प्रार्थनापूर्ण हृदय से प्रवेश करते हैं। वे हलके कदमों से सावधानी से चलते हैं।


जब अहंकार बाधा डालता है

नब्बे के दशक के मध्य में मैं चारीजी से जितना संभव होता, उतना मिलने जाता था, वर्ष में लगभग चार से पाँच बार और उनके साथ लंबी अवधि के लिए रहता था। मेरे बार-बार आने से एक पड़ोसी ने एक बार बड़ी मासूमियत से पूछा, “कमलेश भाई, आपको चारीजी के पास बार-बार आने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? क्या बाबूजी को लालाजी के साथ सिर्फ़ सात या आठ मुलाकातों में ही आत्म-साक्षात्कार नहीं हो गया था? क्या इतनी ज़्यादा बार मिलना वाकई में ज़रूरी है?”

मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। लेकिन मैंने उनसे कहा कि जब मैं चारीजी से मिलूँगा तब उनकी ओर से उनसे अवश्य पूछूँगा। बाद में जब मैं चारीजी के साथ भारत में था तब मैंने यह प्रश्न उनसे पूछा - “एक अभ्यासी बहन हैं जो आपकी दिल से प्रशंसक हैं लेकिन परिवार की और आर्थिक मजबूरियों के कारण वे बार-बार आपसे मिलने नहीं आ पातीं। वे पूछ रही हैं कि बार-बार मिलने आने की वास्तविक आवश्यकता क्या है?” उन्होंने इसका बहुत सुंदर स्पष्टीकरण दिया, “आप एक फूल की सुंदरता को दूर से देखकर सराह सकते हैं लेकिन उसकी खुशबू लेने के लिए उसके निकट आना पड़ेगा। यदि यह गुलाब का फूल है और आप उसे हाथ में पकड़ते हैं तो सावधान रहें क्योंकि उसमें काँटे भी होते हैं जो आपको चुभ सकते हैं। यही कारण है कि शायद हम गुरुओं से दूर रहते हैं।” गुरु के भौतिक सान्निध्य में जितने अवसर हैं, उतनी ही समस्याएँ भी हैं। लेकिन जब हम इन समस्याओं का सामना हृदयपूर्वक करते हैं तब ये समस्याएँ कहीं बड़े आशीर्वाद बन जाती हैं। लेकिन ऐसी परिस्थितियों में यदि आपका हृदय पिघलता नहीं है तो वही परिस्थिति आपके लिए आध्यामिक त्रासदी भी बन सकती है।

ये इम्तहान यात्रा का हिस्सा हैं। शुरुआत में ये सरल होते हैं। हम सोच सकते हैं, “मेरा ध्यान करने का मन नहीं हो रहा है।” जब आप स्वयं को हार्टफुलनेस अभ्यास में संघर्ष करता हुआ पाएँ तो समझ जाएँ कि नई आध्यात्मिक अवस्था आ रही है। इस स्थिति को अधिक समय तक चलने मत दें और किसी प्रशिक्षक के पास जाकर एक या दो व्यक्तिगत सिटिंग लेकर जल्दी से इस स्थिति से आगे बढ़ें। यदि आप उस आंतरिक प्रतिरोध से उबर जाते हैं और प्रेरित महसूस न होने पर भी ध्यान करते रहते हैं तो स्वाभाविक रूप से एक नई दशा का उदय होगा।


अभ्यास द्वारा हम अधिक सूक्ष्म होते जाते हैं और गुरु के आंतरिक स्वरूप को समझने लगते हैं।


आगे आने वाली चुनौतियाँ और अधिक खतरनाक होती हैं - उनका संबंध अहंकार से है।

शिष्य के हृदय में उभरने वाले प्रेम और घृणा दोनों पर ही गुरु चुपचाप गौर करते रहते हैं। प्रेम में भी अति महत्वाकांक्षी ऊर्जा हो सकती है - सभी बाधाओं को पार करके प्रियतम तक पहुँचने की तीव्र इच्छा। इसी तरह क्रोध या छोड़कर चले जाने की इच्छा आक्रामकता का दूसरी दिशा में चले जाना है।

इन भावनात्मक आवेशों के बावजूद गुरु धैर्यपूर्वक शिष्य के अहंकार को परिष्कृत करते रहते हैं। इसके लिए वे सावधानीपूर्वक विशेष परिस्थितियाँ पैदा करते हैं जो हमेशा धीरे से शिष्य के सामने आती हैं। लेकिन परिवर्तन के इस महत्वपूर्ण समय में शिष्य को दर्द महसूस होता है और मनुष्य होने के नाते यह दर्द गुरु को भी महसूस होता है। इसके बावजूद उन्हें इस दिशा में कार्य करना ही होता है।

