दाजी आठवें सार्वभौमिक नियम के विषय में बता रहे हैं। इसमें उन भौतिक संसाधनों के साथ हमारे संबंध के बारे में जानकारी दी जा रही है जिनका हम अपने दैनिक जीवन में उपयोग करते हैंविशेषकर जो भोजन हम ग्रहण करते हैं और जो धन हम कमाते हैं। वे हमेंजो कुछ भी खाने को मिले उसे खुशी से खाने के महत्व के बारे में समझा रहे हैं। साथ हीजिस माध्यम द्वारा भोजन हम तक पहुँचा है उसमें ईमानदारी के महत्व पर ज़ोर देते हैं। उदाहरण के लिएक्या भोजन उगाने और खरीदने के लिए उपयोग में लाया गया धन ईमानदारी और पवित्रता से कमाया गया था?

प्रारंभ में हम कह सकते हैं कि यह आठवाँ नियम भोजन के साथ हमारे संबंध को पुनः परिभाषित करने में हमारी सहायता करता है - इसे कैसे खाएँ और यह हमारी मेज़ तक कैसे पहुँचा। दाजीइस प्रक्रिया में ईमानदारी और अन्य कई सिद्धांतों पर जानकारी दे रहे हैं जो भौतिक जगत व प्रकृति के साथ हमारे संबंध के प्रति हमारी जागरूकता बढ़ाएगी। जब हम इस नियम को गहराई से समझेंगेहमें पदार्थऊर्जा और परमावस्था के परस्पर संबंध का पता चलेगा और हम यह भी जानेंगे कि किस प्रकार भोजन को स्पंदनों के उच्चतर स्तर तक दिव्य बनाया जा सकता है ताकि यह शारीरिक व आध्यात्मिक दोनों प्रकार के रोगों का उपचार कर सके। वास्तव में यह नियम हमें उस ताने-बाने के विषय में बताता है जिसमें हमारे तीनों शरीर प्राकृतिक जगत के साथ गुंथे हुए हैं।

हमारी वर्तमान स्थिति

इस सदी में हम इस बात के लिए मजबूर हो गए हैं कि किस प्रकार अपने संसाधनों का प्रबंधन करें ताकि वे हमारे जीवन काल में ही समाप्त न हो जाएँ। हम पृथ्वी पर अपने पर्यावरण के विनाश के प्रति और विभिन्न लोगों की परिस्थितियों में असमानता के प्रति जागरूक हो रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के 17 सतत विकास लक्ष्य (17Sustainable Development Goals) इन्हीं समस्याओं को सुलझाने का और इस परिस्थिति को पलटने के लिए एकसाथ काम करने में हमारी सहायता करने का एक प्रयास है।

इन 17 लक्ष्यों में से पहले तीन धन एवं खाद्य समस्याओं से सीधे-सीधे संबंधित हैं -

  1. सभी जगह, हर प्रकार की गरीबी का अंत करना।
  2. भुखमरी का अंत करना, खाद्य सुरक्षा व बेहतर पोषण सुनिश्चित करना और संधारणीय कृषि को बढ़ावा देना।
  3. सभी उम्र के लोगों के लिए स्वस्थ जीवन सुनिश्चित करना और स्वास्थ्य एवं कल्याण को बढ़ावा देना।

विश्व बैंक के अनुसार, सन् 2024 में विश्व की 8.5% जनसंख्या यानी लगभग 69.2 करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी का जीवन जी रहे हैं। इसका एक मुख्य कारण धन की कमी है। वहीं 40% जनसंख्या जीवनशैली से संबंधित दीर्घकालिक रोगों की शिकार हो रही है। ये रोग ज़्यादा वज़न होने से संबंधित हैं। कुल मिलाकर, हमने खाद्य एवं धन प्रबंधन ठीक से नहीं किया है। और अब एक वैश्विक समाज के रूप में हम उन समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न कर रहे हैं जो हम ही ने पैदा की हैं।

भोजन व धन के प्रति योगिक दृष्टिकोण

चलिए, संसाधनों के प्रति योगिक दृष्टिकोण को जानने का प्रयास करते हैं जिसे विभिन्न संस्कृतियों के ज्ञानी-महात्माओं ने भी प्रतिपादित किया है। हज़ारों वर्षों से योगियों ने भोजन को विशेष सम्मान दिया है और बताया है कि कैसे धरती पर हल्के रहना है अर्थात् कैसे न्यूनतम सहयोग लेकर धरती को अधिकतम योगदान देना है। वास्तव में उनके अनुसार नैतिकता की परिभाषा है - सभी संसाधनों जैसे भोजन, जल, धन, भूमि, कामुक ऊर्जा, वन, सागर आदि का उचित संरक्षण एवं उपयोग करना।

