दाजी दसवें सार्वभौमिक नियम को प्रस्तुत करते हैं। यह नियम सतत आत्म-सुधार के प्रति एक प्रार्थनामयी दृष्टिकोण है। इस नियम का पालन करने से आत्म-स्वीकार्यता बढ़ती है और यह समझ मिलती है कि हम प्रगति की राह पर चल रहे हैं। यह हमें एक ऐसा तरीका प्रदान करता है जिससे हम स्वयं को अपराधबोध और शर्मिंदगी के बजाय सहानुभूति की भावना से देखते हैं। इससे हममें कृतज्ञता और विनम्रता विकसित होती है ताकि हम स्वयं में बदलाव लाने का प्रयास करेंयह स्वीकार करें कि हमारे जीवन आपस में जुड़े हुए हैं और कैसे हम पहले अपने आप के प्रति और फिर उसके फलस्वरूप दूसरों के प्रति उदार बनें। इसके परिणामस्वरूप हममें बच्चों के समान अबोधता और विस्मय की भावना पुनः जागृत हो जाती है जिससे हमारा दैनिक जीवन अत्यधिक आनंद से भर जाता है।

नियम 10 -

अगर कोई अपराध भूल से हो जाए तो सोते समय ईश्वर को अपने सन्मुख समझकर उनसे दीनता की हालत में क्षमा माँगें, पश्चाताप करें और इसके लिए प्रार्थना और निश्चय करें कि फिर से वही अपराध न होने पाए।

मनुष्य से गलती होना स्वाभाविक है। सुधरने का प्रयास करना भी मनुष्य का स्वभाव है।

अंततः हम बाबूजी के दसवें नियम पर आते हैं जो सतत सुधार पर केंद्रित है। पिछले नौ नियमों की सहायता से हमें चेतना के विस्तार का अनुभव होता है और हम अपने नैतिक मूल्यों, व्यवहार और रिश्तों को बेहतर बनाते जाते हैं। अब दसवाँ नियम, निरंतर सुधार करने के एक बहुत ही सरल दैनिक अभ्यास द्वारा हमें इसके अगले स्तर पर ले जाता है।

क्या आपने अब तक इस बात पर ध्यान दिया है कि नियम 1 से दिन की शुरुआत होती है जब हम सुबह सूर्योदय से पहले ध्यान का अभ्यास करते हैं और नियम 10 से दिन का अंत होता है जब हम सोने से पहले सतत सुधार के लिए प्रार्थना का अभ्यास करते हैं? इनके बीच में अन्य 8 नियम हैं जो जागृत अवस्था में हमारे द्वारा अपनाई जाने वाली जीवनशैली पर केंद्रित हैं।

इस लेख को पढ़ने के बाद आपको यह भी एहसास होगा कि नियम 10 का यह अभ्यास अन्य नियमों का भी साथ में पालन करने के लिए एक उत्तम तरीका है।

सतत सुधार में दो पहलू हैं -

पहला है कि हम अपनी गलतियों को पहचानें और स्वीकार करें, फिर उनके लिए पश्चाताप करें, क्षमा माँगें और अंततः उन्हीं गलतियों को न दोहराने का संकल्प लें।

दूसरा है कि उन्हीं गलतियों को फिर से होने से रोकें। दूसरे शब्दों में, पुराने तरीकों को छोड़कर जीवनयापन के ऐसे श्रेष्ठतर व सहज तरीकों को अपनाएँ जो प्रकृति के साथ सामंजस्य में हों।

इन दोनों पहलुओं के संयोग से ही सतत आत्म-सुधार संभव है।

इस नियम का अभ्यास सोने से पहले क्यों किया जाता है?