जैसे-जैसे भक्ति बढ़ती है गुरु शिष्य के निकट आते जाते हैं और उसके लिए अधिक सुलभ हो जाते हैं। यह उपलब्धता शिष्य की यात्रा में एक महत्वपूर्ण मोड़ होता है। रूपांतरण गहन हो जाता है, आध्यात्मिक अवस्थाएँ तीव्र हो जाती हैं और अक्सर हृदय कृतज्ञता से भर आता है। लेकिन यहाँ भी खतरा बना रहता है। शिष्य खुद को आध्यात्मिक रूप से श्रेष्ठ या दूसरों से अधिक महत्वपूर्ण मानने लग सकता है। जब ऐसा होता है तब गुरु का हृदय विदीर्ण हो जाता है।


जैसे-जैसे भक्ति बढ़ती है गुरु शिष्य के निकट आते जाते हैं और उसके लिए अधिक सुलभ हो जाते हैं। यह उपलब्धता शिष्य की यात्रा में एक महत्वपूर्ण मोड़ होता है। रूपांतरण गहन हो जाता हैआध्यात्मिक अवस्थाएँ तीव्र हो जाती हैं और अक्सर हृदय कृतज्ञता से भर आता है।


गुरु के अत्यंत निकट रहने से भी हमारे सामने उनके बारे में अपनी धारणा को लेकर एक अभूतपूर्व चुनौती उत्पन्न होती है। जिसे कभी पवित्र समझा गया था, हो सकता है कि अब उसी गुरु में दोष दिखाई देने लगें क्योंकि उनकी मानवीय प्रवृत्तियाँ और आदतें आपके सामने आ जाती हैं। दृष्टिकोण में आया यह बदलाव या तो शिष्य के विकास को अधिक गहन कर देता है या फिर एक बाधा भी बन सकता है - यह सब उसकी आंतरिक परिपक्वता पर निर्भर करता है।

चेतना के सीमित स्तर से उच्चतर आयामों को समझना कठिन होता है। अब गुरु शिष्य के लिए एक दर्पण बन जाता है जो शिष्य के मनोभावों, अपेक्षाओं और अनसुलझे बोझ को प्रतिबिंबित करता है। गुरु के साथ अपनी चुनौतियों को जोड़ देने से शिष्य के मन में संदेह, असहमति और भावनात्मक प्रतिरोध पैदा हो जाते हैं जो धीरे-धीरे गुरु और शिष्य के मध्य दीवार बना देते हैं। यह दीवार और अधिक ठोस बनती है या धीरे-धीरे गिर जाती है, यह पूरी तरह शिष्य पर निर्भर करता है। यदि जागरूकता और दिव्य के लिए सच्ची तड़प रखने वाले हृदय के साथ इसका सामना किया जाए तो यही अवस्था एक शक्तिशाली मोड़ बन सकती है।

अंदर ही अंदर अपने गुरु का मूल्यांकन करते रहने में कोई बुराई नहीं है। वास्तव में इस यात्रा में कभी-कभी यह आवश्यक हो जाता है क्योंकि बिना आंतरिक स्पष्टता के आगे बढ़ पाना संभव नहीं होता। ऐसा करना किसी भी पैमाने से गुरु की अवमानना करना नहीं होता। जब हृदय पूरी तरह आश्वस्त होता है तभी हम अपनी वैयक्तिकता की दीवार को गिरा देना चाहते हैं। लेकिन लगभग हमेशा हमारा स्वयं को अधिक महत्व देने का भाव हमारे मार्ग में आ जाता है। अधिकतर ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अहंकार को चुनौती मिलने के कारण वह विरोध करता है और ऐसे में गुरु की सलाह और सुधार के सुझावों को स्वीकार करना कठिन होता है। जैसा कि यूनानी पौराणिक कथाओं में हायड्रा (दैत्य) के बारे में कहते हैं कि जब उसका एक सिर कटता है तो तत्क्षण दो नए सिर उग आते हैं। उसी तरह जितना हम अहंकार से लड़ते हैं, उतना ही यह प्रबल होता जाता है। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक हम इस संघर्ष की व्यर्थता को समझ कर अंततः समर्पण का मार्ग नहीं चुन लेते - वास्तविक और प्रेमपूर्ण समर्पण का मार्ग। कब तक हम समर्पण के इस मार्ग पर चलना टालते रहेंगे? एकसाथ हमारे पास बहुत सीमित समय है, यह अनंत नहीं है। एक बार आपका हृदय आश्वस्त हो जाए तो अपने अहंकार को छोड़कर हमें संपूर्ण समर्पण के साथ प्रस्तुत हो जाना चाहिए।

जब हम प्रेम द्वारा नियंत्रित होते हैं तब ये सभी बाधाएँ अपने आप गायब हो जाती हैं। जब आंतरिक प्रतिरोध चला जाता है और साहस जाग्रत हो जाता है तब बूँद सागर में विलीन हो जाने के लिए तैयार हो जाती है - हम दिव्यता के साथ एकाकार हो जाते हैं।