योगियों ने इस सिद्धांत के बारे में इसके भौतिक प्रभाव से परे भी जानने का प्रयास किया है - उदाहरण के लिए, भोजन को प्राण के रूप में महत्व दिया गया है और उसे खाने का प्रभाव मानव तंत्र के तीनों शरीरों पर होता है, केवल स्थूल शरीर पर ही नहीं। जब हमारे भोजन के प्रत्येक अणु के केंद्र में स्थित दिव्यता का हमारे अंदर की दिव्यता के साथ तालमेल बैठता है तब भोजन सद्गुणों का एक सशक्त स्रोत बन जाता है।

योगीगण अष्टांग योग के ‘यम’ एवं ‘नियम’ के अनुसार सभी संसाधनों को आदर व सम्मान देते थे क्योंकि जिस वातावरण में हम रहते हैं ये उसके साथ हमारे ऊर्जा संबंधी रिश्ते का हिस्सा हैं । वास्तव में, एक समर्थ योगी में जीवन के प्रति इतना सम्मान होता है कि वह इस ब्रह्मांड के एक अणु को भी नहीं छेड़ेगा जब तक कि ऐसा करना आवश्यक न हो। इससे प्रकृति पर मनुष्य का न्यूनतम प्रभाव पड़ता है। यह दिव्यता के साथ प्रतिदिन प्रतिक्षण सामंजस्य में रहने का अत्यंत पवित्र मनोभाव है।

इसलिए एक योगी वह सब खाने में खुश रहेगा जो उसे स्थानीय रूप से और मौसम के अनुसार मिल जाए। उसे संसार के अन्य देशों से लाए गए आकर्षक खाद्य पदार्थों या उसकी इच्छानुसार मनभावन स्वाद की पूर्ति के लिए खाद्य पदार्थों को पाने की कोई आवश्यकता नहीं होती है। उदाहरण के लिए, क्या एक योगी को यह महसूस होगा, “मेरा दोपहर का खाना तब तक अधूरा है जब तक मुझे मेरी पसंदीदा मिठाई न मिल जाए?” नहीं। इच्छा-आधारित अधूरेपन की भावना का वही परिणाम होता है जो तामसिक भोजन करने का होता है। योगियों को जिस भी रूप में ईश्वर की उदारता प्राप्त होती है वे उससे संतुष्ट रहते हैं।

एक योगी इस ज़माने की चीज़ों को इस्तमाल कर फेंकने की संस्कृति अपनाने के बजाय हमेशा चीज़ों का पुनः चक्रण व पुनः उपयोग करेगा। लालच और लापरवाही की जगह उसका ऐसा अस्तित्व होगा जिसमें वह कमल की भाँति संसार में रहते हुए भी सांसारिक नहीं होगा। यह ज्ञान पूरे मानवीय इतिहास में मौजूद रहा है और इस आधुनिक युग में बाबूजी के आठवें नियम में यही समझाया गया है।

 

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नियम 8

भोजन करते समय जो कुछ भी मिल जाए, प्रसन्नतापूर्वक और ईश्वर की याद में खाएँ। शुद्ध और पवित्र कमाई का ध्यान रखें।

 

प्रसन्नता

सतही तौर पर यह नियम अपनाने के लिए सरलतम लगता है। अच्छे भोजन का आनंद कौन नहीं लेता? ऐसा लगता है कि प्रसन्नता वह भाव है जिसकी आशा हम में से अधिकांश लोग अपने जीवन में करते हैं। दार्शनिकों व रहस्यवादियों ने प्रसन्नता को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उदाहरण के लिए, अरस्तू के अनुसार प्रसन्नता मानव जीवन का परम उद्देश्य है। महात्मा बुद्ध ने सिखाया कि कष्ट को समझने के बाद ही प्रसन्नता का मार्ग शुरू होता है। उन्होंने आष्टांगिक मार्ग अपनाने का सुझाव दिया जिसके मूल में स्वीकार्यता है। वेदों के अनुसार शुद्ध व्यक्तित्व का स्वरूप सत-चित्त-आनंद है जिसमें आनंद का तात्पर्य परमानंद से है यानी प्रसन्नता की परमावस्था।

पिछले साठ वर्षों में सकारात्मक मनोविज्ञान के विकास और प्रसन्नता के विज्ञान के उद्भव होने से करोड़ों डॉलर प्रसन्नता की खोज में खर्च किए गए हैं। फिर भी क्या हम कह सकते हैं कि इसके परिणामस्वरूप हम प्रसन्न हैं? शायद इसका विपरीत हो रहा है - प्रसन्नता पर हमारा ध्यान देना उसकी कमी को दर्शाता है, जैसे ज़्यादा अस्पतालों का होना यह दर्शाता है कि जनता ज़्यादा बीमार है। अन्यथा हम प्रसन्नता के बारे में इतनी बात क्यों करेंगे?

