दाजी छठे सार्वभौमिक नियम को प्रस्तुत कर रहे हैं - सभी को अपना भाई समझें और उसी के अनुरूप उनके साथ व्यवहार करें। यदि इसे हम प्रारंभिक बिंदु समझें तो यह छठा नियम हमें पूर्वाग्रहों से उबरने और सभी लोगों के प्रति परस्पर प्रेम व सम्मान विकसित करने में सहायता करता है। आगे चलकर यह एकता एवं एकात्मकता की अवस्था प्रकट करता है जो मूल स्रोत का ही प्रतिबिंब है।

नियम 6 -

सभी को अपना भाई समझें और
सबसे तदनुरूप व्यवहार करें।

सार्वभौमिक भाईचारे का यह नियम विश्व के सभी धर्मों और आध्यात्मिक परंपराओं का मूलभूत सिद्धांत है। लेकिन व्यावहारिक रूप से हमें आज भी संप्रदायवाद, पूर्वाग्रह, प्रत्यक्ष द्वेष भावना और एक ऐसा विश्व देखने को मिलता है जो हिंसा के कारण बिखर गया है तथा जिसमें देशों के बीच और देश के भीतर विभिन्न गुटों के बीच बहुत अविश्वास है। हम एक ऐसी मानव प्रजाति हैं जो धर्म और जाति के आधार पर होने वाले गहरे विभाजनों के कारण टूट-फूट गई है। यह परिस्थिति उन देशों में भी है जो कथित रूप से सभ्य हैं। आप समाचार पत्रों में पढ़कर जान जाएँगे कि हज़ारों सालों की धार्मिक शिक्षाओं के बाद भी हम सार्वभौमिक भाईचारे से कोसों दूर हैं।

समय-समय पर शांति और प्रेम का संदेश देने के लिए विश्व के विभिन्न हिस्सों में महान गुरु व मार्गदर्शक प्रकट हुए हैं। लेकिन उनकी सार्वभौमिक शांति एवं भाईचारे की याचना को अनसुना कर दिया गया। उनमें से अनेक की उपेक्षा की गई, उन पर अत्याचार किए गए और कुछ को तो सूली पर चढ़ा दिया गया। नाज़ियों ने कितने यहूदियों को मार डाला था, स्टालिन, ईदी आमिन, मुसोलिनी ने कितने लोगों को मारा था या फिर 15 अगस्त 1947 को भारत और पकिस्तान की सीमाओं में आने-जाने के दौरान और रवांडा, कॉन्गो आदि में जातीय युद्धों में कितने लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। जब आप नफ़रत के कारण होने वाले उपद्रवों के परिणामस्वरूप हुई मृत्यु की संख्या को जोड़ें तो ये आँकड़े कोविड वायरस के कारण होने वाली मृत्यु के आँकड़ों को बहुत पीछे छोड़ देंगे। फिर भी इस महामारी ने हमारा बहुत अधिक ध्यान खींचा। शायद हम सभी में किसी न किसी चीज़ के लिए कुछ नफ़रत दबी बैठी है जिसकी वजह से नफ़रत पूरी तरह से नहीं हट पा रही है।


जब आप किसी को तकलीफ़ देते हैं जिसमें वही ईश्वरीय आत्मा है जो आप में है - असल में आपकी और उसकी आत्मा एक समान है - तब अपने आप से पूछेंकौन किसको तकलीफ़ दे रहा हैएक जैसी आत्माएँ केवल देखने में अलग-अलग हैं क्योंकि उनके कर्म के कारण उत्पन्न व्यक्तित्व अलग-अलग हैं।


इस परिप्रेक्ष्य में हमें सार्वभौमिक भाईचारे पर एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता है और हार्टफुलनेस में सत्य की गहरी आनुभविक समझ की शक्ति से यह संभव है।

यह नियम वास्तव में बहुत सरल है। बाबूजी लिखते हैं, “सभी चीज़ें जो परमतत्व से आ रही हैं उनके बारे में ऐसा समझें मानो वे एक ही स्रोत से आ रही हैं।” इस बात को समझाने के लिए वे माँ और उसके बच्चों का उदाहरण देते हैं- “जिस प्रकार एक माँ के बच्चे एक-दूसरे के साथ एक ही रिश्ते से जुड़े हैं, उसी प्रकार मूल स्रोत से उत्पन्न सभी प्राणी भाईचारे की डोर से बँधे हैं; उनका आपस में गहरा रिश्ता है।” यह इतना सरल है।

