वास्को गैस्पर हमें यह समझने के लिए कहते हैं कि हम वास्तव में जीवंत कैसे बन सकते हैं। आइंस्टीन की तरह वे हमें अलगाव के भ्रम को दूर करने और समग्र से जुड़ने के लिए आमंत्रित करते हैं। वे हमें 'ईगो टू इको' (व्यक्तिगत भलाई से बढ़कर संपूर्ण संसार की भलाई का सोचना) की ओर बढ़ने की चुनौती देते हैं तथा हृदय के आंतरिक संसार को व्यक्त करने के उपाय सुझा रहे हैं।
संपूर्ण बनना, अपने सत्व को जीवन से जोड़ना
जीवन एक महान रहस्य है। कई बार हम सोचते हैं कि वास्तव में हम कौन हैं और हमारी इस जगत में क्या भूमिका है। मैं आपको अपने हृदय की गहराइयों से संपर्क साधने और निम्नलिखित प्रश्नों पर विचार करने के लिए आमंत्रित करता हूँ -
मानव जीवन का वास्तविक ध्येय अथवा उद्देश्य क्या है?
उस सामर्थ्य को व्यक्त करने से हमें क्या रोकता है?
उस उच्चतर संभावना की ओर बढ़ने में कौन हमारी मदद कर सकता है?
मैं हमेशा आइंस्टीन द्वारा अपनी बेटी को लिखे गए एक पत्र से प्रेरणा पाता हूँ जिसमें उन्होंने लिखा था, “मनुष्य समय और स्थान में सीमित, उस संपूर्ण का एक अंश है जिसे हम ब्रह्मांड कहते हैं। वह स्वयं को, अपने विचारों को और अपनी भावनाओं को अन्य सभी चीज़ों से अलग मानता है जो एक प्रकार से उसकी चेतना का दृष्टि-भ्रम है। यह भ्रम हमारे लिए एक प्रकार का कारावास है जो हमें केवल अपनी निजी इच्छाओं और अपने कुछ निकटतम व्यक्तियों के प्रति स्नेह तक ही सीमित रखता है। हमारा उद्देश्य खुद को इस कारागार से मुक्त करना होना चाहिए। इसे करने के लिए हमें सभी जीवित प्राणियों और संपूर्ण प्रकृति को अंगीकार करने के लिए अपनी करुणा का दायरा बढ़ाना होगा।”
हमारा वास्तविक ध्येय अपनी सीमाओं का विलय करना तथा उस संपूर्ण यानी ब्रह्मांड/जीवन/ स्रोत/ईश्वर
(जो भी आपके दिल को सबसे ज़्यादा भाता हो उस शब्द का प्रयोग करें) के साथ एक होना है।
मुझे यह पहले प्रश्न का एक प्रेरणादायक उत्तर लगता है - कि हमारा वास्तविक ध्येय अपनी सीमाओं का विलय करना तथा उस संपूर्ण यानी ब्रह्मांड/जीवन/ स्रोत/ईश्वर (जो भी आपके दिल को सबसे ज़्यादा भाता हो उस शब्द का प्रयोग करें) के साथ एक होना है। योग और धर्म जैसे शब्द भी अपने मूल में इसी ओर संकेत करते हैं।
वह क्या है जो उस ध्येय को प्राप्त करने के मार्ग में रुकावट डाल रहा है? जो चीज़ वास्तव में हमें रोकती है वह है हमारा अहंकार और उससे जुड़े भय, मोह एवं इच्छाएँ। इसके अतिरिक्त हमारे वे हिस्से, जो हालाँकि हमारी रक्षा करने का प्रयास करते हैं, अंततः हमारे, अन्य लोगों और जीवन के बीच और भी अधिक अवरोध एवं सीमाएँ खड़ी कर देते हैं। कुछ लोगों के अनुसार ego यानी अहंकार को, edging God out यानी ईश्वर को दूर करना कहा जा सकता है। यह हमें विकसित होने से रोकने वाली चीज़ों से पूरी तरह मेल खाता हुआ प्रतीत होता है।
स्व से समष्टि तक (ईगो टू इको)
हम स्व से समष्टि तक यानी अपने निम्नतर ‘स्व’ के संकुचन से लेकर अपने अस्तित्व के या अपने उच्चतर ‘स्व’ के अनंत विस्तार तक, जीवन के संपूर्ण ताने-बाने से जुड़कर कैसे आगे बढ़ सकते हैं? तथा ऐसा कर पाने में कौन हमारी सहायता कर सकता है?