बाबूजी के अनुसार प्रसन्नता, आनंद और परमानंद आत्मा के गुण हैं और एक ऐसी अवस्था का परिणाम हैं जिसे समुचित रूप से दिव्यता के एकदम करीब की अवस्था माना जा सकता है। यह शुद्ध स्पंदन हमारे अस्तित्व के केंद्र के करीब से निकलता है, जो फिर हमारे तंत्र की सभी परतों में फैल जाता है और जिससे अस्तित्व के स्थूल स्तर भी शुद्ध होते जाते हैं।

यह नियम दिलचस्प है। इसमें ऊर्जा व पदार्थ की अवस्थाओं में प्राण के प्रवाह का ज्ञान शामिल है। यह धारा परमावस्था से निकलती है और वापस पदार्थ से, ऊर्जा में और फिर परमावस्था में जाकर इसका समापन होता है। नियम 8 में यही बताया गया है कि कैसे भोजन को सही समझ के साथ प्राप्त करने और सही मनोभाव के साथ ग्रहण करने से तीनों शरीरों को पोषण व शुद्धता प्राप्त हो सकती है और इससे हमें अंतिम अवस्था तक पहुँचने में सहायता मिल सकती है।

भोजन की भूमिका

भोजन हमारे दैनिक जीवन का एक महत्वपूर्ण अंश है। हमारी खुशी और स्वास्थ्य में योगदान देने के साथ-साथ भोजन हमें प्रसन्नता फैलाने का अवसर भी देता है - पारिवारिक रात्रि भोज, रेस्टोरेंट के विशेष भोज, क्रिसमस, दिवाली, ईद और हनुक्का की छुट्टियों के बारे में सोचिए। भोजन एक-दूसरे के साथ बाँटने और जुड़ने का एक तरीका है। भोजन करना, अपने शरीर में केवल रासायनिक तत्व डालना ही नहीं है बल्कि उससे कहीं अधिक है।

नियम 8 में, हमें जो कुछ भी मिले, उसे प्रसन्नतापूर्वक ‘सतत दिव्य विचार में’ खाने के लिए कहा गया है। अनेक संस्कृतियों में भोजन शुरू करने से पहले प्रार्थना करके या ईश्वर को धन्यवाद देकर भोजन के लिए आभार प्रकट करने की प्रथा है। यह आभार-क्रिया हमें भोजन शुरू करते ही दिव्यता के साथ जोड़ देती है ताकि भोजन करते समय हम उस सूक्ष्म जुड़ाव को बनाए रख पाएँ। इस तरह से हम स्रोत से आने वाली धारा को सक्रिय करते हैं जो प्रकृति के ताने-बाने में मौजूद है। इसमें हमारे भोजन का प्रत्येक कण भी शामिल होता है।

इन सूक्ष्मतम स्पंदनों का प्रभाव भोजन पर पड़ता है और जब ऐसा भोजन हमारे शरीर में प्रवेश करता है तब ये स्पंदन नसों और नाड़ियों के माध्यम से हमारे पूरे शरीर में फैल जाते हैं। इस प्रकार हम बाहर से ग्रहण किए गए भोजन का सर्वोत्तम संभव तरीके से उपयोग करते हैं और इससे शरीर के कण शुद्ध हो जाते हैं। हमारा प्रार्थनामयी विचार भोजन के साथ मिलकर शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक व आध्यात्मिक स्वास्थ्य का संवर्धन करता है। प्रार्थनामयी भाव से भोजन ग्रहण करने से प्राण के मार्ग खुल जाते हैं और वह प्रसन्नता जिससे वह भोजन संपन्न है, हमारे शरीर में प्रवेश करके उसे शुद्ध कर देती है।

इसके परिणामस्वरूप, भोजन करने से हमारी शारीरिक तंदुरुस्ती और आध्यात्मिक प्रगति लाभान्वित होती हैं। यह बहुत ही शक्तिशाली सिद्धांत है जिसका स्वास्थ्य, कल्याण और प्रसन्नता पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

प्राण की शक्ति

इस नियम की अपनी व्याख्या में बाबूजी एक ऐसा रहस्य प्रकट करते हैं जिसे बहुत कम लोग जानते हैं - प्राण पर अपने विचार का उपयोग करने से एक प्रकार का बल पैदा होता है जो हमें लक्ष्य की ओर ले जा सकता है। जब भोजन में विद्यमान प्राण हमारे विचार, जो प्रसन्नता से परिपूर्ण हैं, के संपर्क में आता है, तब यह अत्यधिक प्रभावकारी हो जाता है। इससे तंत्र की सभी परतें शुद्ध हो जाती हैं। बाबूजी के शब्दों में, “सत्य के साथ हमारे संपर्क में आने से जो स्थिति उत्पन्न होती है, वही हमें परमतत्व की ओर ले जाती है ..... इससे अनंत तक पहुँचने का हमारा मार्ग प्रशस्त होता है। इस प्रकार इतनी बड़ी दूरी आसानी से तय हो जाती है।”

बाबूजी का यह अवलोकन - कि भोजन में विद्यमान प्राण से, जिसका सत्य के साथ संपर्क है, हमारी चेतना का विस्तार तेज़ी से हो सकता है - उनके द्वारा बताए गए सबसे अद्भुत रत्नों में से एक है। जब हम भोजन ग्रहण करते समय परमतत्व पर अपने विचार को स्थिर करते हैं तो हम उसका प्रभाव भी ग्रहण करते हैं।