जब आप किसी को तकलीफ़ देते हैं जिसमें वही ईश्वरीय आत्मा है जो आप में है - असल में आपकी और उसकी आत्मा एक समान है - तब अपने आप से पूछें, कौन किसको तकलीफ़ दे रहा है? एक जैसी आत्माएँ केवल देखने में अलग-अलग हैं क्योंकि उनके कर्म के कारण उत्पन्न व्यक्तित्व अलग-अलग हैं। यह जागरूकता हमें तब प्राप्त होती है जब हम हृदय क्षेत्र के दूसरे बिंदु अर्थात् ‘आत्मा चक्र’ की गहराई में डूबे रहते हैं। दुर्भाग्य से, इस चक्र से गुज़रने वाले कई लोग इस सार्वभौमिक भाईचारे की जागरूकता से चूक जाते हैं क्योंकि उनमें दशा को प्राप्त करने (Acquire), उसे जीवंत करने (Enliven), उसे आत्मसात करने (Imbibe), उसके साथ एक हो जाने (Becoming One) और उसमें लय (Unite) हो जाने (AEIOU) में कहीं न कहीं कमी रह जाती है।

जब हम एकात्मकता के इस सार्वभौमिक नियम का अनुभव करते हैं और इसे अपनाते हैं तब हम पहले तल पर पहुँच पाते हैं। इस नियम को अपनाए बिना हम ईश्वर के भक्त नहीं बन सकते क्योंकि यही अस्तित्व का मूलभूत तत्व है। वास्तव में यही विशुद्ध विज्ञान है।

हम सभी आपस में जुड़े हुए हैं।

हार्टफुलनेस के सार्वभौमिक भाईचारे की परिकल्पना इस दोहराने लायक अनुभव से आती है कि अपने अस्तित्व के केंद्र में हम सभी एक ही सत्य से जुड़े हुए हैं। यह सार्वजनिक स्रोत है जहाँ से सृष्टि रचना के समय हर चीज़ की शुरुआत हुई थी। इस स्तर पर कोई अलगाव नहीं है और ब्रह्मांड में हर कोशिका और हर अणु में वही स्रोत मौजूद है।

आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान ने भी इसे स्वीकार किया है। वैज्ञानिक दावा करते हैं कि लगभग 13.7 अरब वर्ष पहले, महाविस्फोट (बिग बैंग) के होने से एकदम पहले एक अत्यंत सूक्ष्म बिंदु था जिसे सिंगुलैरिटी कहा जाता है। वह इतना सूक्ष्म था कि उसके कोई आयाम नहीं थे। जिस ब्रह्मांड को आज हम जानते हैं, उसी महाविस्फोट से अस्तित्व में आया। सबसे पहले अणु बने। ये अणु सभी जड़ व चेतन के मूलभूत अंश हैं।

हमारे शरीर में एक कोशिका को बनाने के लिए एक हज़ार खरब अणु लगते हैं और मानव शरीर में लगभग 370 खरब कोशिकाएँ होती हैं जो एक ही स्रोत से उत्पन्न होती हैं।

इसके अतिरिक्त, जीनोम के अध्ययनों में यह निष्कर्ष निकला है कि डी.एन.ए. के संदर्भ में दो व्यक्तियों के बीच शायद ही कोई फ़र्क होता है। वास्तव में, मानवीय वंशावली के बारे में अनुवांशिक रूप से पता लगाया जाए तो सभी की व्युत्पत्ति का मूल अफ्रीका में मिल सकता है।

यदि यह सही है तो ऐसा क्यों है कि हमें अलगाव महसूस होता है?