मेरा मानना है कि इस प्रश्न का उत्तर शरीर तथा मन से परे हमारे भीतर ही है। यह हमारे हृदय में, हृदय के मूल में, उच्चतर स्व में वास करता है जो अंदर गहराई में मौजूद केंद्र है, आंतरिक दिव्य प्रकाश है जो सदैव ही प्रकाशमान रहता है। छांदोग्य उपनिषद में सदियों पहले कहा गया था –
अथ यदतः परो दिवो ज्योतिर्दीप्यते विश्वतः पृष्ठेषु सर्वतः पृष्ठेष्वनुत्तमेषूत्तमेषु लोकेष्विदं वाव तद्यदिदमस्मिन्नन्तः पुरुषे ज्योतिः ॥ १.७॥
“एक ऐसा प्रकाश है जो पृथ्वी पर सभी चीज़ों से परे, हम सभी से परे, स्वर्ग से परे, उच्चतम से परे, सर्वोच्च स्वर्ग से भी परे चमकता है।
यह वही प्रकाश है जो आपके हृदय में भी चमकता है।”
जैसे ही हम अपने भीतर उस दिव्य उपस्थिति से जुड़ते हैं, हमें अपनी आत्मा के साथ तालमेल बिठाने के लिए मार्गदर्शन मिलने लगता है। हम अपने जीवन को अपने तरीके से जीने के बजाय दिव्य मार्गदर्शन में जीने लगते हैं। ‘समर्पण’ और ‘सेवा’ जैसे शब्द हमारे अस्तित्व के प्रकाशस्तंभ बन जाते हैं। हम उस मार्गदर्शन के प्रति समर्पित होने लगते हैं जिसे हमारी आत्मा निरंतर हमें देती रहती है। उसे हम अपने हृदय में प्राप्त करते हैं जो फिर हमें सही दिशा में निर्देशित करता है। हम इस संसार में स्वयं को उस तरह प्रकट करते हैं जैसे हम वास्तव में हैं और जिस तरह हम उस वृहत्तर अस्तित्व की सेवा कर सकते हैं जिसका हम अंश हैं ताकि हम ज़्यादा लोगों की भलाई में योगदान दे सकें।
धीरे-धीरे हम एक चलती-फिरती प्रार्थना बन जाते हैं, जैसा बेनेडिक्ट भिक्षु डेविड स्टाइंडल-रास्ट कहते हैं - “प्रार्थना आदेश देना और उसके पूरा होने की अपेक्षा करना नहीं है। प्रार्थना स्वयं को संसार के जीवन के साथ, प्रेम के साथ और उस शक्ति के साथ अनुकूलित करना है जो सूर्य, चंद्रमा और सितारों को संचालित करती है।”
संबंध को पोषित करना
मैंने कई पद्धतियों को स्रोत के साथ संबंध स्थापित करने, उसे अनुकूल बनाने और पोषित करने में सहायक पाया है लेकिन मेरी यात्रा का मार्गदर्शन करने वाले मुख्य अभ्यास ‘हार्टफुलनेस ध्यान’ तथा ‘हार्टफुलनेस प्रार्थना’ रहे हैं। प्रार्थना उस दिव्य उपस्थिति के साथ आंतरिक संबंध बनाने में सहायता करती है और ध्यान उसे शक्ति प्रदान करता है जिससे मुझे प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने और आध्यात्मिक रूप से विकसित होने में सहायता मिलती है।
हम सभी दिव्यता की चिंगारियाँ हैं जो एक-दूसरे को सहयोग देते हुए पुनः अपने असली घर, उस स्रोत की ओर बढ़ रही हैं। कितना अच्छा होगा यदि हम उस संबंध को, ईश्वर की याद को, अपने भीतर और बाहर बनाए रखें ताकि हम स्वयं को और दूसरों को मुखौटों से परे देख पाएँ, सभी को एक ही अस्तित्व के अंश के रूप में, एक जैसा देख पाएँ। एक ऐसे संसार की कल्पना करें।
“प्रार्थना आदेश देना और उसके पूरा होने की अपेक्षा करना नहीं है। प्रार्थना स्वयं को संसार के जीवन के साथ,
प्रेम के साथ और उस शक्ति के साथ अनुकूलित करना है जो सूर्य, चंद्रमा और सितारों को संचालित करती है।”
क्या ऐसा कर पाना आसान है? नहीं। क्या यह संभव है? जी हाँ। इसके लिए एक-एक कदम आगे बढ़ाते हुए हमें एक-दूसरे के बीच तथा अपने और पर्यावरण के बीच परस्पर संबद्धता को गहराई से समझने के लिए अपनी जागरूकता का विस्तार करना होगा। जितना अधिक हम विस्तार करते हैं, उतना ही अधिक हम चीज़ों को समाहित करते जाते हैं तथा अपनी सीमाओं से परे चले जाते हैं और जीवन की चुनौतियों का सामना करते हुए नेकी, करुणा और शांति के लिए अपना संपूर्ण सामर्थ्य प्राप्त करते हैं।
ईश्वर करे कि हम सभी अपना दिव्य सत्व बनने और सभी प्राणियों के लाभ के लिए संसार में उसे प्रकट करने के तरीके खोज पाएँ। ईश्वर करे कि हम सभी अपने आप को उस सदैव मौजूद दिव्य मार्गदर्शन के प्रति समर्पित करते हुए यह समझ पाएँ कि हम वास्तव में कौन हैं। ईश्वर करे कि दूसरों के विकास में सहायता करते हुए हमारा अपना भी आध्यात्मिक विकास होता जाए। आइए, हम सब मिलकर संसार को ऐसा बनाएँ जिसे हमारा दिल संभव मानता है।
कलाकृति - जस्मी मुद्गल

वास्को गैस्पर
वास्को ह्यूमन फ़्लरिशिंग फैसिलिटेटर (मानव समृद्धि सहायक) के रूप में कार्य करते हैं और संसार भर में संस्थाओं में बदलाव को प्रेरित करते हैं ताकि संसार ज़्यादा मानवीय व सहानुभूतिपूर्ण बन... और पढ़ें