शुद्ध और पवित्र कमाई

अब हम इस नियम के अंतिम भाग पर आते हैं - शुद्ध और पवित्र कमाई का महत्व। विश्व भर से अनेक लोग नियम 8 के इस भाग के बारे में मुझ से प्रश्न पूछते हैं। चलिए पवित्र कमाई से शुरू करते हैं।

पवित्र कमाई का तात्पर्य जो मैं समझता हूँ, वह है - वे सभी कार्य जो हम अपने दिन-प्रतिदिन के वेतन को कमाने के लिए करते हैं। हर पल हम ग्राहकों, प्रकृति और अनेक लोगों से संबंध स्थापित कर परस्पर प्रभाव डालते हैं। कुछ हद तक हम सभी किसी-न-किसी प्रकार की सेवा ही करते हैं। यह एक आदान-प्रदान ही है। आदान-प्रदान चाहे जैसा भी हो, हम किस प्रकार ऐसे कार्यों को पवित्र बना सकते हैं, भले ही वे शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक या बौद्धिक हों? हम हृदय में मौजूद उस शुद्धता में किस प्रकार डूबे रह सकते हैं? यह केवल तभी हो सकता है जब हम दिव्यता से जुड़े रहें, दिव्यता में डूबे रहें। यही समाधान है।

पवित्रता का अर्थ है सर्वोच्च स्तर से सेवा करना और इसका अर्थ हुआ अपने गहनतम स्तर तक जाना। ऐसे में, जब हम किसी से संबंध स्थापित करते हैं तो गहनतम स्तर से अतिशय प्रेम प्रवाहित होने लगता है। ज़रा सोचिए, क्या अपने अधीन कार्य करने वालों के साथ, अपने वरिष्ठ लोगों के साथ, अपने सहकर्मियों के साथ बात करते हुए हम में उनके प्रति प्रेमभाव व सम्मान है?

इसके अतिरिक्त, आप इस बारे में सोचिए कि आप किस प्रकार के व्यवसाय में हैं? क्या यह ऐसा व्यवसाय है जिससे लोगों को हानि होती है? एक चरम उदाहरण लेते हैं यानी एक ऐसा व्यक्ति जो नशीले पदार्थ बेचकर या हथियारों की तस्करी से अपना जीवन निर्वाह करता है। निस्संदेह इन दोनों व्यवसायों से हानि पहुँचती है। दोनों तरह से कमाया गया धन किसी के जीवन की कीमत है। ऐसा जानकर क्या आप प्रसन्न होंगे? विभिन्न व्यवसाय अलग-अलग मात्रा में दूसरों को हानि पहुँचाते हैं लेकिन इसका निर्णय हम में से प्रत्येक को लेना है कि जिस तरह हम जीविका कमा रहे हैं, क्या वह लोगों को लाभ दे रहा है या हानि। यह पहली कसौटी है जो यह निर्धारित करती है कि हमारा व्यवसाय पवित्र है या नहीं।

दूसरी कसौटी है कि जो भी काम हम करते हैं, उसे हम पसंद करते हैं या उससे नफ़रत करते हैं। अपनी जीविका के लिए जो कुछ भी हम करते हैं, यदि हमें उसमें मज़ा आता है तो हम प्रसन्न हैं। यदि हम उस कार्य से नफ़रत करते हैं तो हम प्रसन्न नहीं होते।

तीसरी कसौटी है कि क्या हमारा व्यवसाय हमें संतुलित जीवन जीने में सहायता करता है। यदि हम एक दिन में सोलह से अठारह घंटे काम करते हैं, जैसा कि अनेक लोग करते हैं, क्या मुझे जीवन के अन्य पहलुओं - परिवार, स्वास्थ्य, अध्यात्म - के लिए समय मिल जाता है? यदि नहीं मिलता तो ऐसी परिस्थिति में हम प्रसन्न नहीं रहेंगे।

अब हम ईमानदारी पर आते हैं। क्या आपके व्यवसाय में किसी प्रकार की बेईमानी शामिल है, चाहे यह ग्राहकों को धोखा देना हो या सरकार को? यदि आपके व्यवसाय में रिश्वत लेना या देना, सूचना के साथ हेर-फेर करना या कोई अन्य बेईमानी भरा, अनैतिक, असामाजिक या अवैध गतिविधि शामिल हो तो आप ईमानदारी की कमाई नहीं कमा रहे हैं। मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि यदि आप अपनी नौकरी में अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं दे रहे हैं तब भी आप बेईमानी कर रहे हैं।

इस सूची में सभी परिदृश्य शामिल नहीं किए गए हैं, लेकिन मुझे विश्वास है कि आप समझ गए होंगे। आप में से कई लोग शायद सोचें, “मैं इससे सहमत हूँ लेकिन मेरे पास कोई और विकल्प नहीं है।” तो अपने आप से पूछें, “मेरे इरादे क्या हैं? क्या वे शुद्ध हैं? क्या वे ‘यम’ एवं ‘नियम’ के और इन 10 नियमों के अनुरूप हैं?” यदि आपका उत्तर है ‘नहीं’ या ‘पूरी तरह से नहीं’ तो शायद आपको अपना जीवन पूर्णतः बदलने के लिए दृढ़ विश्वास और साहस की आवश्यकता होगी।