बाबूजी समझाते हैं, “हमारे विचारों व कर्मों ने ही यह अलगाव पैदा किया है। हमारी स्वार्थ भावना ने ही हम मनुष्यों को एक-दूसरे से दूर कर दिया है। यह अलगाव की भावना ही हमारे पराए होने का मूल कारण है।”

अलगाव एक भ्रम है

अधिकांश मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि जब एक बच्चे का जन्म होता है तब उसे नहीं पता होता कि वह माँ से अलग हो गया है। धीरे-धीरे अपने जीवन के पहले कुछ महीनों में उसमें अपने अलग अस्तित्व के होने की भावना विकसित होती है और वह अपने आस-पास के लोगों व चीज़ों के साथ तादात्म्य स्थापित करने लगता है। अलगाव और पहचान प्राप्त करने की यह प्रक्रिया अहम् की निर्माण प्रक्रिया का अंश है।

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जैसे-जैसे एक बच्चा वयस्क होने लगता है, स्पर्धा की भावना के कारण अलगाव पैदा होता है और कभी-कभी शत्रुता की भावना भी आ जाती है। दूर-दूर रहना भी एक कारक है जो अलगाव को बढ़ाता है और हम में से अधिकांश लोग अपने जीवन में इसका अनुभव करते हैं। जब हम वयस्क हो जाते हैं तब कई बार हम अपने परिवार को छोड़कर कहीं दूर जाकर घर बसा लेते हैं। ये दूरियाँ अलगाव को और भी बढ़ा देती हैं - शुरुआत में हमें काफ़ी मज़बूत जुड़ाव महसूस होता है लेकिन समय के साथ वह कम होता जाता है।

ऐसा लगता है कि यह अलग होने की भावना हमारे अनुकूलन का ही हिस्सा है। यह माया का ही आवरण है जो हमारे अस्तित्व के हर पक्ष को प्रभावित करता है। जैसे ही इस आवरण को हटा दिया जाता है, हम इस वास्तविकता को मानने लगते हैं कि हम सभी का स्रोत एक ही है। यदि हमें वास्तव में मनुष्य बनना है तो हमें इसे स्वीकार करके साकार करना होगा।

मैं’ से ‘हम’ तक

हम भ्रम के इस आवरण को कैसे हटा सकते हैं? यह हृदय पर केंद्रित ध्यान-अभ्यास से स्वतः हो जाता है क्योंकि हम एकात्मकता का अनुभव करते हैं। इसे केवल जानना ही पर्याप्त नहीं है। जहाँ व्यक्तिगत पहचान के लिए हमारे अहम् की भावना केवल ‘मैं’ से संबंधित होती है, वहीं हृदय केवल ‘हम’ से संबंधित होता है। हृदय ही है जहाँ हम सब परस्पर जुड़े होते हैं, जहाँ हम स्वाभाविक रूप से एकात्मकता महसूस करते हैं, विशेषकर जब हमारी चेतना का क्षेत्र शुद्ध हो जाता है। जब हृदय-केंद्रित ध्यान को योगिक प्राणाहुति का सहारा मिलता है तब हम स्वाभाविक रूप से प्रेम से भर जाते हैं। जैसे-जैसे हमारे प्रेम करने की क्षमता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे हमारे अंदर भाईचारे की भावना भी बढ़ती जाती है।

जैसे-जैसे हम अपने अभ्यास में प्रगति करते जाते हैं, हम अपने विचारों व कर्मों के द्वारा बने इस व्यैक्तिक ताने-बाने को पहचान पाते हैं और उसे तोड़ पाते हैं जिससे हमारी चेतना का विस्तार होने लगता है। जब चेतना की यह विस्तारित अवस्था हमारे जीवन में, दूसरों के साथ हमारे प्रतिदिन के व्यवहार में फैलने लगती है तब हम अंततः उस जुड़ाव में स्थिर हो जाते हैं। सतत अभ्यास से यह जुड़ाव पोषित होता है और जागरूकता के साथ इसे अपने जीवन में भी लागू किया जा सकता है। यह अंदर से ही आता है न कि किसी बाह्य शक्ति से। यह परिवार के साथ और पूरी मानवता के साथ हमारे सारे रिश्तों को रूपांतरित कर देता है। सबसे पहले तो हम सभी के प्रति प्रेम महसूस करते हैं। यह एक सच्चा मूलभूत बदलाव है जो हमारे जीवन को समृद्ध बनाता है। बाद में, हम महसूस करने के स्तर से परे चले जाते हैं क्योंकि तब हमसे प्रेम स्वाभाविक रूप से प्रसारित होने लगता है। फिर हमें प्रेम करने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि हम स्वयं प्रेम बन जाते हैं।