आंतरिक गुरु से मिलाप

हालाँकि सद्गुरु हमारी आध्यात्मिक प्रगति की देखभाल करते हैं लेकिन वे हमारे आध्यात्मिकता के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा भी बन सकते हैं क्योंकि हम हर चीज़ के लिए उन पर निर्भर बने रहते हैं। आप स्वयं से कहते रहते हैं, “ठीक है यदि मैं कुछ न भी करूँ तो भी उनकी कृपा सब कुछ संभाल लेगी।” यह मूर्खता है। इसमें कोई शक नहीं कि सच्चे आध्यात्मिक गुरु का सहारा हमेशा आपके साथ है लेकिन आपको अपने हिस्से का कार्य तो करना होगा। आपको अपना प्रयास अवश्य करना चाहिए और अपने रूपांतरण पर ईमानदारी से काम करना चाहिए। यही कारण है कि मैं कई बार लोगों से यह कहने के लिए विवश हो जाता हूँ कि वे ऐसे जिएँ जैसे उनके गुरु देह त्याग चुके हों। यह एक तरह से ज़िम्मेदारी लेने और प्रतिबद्धता को प्रोत्साहित करना है। यह साधक का सच्चा प्रयास ही है जो गुरु की ऊर्जा को खींचता है। जब आप आगे बढ़ने के लिए एक कदम उठाते हैं तब वे दूसरा कदम उठाने में मदद करते हैं। अंतर केवल इतना है कि आपके कदम बहुत छोटे होते हैं जबकि उनके कदम चेतना के विस्तृत आयामों को समेट सकते हैं।

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सभी भौतिक बाधाओं के परे गुरु का कार्य दूर से ही हो जाता है और शिष्य को उस कार्य के होने के लिए शारीरिक रूप से उनके निकट होने की आवश्यकता नहीं होती। गुरु को आपका नाम जानने या आपके चेहरे से परिचित होने की आवश्यकता नहीं होती। उनके कार्य के लिए ऐसी सचेतन जानकारी अनावश्यक है। हो सकता है कि उन्हें पता भी न हो कि वे आप पर कार्य कर रहे हैं क्योंकि आध्यात्मिक कार्य हृदय के माध्यम से अपने आप होता है। गुरु और साधक का संबंध आंतरिक होता है जो हृदय की गोपनीयता में विकसित होता है। बाबूजी ने अपनी गहन आध्यात्मिक समझ से आध्यात्मिकता के प्रति दृष्टिकोण को पूरी तरह से बदल दिया। उन्होंने कहा कि यदि आप अपने गुरु से प्रेम नहीं कर पाते या ईश्वर से प्रेम नहीं कर पाते तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है जब तक कि आप में यह इच्छा है कि आप प्रेम की वह दशा प्राप्त करना चाहते हैं। इस दशा को प्राप्त करने के लिए वे सतत स्मरण का सुझाव देते हैं। सतत स्मरण की प्रक्रिया के बारे में उनका तर्क अत्यंत सरल है - जब आप किसी से प्रेम करते हैं तब उसे सतत याद करते रहते हैं। इसके विपरीत यदि आप किसी को अपनेपन के भाव के साथ सतत याद करते हैं तो हृदय में प्रेम अवश्य प्रस्फुटित होता है।

आध्यात्मिक गुरु साधक के हृदय की पुकार का प्रकृति द्वारा दिया हुआ प्रत्युत्तर है। जैसा कि बाबूजी ने कहा है कि साधक के हृदय की सच्ची पुकार गुरु को उसके द्वार पर ले आती है। कभी-कभी प्राणाहुति का एक ही क्षण आप में उद्देश्य के गहन भाव को जगाने के लिए पर्याप्त होता है। यदि साधक ग्रहणशील होते हैं तो वे स्वयमेव गुरु की ओर आकर्षित हो जाते हैं। लेकिन यह गति बलपूर्वक नहीं लाई जा सकती। साधक के हृदय से इसकी अनुमति मिलनी चाहिए। सच्चा गुरु कभी स्वयं को शिष्य पर नहीं थोपता। वह सदैव उसके हृदय की तत्परता के साथ सामंजस्य रखकर कार्य करता है। यहाँ तक कि सर्वाधिक शक्तिशाली गुरु भी साधक में आंतरिक रूपांतरण नहीं ला सकता यदि उसका हृदय इसका प्रतिरोध करता है।

यही कारण है कि वास्तविक परिवर्तन साधक की तत्परता पर निर्भर करता है। गुरु और साधक के संबंध की कुंजी सदैव साधक के हाथ में होती है, यह गुरु के हाथ में कभी नहीं होती।


आध्यात्मिक गुरु साधक के हृदय की पुकार का प्रकृति द्वारा दिया हुआ प्रत्युत्तर है। जैसा कि बाबूजी ने कहा है कि साधक के हृदय की सच्ची पुकार गुरु को उसके द्वार पर ले आती है। कभी-कभी प्राणाहुति का एक ही क्षण आप में उद्देश्य के गहन भाव को जगाने के लिए पर्याप्त होता है। यदि साधक ग्रहणशील होते हैं तो वे स्वयमेव गुरु की ओर आकर्षित हो जाते हैं।


 


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दाजी

दाजी हार्टफुलनेसके मार्गदर्शक

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