अतः, जो कुछ भी हम ग्रहण कर रहे हैं, उसके लिए हमें बहुत सावधान रहना होगा। बेईमानी की कमाई से खरीदी गई सर्वाधिक सात्विक सब्ज़ियों में भी एक अलग तरह के स्पंदन होंगे। जैसे ही हम गलत कमाई से खरीदी गई किसी भी वस्तु को ग्रहण करते हैं, स्पंदन ज़्यादा भारी और जटिल बन जाते हैं।

हार्टफुलनेस की सभी शिक्षाओं में जो मूल तत्व व्याप्त है, वह है ‘शुद्धता’। हम शुद्धता से ही उत्पन्न हुए हैं, हमारे अस्तित्व का केंद्र शुद्धता है और यह शुद्धता ही है जो परमावस्था तक पहुँचने की हमारी नियति का निर्माण करती है। लेकिन हमारे विचार, भावनाएँ और कर्म हमारे तंत्र में अशुद्धियाँ और जटिलताएँ ले आते हैं और वे भारीपन के विभिन्न स्तरों में होती हैं। उदाहरण के लिए, यदि हम किसी बेईमानी के काम या भ्रष्टाचार में संलग्न हैं तो हमारे तंत्र में बहुत ज़्यादा अशुद्धता आ जाती है और यह केवल हमें ही प्रभावित नहीं करती है।

शायद आप सोचें कि आप अच्छी नौकरी कर रहे हैं, अपने परिवार को बढ़िया-बढ़िया चीज़ें दे रहे हैं जबकि यदि आप बेईमानी से कमाते हैं तो वास्तव में शायद आप उन्हें बर्बाद कर रहे हैं। इसे ही अतिरिक्त प्रभाव (side-effect) कहा जाता है। भले ही आपकी पत्नी और बच्चों का आपकी कमाई से कोई लेना-देना न हो, लेकिन आपके अस्तित्व का स्पंदनीय स्तर उन्हें प्रभावित करेगा। स्पंदनों को ऐसे ही ग्रहण किया जाता है। यदि आपकी कमाई का माध्यम शुद्ध और पवित्र है तो आपका अंतर्मन साफ़ होगा और इसका लाभ आपके पूरे परिवार को होगा।

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प्रकृति में सभी चीज़ें शुद्ध होती हैं क्योंकि उनका आधार शुद्ध होता है। मनुष्य द्वारा अर्जित वस्तुएँ भी शुद्ध हो सकती हैं यदि कमाई का माध्यम शुद्ध और पवित्र हो। इससे हमारे मानव तंत्र की मूल शुद्ध प्रकृति बनी रहती है। इसीलिए साधु-संतों ने शुद्ध एवं पवित्र कमाई को इतना महत्व दिया है।

नियम 8 का क्रियान्वयन

यह नियम हमें इस तथ्य के प्रति जागरूक करता है कि भोजन ग्रहण करने और धन कमाने जैसी मामूली दिखने वाली गतिविधियाँ भी, यदि उन्हें ठीक से किया जाए तो, हमारे तंत्र की शुद्धता और चेतना के विस्तार में योगदान दे सकती हैं अन्यथा ये हमें नीचे भी खींच सकती हैं।

जैसे कि हमने पहले चर्चा की थी, प्रसन्नता के बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है। यह मानवता का केंद्रीय लक्ष्य है। वास्तव में, कुछ देशों के संविधान में भी प्रसन्नता प्राप्ति के प्रयास के बारे में लिखा गया है। प्रसन्नता का अर्थ जानने के लिए इतना सारा समय और संसाधनों का उपयोग करने और कुछ भी प्राप्त न कर पाने के बाद शायद अब संसार सच्चाई सुनने के लिए तैयार हो।

मैंने इस विषय पर कई बार बोला और लिखा है। स्थायी प्रसन्नता बाह्य स्रोतों से नहीं मिलती है। प्रसन्नता एक ऐसी अवस्था है जो दिव्यता अर्थात् हमारे अस्तित्व के केंद्र के एकदम करीब है और इसके प्रभाव बाहरी परतों तक फैलते हैं और उन्हें शुद्ध करते हैं। यदि हम अपने आप को ऊर्जा के क्षेत्र के रूप में देखें जिसमें विभिन्न स्पंदनीय स्तरों की परतों की श्रृंखला है तो प्रसन्नता की अवस्था दिव्यता के बहुत करीब होती है।

अपने सूक्ष्मतम रूप में प्रसन्नता आत्मा का स्वभाव है। इसे क्रियान्वित होते देखने के लिए हमें केवल एक छोटे बच्चे को देखना होगा जो स्वभावतः आनंदपूर्ण व प्रसन्नचित्त होता है। सबसे बड़ी नासमझी जिसके कारण हम भटक गए हैं, यह है कि प्रसन्नता बाहरी चीज़ों से मिलेगी। हम बाहर की तरफ़ देखते हैं, बावजूद इसके कि आध्यात्मिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान दोनों इस बात से सहमत हैं कि प्रसन्नता हमें अंदर से ही प्राप्त होती है।