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बाबूजी के शब्दों में, “इससे स्वाभाविक रूप से परस्पर संबंध बनेंगे व अधिक लगाव होगा और उसी के अनुरूप हमारा एक-दूसरे के साथ व्यवहार भी परिवर्तित हो जाएगा। इससे सभी को अधिक शांति और संतोष प्राप्त होगा। ऐसा हो जाए तो कितना अच्छा हो।”

हमारी यहाँ की सफलता से हमें वहाँ सफलता मिलती है।

यह यहाँ समाप्त नहीं होता है। सांसारिक जीवन के बारे में एक बड़ी सच्चाई है जिसे हम में से कई लोग नहीं समझते। हम यह मानने की गलती करते हैं कि संसार में हमारा जीवन अस्थायी है और इसलिए यह महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन यह बिलकुल भी सच नहीं है। जो कुछ भी हम यहाँ करते हैं, वह इस सांसारिक स्तर के परे भी हमारा भाग्य निर्धारित करता है।

इसका क्या अर्थ हुआ? बाबूजी के शब्दों में, “असल में यह दुनिया दूसरी दुनिया का प्रतिबिंब है। जब इसे ठीक तरह से ढाला जाता है तो इसका असर उस दूसरी दुनिया पर भी पड़ता है जिसका यह प्रतिबिंब है और वह भी शुद्ध होने लगती है।”

यह संसार उस सूक्ष्म या ब्रह्मांडीय संसार अर्थात् ब्रह्मांड मंडल की झलक है। हर चीज़ यहाँ प्रकट होने से पहले सूक्ष्म रूप में वहाँ होती है। ऐसे अनेक उच्चतर क्षेत्र हैं और प्रत्येक दूसरे से अधिक सूक्ष्म है। जब हम धरती पर अपने सांसारिक अस्तित्व को परिष्कृत कर लेते हैं तब उसका प्रभाव हर उच्चतर क्षेत्र पर पड़ते-पड़ते उच्चतम क्षेत्र तक पड़ता है। हम बहुआयामी लोग हैं और जो कुछ भी हम इस भू-स्तर पर करते हैं, उसका प्रभाव सभी अन्य स्तरों पर पड़ता है। यह जीवन हमारे अस्तित्व के सभी स्तरों को बदलने का एक बहुमूल्य अवसर है। जब हम इन सार्वभौमिक नियमों के अनुरूप कार्य करते हैं तब इससे हमारे अस्तित्व के सभी आयाम रूपांतरित हो जाते हैं। यही योगिक विज्ञान है।

व्यवहार में सार्वभौमिक भाईचारा

अब कल्पना करें कि हमारे हृदय की गहराई से उभरने वाला मात्र एक करुणा का कार्य हमारे अस्तित्व के सभी स्तरों को परिवर्तित करने की शक्ति रखता है। नियम 6 कहता है, “सभी को अपना भाई समझें और सबसे तदनुरूप व्यवहार करें।” अतः हम देख सकते हैं कि इस नियम के दो पहलू हैं - समझना और करना।

पहला पहलू है समझना - “सभी को अपना भाई समझें....।” यह एक एहसास है जो अस्तित्व की अवस्था से आता है और यह हमारी समझ में एक ऐसा बदलाव लाता है जो हमें अलगाव और एकता के बीच विकल्प चुनने में सहायता करता है। समझने से अज्ञानता व विरोध दूर हो जाते हैं और प्रबोधन, स्पष्टता व शुद्धता प्राप्त होती हैं। यह होने और करने के बीच एक सेतु का कार्य करता है।

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दूसरा पहलू है करना - “....और सबसे तदनुरूप व्यवहार करें।” एक बार जब आप अपने अस्तित्व की गहराई से यह समझ लेते हैं कि हम सभी भाई-बहन हैं तब आप दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करेंगे?

समझना अस्तित्व की अभिव्यक्ति है। करना समझने की अभिव्यक्ति है।

तीसरा पहलू अस्तित्व में होना है जिसे अक्सर हम भूल जाते हैं। आध्यात्मिक दशाओं के स्वाद को एक बुफ़े डिनर की तरह नहीं लेना चाहिए। ‘स्वाद लेकर भूल जाना’ हमारी दुखद संस्कृति नहीं बननी चाहिए। इसीलिए AEIOU का अभ्यास बहुत महत्वपूर्ण है। इससे हम अनुभव का आनंद उठा पाते हैं और उसे आत्मसात और स्वयं में जीवंत रख पाते हैं ताकि हम उसके साथ एक हो पाएँ।