इसका उत्तर प्राकृतिक दैनिक चक्र से संबंधित है - सोने से पहले हम तनावमुक्त होते हैं। हमारी दैनिक गतिविधियाँ पूरी हो चुकी होती हैं और हम सोने की तैयारी कर रहे होते हैं। यदि हम प्राकृतिक चक्रों के साथ तालमेल में होते हैं तो हमारा स्वायत्त तंत्रिका तंत्र (autonomic nervous system) परानुकंपी रूप में बदल चुका होता है। इस समय हमारी श्वास-प्रक्रिया शांत होती है, हमारा संपूर्ण ऊर्जा तंत्र शिथिल हो जाता है। हमारे मस्तिष्क की तरंगें धीमी हो जाती हैं ताकि हम आसानी से अपने आप ही अवचेतन क्षेत्र में चले जाएँ। तुलनात्मक रूप से हम एक मुक्त अवस्था में होते हैं। बाबूजी इसे ‘प्रकृति की संतोषप्रद अवस्था’ कहते हैं।

अंतरावलोकन व चिंतन के लिए यह एक अच्छा समय है। इस समय हम शांत होते हैं तथा अपनी कमियों को स्वीकार करने और उन पर रचनात्मक रूप से काम करने की अधिक संभावना होती है। यादें और मन के गहरे विचार उभरने लगते हैं। दिन के समय जब अनुकंपी तंत्रिका तंत्र की ऊर्जा सक्रिय होती है तब अहम् अधिक प्रतिक्रियात्मक होता है। इस समय यह अहम् अधिक स्वीकार करने वाला और कम प्रतिक्रियात्मक हो जाता है। अतः हम अपना मूल्याँकन करने और सुधार करने के लिए रात्रि का यह सर्वोत्तम समय चुनते हैं जब इसके सर्वाधिक प्रभावी होने की संभावना होती है।

आत्म-सुधार के इस अभ्यास के बाद जब हम सोते हैं तब हम जागरूकता में बदलावों को मस्तिष्क के अल्पकालिक याद के केंद्रों से दीर्घकालिक याद के केंद्रों में सम्मिलित करते हैं। इससे नए प्रकार के वैचारिक स्वरूप बनते हैं। इन नए प्रकार के स्वरूपों को अवचेतन बनकर स्वतः गतिशील होना होगा ताकि वास्तविक परिवर्तन हो सके। हर रात को नियम 10 का पालन करके हम निरर्थक वैचारिक स्वरूपों को समाप्त करते हुए नए वैचारिक स्वरूप बनाते हैं। यह एक ग्रहणशील समर्पित हार्दिक अवस्था में होता है जो अनुकूलन व बदलाव के लिए सर्वाधिक सहायक है। इस समय आरोप-प्रत्यारोप लगाने के बजाय हम चीज़ों को छोड़ने लगते हैं। इस अभ्यास का स्वाभाविक परिणाम है आत्म-सहानुभूति।

इस अभ्यास को हर रात करते हुए हम इसकी आदत को जितना अधिक गहरा बनाते हैं उतना ही यह स्वतः होने लगता है और हमें 24 घंटों में से बाकी बचे समय में इसी तरह से प्रतिक्रिया करने में आसानी होती है। हम सभी गलतियाँ करते हैं। कोई भी दोषमुक्त नहीं है। समस्या हमारी प्रतिक्रिया करने में है। अक्सर हम अपनी गलतियाँ नहीं मानते हैं, अपने आप से भी नहीं - सज़ा, शर्मिंदगी या तानों के डर के कारण और इसलिए भी कि हमें बचपन से उन गलतियों के लिए कुसूरवार और शर्म महसूस करना सिखाया गया है। याद रखें कि सूक्ष्म शरीर में भय, क्रोध, तनाव, चिंता, अपराध-बोध और शर्म जैसी भावनाएँ आने से हमें घबराहट होने लगती है जिससे हमारे शरीर में ‘लड़ने, पलायन करने या पूर्णतः स्थिर हो जाने की प्रतिक्रिया’ सक्रिय हो जाती है। जब ऐसा होता है तब व्यक्ति ठीक से सोच नहीं पाता। ऐसा होने पर स्वायत्त तंत्रिका तंत्र अनुकंपी रूप अर्थात् बचाव रूप में बदल जाता है जो हमला करने, बचाव करने या स्थिर हो जाने के लिए नियोजित है।