हमारा प्रार्थनामयी विचार भोजन के साथ मिलकर शारीरिकमानसिकभावनात्मक व आध्यात्मिक स्वास्थ्य का संवर्धन करता है।


यदि हम प्रसन्न नहीं हो पा रहे हैं तो इसका एक कारण है हमारी अलगाव और ‘मैं-भाव’ की समझ तथा बाहरी चीज़ों जैसे पूँजी, शक्ति और पद के साथ हमारा तादात्म्य। दूसरे शब्दों में हम आत्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करने के बजाय अहंकार के साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं और दूसरों से अलगाव का अनुभव करते हैं। ऐसी समझ से हमारा ध्यान और प्रयास इच्छाओं की पूर्ति पर केंद्रित रहता है। इच्छित वस्तुएँ शायद हमें खुशियाँ दे दें लेकिन ऐसी खुशी क्षणिक होती है। इसे कायम रखने के लिए हम अधिक से अधिक इच्छित वस्तुओं को यह सोचकर हासिल करते हैं कि वे हमें प्रसन्नता देती रहेंगी। कुछ जाना-पहचाना सा लगता है न?

हमारे पास सभी इच्छित वस्तुओं के होने के बावजूद हम अप्रसन्न क्यों रहते हैं, इसका एक और कारण है। यह इसलिए है क्योंकि हम अपने आपको अपराध-बोध, शर्मिंदगी, क्रोध, भय, ईर्ष्या, नाराज़गी या चिंता से भरे अतीत के कटु अनुभव व यादों के कारण होने वाले दर्द के प्रति सुन्न कर लेते हैं। जब हम में दर्द महसूस करने की क्षमता नहीं रहती है तो हमारी कुछ और भी महसूस करने की क्षमता नहीं रहती है जिसमें आनंद और प्रसन्नता भी शामिल हैं। ऐसी स्थिति में हम कुछ भी महसूस नहीं करते हैं।

कई भावनाएँ जिनका हम दिन-प्रतिदिन अनुभव करते हैं, हमारी अवचेतन प्रतिक्रियाओं और प्रत्युत्तरों के कारण उत्पन्न होती हैं। ये प्रतिक्रियाएँ उस संस्कारिक भार का परिणाम हैं जो हम अतीत से ढोते आ रहे हैं। वे भावनाएँ हमें खुशी देती हैं या दर्द, इसके आधार पर हम उन पर अच्छे या बुरे का ठप्पा लगा देते हैं। भले ही किसी दिन हमें अनेक भावनाओं से गुज़रना पड़े लेकिन एक प्रसन्न व संतुष्ट व्यक्ति वह है जो इन भावनाओं को मानवीय अनुभव के उतार-चढ़ाव का हिस्सा मानकर स्वीकार करता है। इसके विपरीत, यदि हमने अपनी महसूस करने की क्षमता को बंद कर दिया है ताकि दर्द महसूस न हो तो शायद उन भावनाओं के साथ पुनः जुड़ने के लिए हमें कुछ सरल अभ्यासों की आवश्यकता हो।

हार्टफुलनेस के अभ्यास यही करते हैं। ध्यान के दौरान गहराई में जाकर हम सोचने से महसूस करने की ओर बढ़ते हैं। यह एक सुरक्षित व समर्थित वातावरण में उस प्रेम के कारण होता है जो स्रोत से प्रेषित होता है। हार्टफुलनेस सफ़ाई में हम अतीत के उन संस्कारों की परतों को हटाते हैं जिनके कारण हम अवचेतन रूप से नियोजित तरीकों में अटके रह जाते हैं। और हार्टफुलनेस प्रार्थना में हम स्रोत के साथ जुड़ते हैं और उस जुड़ाव के पोषक व स्फूर्तिदायक प्रभावों का अनुभव करते हैं।

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प्रसन्नता को आत्मसात करना

ध्यान अध्यात्म का आधार है। ध्यान के बिना, शुद्धता की अवस्थाओं को छूना तो दूर, एक छोटी सी आध्यात्मिक अवस्था या दशा को प्राप्त करना भी संभव नहीं है। और हमें यह महसूस होता है - हार्टफुलनेस के ध्यान के सत्र के अंत में हम अपनी आंतरिक दशा या अवस्था में बदलाव का अनुभव करते हैं। यह हमारी चेतना में विस्तार के कारण होता है। इसके बाद हम इस आंतरिक दशा को अपने पूरे अस्तित्व में आत्मसात करने का तरीका अपनाते हैं। यह बिलकुल वैसे ही होता है जैसे भोजन करने के बाद चपापचयी (metabolic) प्रक्रिया के द्वारा भोजन को पचाते हैं। आध्यात्मिक रूप से आत्मसात करने की प्रक्रिया को मैंने AEIOU कहा है। यह हमें अपने अस्तित्व की सभी परतों में इस विस्तार को महसूस करने में सक्षम बनाता है।