अब एक चौथा पहलू अर्थात् अनस्तित्व भी है। हम सैद्धांतिक रूप से इसे समझने का प्रयास न करें बल्कि उस अवस्था का सच में अनुभव करने और उसमें विलय होने के लिए स्वयं को तैयार करें।

सार्वभौमिक भाईचारे की अभिव्यक्ति

अपने जीवन में सार्वभौमिक भाईचारे को अभिव्यक्त करने का क्या अर्थ है? इसका उत्तर देने से पहले मैं इस सिद्धांत से जुड़ी भ्रांति और सामान्य मिथ्याबोध का स्पष्टीकरण देना चाहूँगा।

सार्वभौमिक भाईचारे की अभिव्यक्ति का अर्थ यह नहीं है कि हम सड़क पर मिलने वाले हर एक को गले लगाते रहें। इसका यह अर्थ नहीं है कि हम हर उस बात से सहमत हो जाएँ जो दूसरे कहें और किसी का विरोध न करें। इसका यह अर्थ नहीं है कि हम हमेशा दूसरों को खुश रखने और उन्हें संतुष्ट करने का प्रयास करते रहें। इसका यह अर्थ नहीं है कि हम जो कुछ भी सुनें उसे मान लें। इसका यह अर्थ नहीं है कि हम स्वयं को किसी अनुचित रिश्ते में बने रहने के लिए बाध्य करें। इसका यह अर्थ नहीं है कि यदि कोई भी हमें धमकाए, हमारा फ़ायदा उठाए और चालाकी से हमसे काम निकलवाए तो हम ऐसा होने दें।


हम दूसरों के प्रति सच्ची करुणा तब तक नहीं रख सकते जब तक कि हमारे अंदर स्वयं के प्रति करुणा न होन ही हम दूसरों को प्रेम कर सकते हैं जब तक हम स्वयं से प्रेम न करें।


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हम दूसरों के प्रति सच्ची करुणा तब तक नहीं रख सकते जब तक कि हमारे अंदर स्वयं के प्रति करुणा न हो, न ही हम दूसरों को प्रेम कर सकते हैं जब तक हम स्वयं से प्रेम न करें। हम यहाँ एक-दूसरे से सीखने के लिए हैं। हम यहाँ एक-दूसरे की सहायता करने और दूसरों से सहायता पाने के लिए हैं। हम केवल तभी प्रगति करते हैं जब दूसरों के साथ हमारे रिश्ते अच्छे हों जिनमें परस्पर प्रेम व सम्मान हो।

जैसे-जैसे हम अभ्यास में प्रगति करते जाते हैं, हमारी जागरूकता का विस्तार होता जाता है। हममें मान्यताओं की गहरी समझ आने लगती है जो अन्यथा सत्य की हमारी समझ को प्रभावित कर देती हैं जिसमें अलगाव की भावना भी शामिल है। समय के साथ यह अलगाव की भावना एकात्मकता की भावना की ओर ले जाती है। जब इस समझ के कारण स्वाभाविक रूप से हमारे अंदर बदलाव आता है तब हम दूसरों के साथ भाई-बहन जैसा व्यवहार करने लगते हैं। और जब यह हमारा स्वभाव बन जाता है तब हम कह सकते हैं कि हमने सार्वभौमिक भाईचारे के इस नियम को साकार किया है।

जब हम इस नियम को साकार कर लेते हैं तब हमारा जीवन मूलभूत रूप से रूपांतरित हो जाता है। हम अपने परिवार के सदस्यों, मित्रों व सहकर्मियों के साथ-साथ समाज के लोगों व पूरी मानवता और फिर सभी प्राणियों के साथ अर्थपूर्ण एवं संतोषप्रद संबंध स्थापित करते हैं। हमारे अंदर दूसरों के लिए सच्चे प्रेम और करुणा की भावना विकसित होती है, भले ही लोगों में हमारे लिए ऐसी भावनाएँ न हो, क्योंकि हम सभी एक ही सत्य से जुड़े हैं। हम सब एक हैं।

संबंधित वीडियो देखने के लिए: 

https://www.youtube.com/watch?v=GfBo3gyLsvo&list=PL1QpxVYcCuCYtRiUo4AoWOZALqkwZUNhT&index=6


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दाजी

दाजी हार्टफुलनेसके मार्गदर्शक

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