जब हम आत्मसात करने के लिए समय नहीं निकालते तब हम प्राप्त नई दशा को खो देते हैं। ध्यान करने के बाद AEIOU के सतत अभ्यास से हमारे अस्तित्व की - आध्यात्मिक से लेकर ऊर्जा संबंधी और फिर स्थूल शरीर तक - सभी परतों पर प्रभाव पड़ता है जिससे वे रूपांतरित हो जाती हैं। इसे मैं ऊपर से नीचे जाने की प्रक्रिया (top down approach) कहूँगा। नियम 8 में जो तरीका बताया गया है, वह नीचे से ऊपर जाने की प्रक्रिया (bottom up approach) है जिसमें आत्मसात करने की प्रक्रिया स्थूल स्तर से शुरू होकर ऊर्जा के स्तर में फैल कर आध्यात्मिक स्तर तक जाती है। इसका समापन परमावस्था में होता है। लक्ष्य की ओर हमारी यात्रा में ये दोनों तरीके एक-दूसरे के पूरक हैं।

क्या यह अद्भुत नहीं है कि हम अपनी विचार-शक्ति के माध्यम से प्रसन्नता का सर्वोच्च स्वरूप ला पाते हैं और अपने भोजन को पवित्र बना पाते हैं? इस प्रक्रिया में शरीर के प्रत्येक कण को शुद्ध करने की शक्ति है जिससे शारीरिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है। इससे प्राण उत्तम रूप से ऊर्जित हो जाता है और हम परमावस्था तक पहुँच पाते हैं। एक और पुस्तक ‘राज-योग का दिव्य दर्शन’ में बाबूजी इसकी पुष्टि करते हैं –

इष्ट स्थान तक पहुँचाने में बाह्य शक्तियाँ भी सहायक हैं, यदि उन्हें ठीक से निर्देशित किया जाए। पूर्वीय विचारकों ने भोजन के विषय पर विशेष बल दिया है। इसे पवित्रता तथा स्वच्छता से सही ढंग से पकाया जाना चाहिए। यह तो हुई स्वास्थ्य संबंधी बात। किंतु यदि यह सात्विक है और ईश्वर की निरंतर याद में रह कर पकाया गया है तो इसका प्रभाव आश्चर्यजनक होगा। और यदि इसे पूरा समय ईश्वर के ध्यान में रहकर खाया जाए तो यह सभी प्रकार के आध्यात्मिक रोगों का उपचार कर देगा और उन अवरोधों को हटा देगा जो हमारी प्रगति में बाधक हैं।

यह सिद्धांत भोजन के साथ हमारे संबंध पर पूर्णतः एक नई रोशनी डालता है।

भोजन को पवित्र मानकर ग्रहण करना

पिछली सदी के मध्य तक भोजन की बहुत कमी रही है और विश्व के कुछ भागों में आज भी ऐसा ही है। संसाधित भोजन की उपलब्धि से आर्थिक रूप से समृद्ध देशों में तो यह कमी अब नहीं रही। लेकिन इसका एक नकारात्मक पहलू है - हमारा पोषण करने के बजाय, भोजन हमारे रोगों के प्रमुख कारणों में से एक बन गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा दिए गए आँकड़ों के आधार पर, सन् 2016 में संसार के 40% से अधिक वयस्क लोगों का वज़न ज़्यादा था। इस मामले में बच्चों के प्रतिशत में बहुत अधिक फ़र्क नहीं था। मोटापा एक महामारी बन चुका है। इसके तीन मुख्य कारण हैं - आवश्यकता से अधिक खाना, भोजन में पोषण संबंधी गुणवत्ता की कमी होना और सही तरह से भोजन न खाना जिसमें हमारा सामान्य मनोभाव भी सम्मिलित है। इन सबके साथ जब अपर्याप्त व्यायाम और अधिक तनाव मिल जाते हैं तब जीवन शैली संबंधी रोग होते हैं जैसे उच्च रक्तचाप, मधुमेह, हृदय रोग और कुछ प्रकार के कैंसर।

ऐसा कहा जाता है कि अधिक खाने का एक मूल कारण है भावुकता में आकर भोजन करना (emotional eating)। इसमें किसी चीज़ की अपर्याप्तता या कमी की भावना की आपूर्ति के लिए हम खाते रहते हैं। हम तनाव और चिंतावश भी खाते हैं। कभी-कभी हम बचपन के किसी कटु अनुभव के कारण जानबूझ कर वज़न बढ़ाते हैं। भोजन के लिए प्रबल इच्छा सबसे शक्तिशाली इच्छाओं में से एक है। इन सभी का निवारण इसी नियम द्वारा होता है।

मैं भोजन के प्रकारों के विषय पर भी थोड़ी चर्चा करना चाहता हूँ। भोजन के प्रकार का हमारे स्वास्थ्य एवं कल्याण पर पड़ने वाले प्रभाव को जानने के बाद अनेक लोग शाकाहारी या वेगन (जो लोग दूध और दूध से बनी चीज़ें भी नहीं खाते) बन गए हैं। योगी यहाँ एक और दृष्टिकोण को मान्यता देते हैं - पशुओं में पौधों की तुलना में चेतना का एक अलग स्तर होता है। यह चेतना खाद्य पदार्थ के ऊर्जा-क्षेत्र में मौजूद होती है। विभिन्न प्राणियों - खनिजों, वनस्पतियों, पशुओं और मनुष्यों - के तीन शरीरों का योगिक विज्ञान हमें यह समझने में सहायता करता है कि आध्यात्मिक विकास के लिए हम सात्विक भोजन क्यों करते हैं। ऊर्जा के दृष्टिकोण से भी शाकाहारी भोजन माँस की तुलना में पचाना आसान होता है। माँस में भारीपन भी होता है जो पशु के संस्कारों से संबंधित है। इसलिए सामान्यतः आध्यात्मिक साधक शाकाहारी होते हैं ताकि उनके तंत्र में हल्केपन को बनाए रखा जा सके।

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प्रसन्नता शुद्धता है

इस चरण पर आकर आप शायद सोच रहे हों कि यह नियम प्रसन्नता व शुद्धता के बारे में है या भोजन व धन जैसे संसाधनों के साथ हमारे संबंध के बारे में है। मैं आपको बताता हूँ कि मैं इसे कैसे देखता हूँ - ये हमारी अशुद्धियाँ व जटिलताएँ ही हैं जो हमें परमानंद और प्रसन्नता का अनुभव नहीं करने देतीं। अतः यदि आप सच में प्रसन्नता का अनुभव करना चाहते हैं तो यह नियम आपका पूरा तंत्र शुद्ध करने में आपकी सहायता करेगा। इसके परिणामस्वरूप आपको वास्तविक प्रसन्नता का अनुभव होगा।

इसके बाद सभी संसाधनों के साथ आपका संबंध सहज, शुद्ध और ईश्वरीयता के साथ सामंजस्य में होगा। इसका मतलब है कि आप केवल वही ग्रहण करेंगे जो उस समय आपके लिए आवश्यक होगा और आप स्वयं को मिली हर वस्तु का उपयोग सभी के अधिकतम लाभ के लिए करेंगे। भोजन या धन लुटाने या नष्ट करने की या लालची बनने की कोई आवश्यकता नहीं होगी और किसी के साथ बेईमानी का समझौता करने की भी कोई आवश्यकता नहीं होगी।

नियम 8 पूरी तरह से जीवन शैली से संबंधित है - हम कैसे कमाते हैं, किस प्रकार वह धन खाद्य-पदार्थ खरीदने में इस्तेमाल किया जाता है, कैसे भोजन पकाया जाता है, कैसे उसे ग्रहण किया जाता है और उसे ग्रहण करने के बाद हम क्या करते हैं। हम में से अनेक लोग खाने से पहले प्रार्थना करते हैं, लेकिन खाना खाते समय और खाने के बाद आने वाले हमारे विचारों के बारे में क्या कहा जाए? हम भोजन को किस प्रकार पचा रहे हैं? जिस प्रकार सुबह का ध्यान पूरे दिन के लिए ध्यानस्थ अवस्था को आत्मसात करने की शुरुआत है, उसी प्रकार भोजन करना उस खाद्य पदार्थ को पचाकर शरीर में आत्मसात करने की शुरुआत है।


प्रकृति में सभी चीज़ें शुद्ध होती हैं क्योंकि उनका आधार शुद्ध होता है। मनुष्य द्वारा अर्जित वस्तुएँ भी शुद्ध हो सकती हैं यदि कमाई का माध्यम शुद्ध और पवित्र हो। इससे हमारे मानव तंत्र की मूल शुद्ध प्रकृति बनी रहती है। इसीलिए साधु-संतों ने शुद्ध एवं पवित्र कमाई को इतना महत्व दिया है।


अतः एक सरल सुझाव है - अपना भोजन समाप्त करने के बाद आधे मिनट के लिए अपनी आँखें बंद करें और अपने केंद्र से जुड़ें। उस भोजन के लिए और उन सभी के लिए, जिन्होंने आपको भोजन परोसा था, तहे दिल से कृतज्ञता महसूस करें। यदि आप रेस्टोरेंट में हैं तो परोसने वालों को धन्यवाद दें। बख्शीश देना बहुत आसान होता है लेकिन बहुत कम ही दिल से आभार निकलता है। कुछ हद तक इसका प्रभाव उन पर अवश्य पड़ेगा। दिव्य याद में खाना समाप्त करने के बाद, जो कुछ भी हुआ है, उसके प्रति कृतज्ञतापूर्ण होना एक बहुत ही शक्तिशाली क्षण होता है। अभ्यास करते-करते आपको जल्द ही समझ आ जाएगा कि नियम 8 अनेक स्तरों पर काम करता है।

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दाजी

दाजी हार्टफुलनेसके मार्गदर्शक

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