इसके परिणामस्वरूप हम अपने आप को कोमलता से सुधारने के बजाय अपनी गलतियों को छुपाते हैं और दूसरों को दोष देते हैं जिनमें हमारे माता-पिता, जीवनसाथी, सहकर्मी और आसपास रहने वाले लोग शामिल हैं। हम इंकार करते हैं, गलतियों पर पर्दा डालते हैं, झूठ बोलते हैं, संघर्ष करते हैं और निंदा करते हैं। ये सभी अहम् की प्रतिक्रियाएँ हैं जो तब उभर आती हैं जब हमारी सुरक्षित रहने की भावना को खतरा होता है। यह तब भी हो सकता है जब खतरा सिर्फ़ काल्पनिक हो, वास्तविक नहीं।

वास्तव में यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि हमारा अहम् किससे तादात्म्य स्थापित करता है। जब अहम् मुख्यतः शरीर के साथ तादात्म्य स्थापित करता है तब हम स्थूल शरीर से हमला या बचाव करेंगे। जब यह मन के साथ तादात्म्य स्थापित करता है तब हम मन से हमला या बचाव करेंगे। अधिकांश लोगों में इन दोनों का मिश्रण होता है। जब अहम् आत्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करता है तब हम शरीर या मन से बचाव करने पर ध्यान नहीं देते और अपनी आंतरिक अवस्था पर केंद्रित व एकाग्रचित्त रहते हैं। ऐसे में हमारी प्रतिक्रिया करने की, हमला या बचाव करने की कम संभावना होती है क्योंकि आत्मा अविकारी व अपरिवर्तनीय है। अतः उसे कोई खतरा नहीं होता। ऐसे में हम सुरक्षित रहने के लिए ‘लड़ने, पलायन करने या पूर्णतः स्थिर हो जाने की प्रतिक्रिया’ में नहीं फंसते।

आजकल ऐसे लोग बहुत कम ही मिलते हैं जो अपनी गलतियों की जिम्मेदारी लें, पश्चाताप करें, माफ़ी माँगें और उन्हीं गलतियों को न दोहराने का संकल्प लें। लेकिन पश्चाताप के मनोभाव को विकसित किए बिना एक सच्चा जिज्ञासु बनना असंभव है।

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हार्टफुलनेस के सभी अभ्यास इसीलिए बनाए गए हैं ताकि हमें आत्मसंयम प्राप्त हो और नियम 10 इन्हीं अभ्यासों में से एक है। जब हम थोड़ा रुककर केंद्रित बने रह पाते हैं तब हम स्वयं को अपनी गलतियों का पश्चाताप करने का अवसर देते हैं। पश्चाताप के इस अभ्यास से अहम् धीरे-धीरे सूक्ष्मतर और अधिक परिष्कृत होता जाता है तथा हमारे अंदर से हल्कापन पूरे अस्तित्व में भर जाता है।

नियम 10 एक प्रार्थनामयी अभ्यास क्यों है?

दिन-प्रतिदिन के जीवन में ज़्यादातर हम अहम् को संतुष्ट करने में लगे रहते हैं और यह स्वाभाविक भी है क्योंकि अहम् हमारी पहचान है और हमारे अस्तित्व के लिए आवश्यक है। अहम् सोचने व कार्य करने में हमारी सहायता करके हमें प्रेरित करता है जिसमें इस लेख को पढ़ना और आत्म-सुधार के नियम का पालन करना भी शामिल है। दुर्भाग्य से, अहम् झूठी पहचानों को भी जमा करता जाता है जिन्हें हम अपनी मान्यताओं के साथ बनाए रखते हैं। हमारी मान्यताएँ उन अवचेतन संस्कारों से उत्पन्न होती हैं जो हमने अतीत में जमा किए हैं। वे वर्तमान में हमारी पसंद-नापसंद से भी उत्पन्न होती हैं - जिन्हें पाने की हम इच्छा रखते हैं और जिनसे हम दूर रहते हैं। हमारे विचार व भावनाएँ इन्हीं मान्यताओं का प्रतिबिंब हैं। हमारे शब्द व कर्म इन्हीं विचारों व भावनाओं से निकलते हैं। हमारी गलतियाँ केवल एक गुमराह अहम् को संतुष्ट करने के लिए किए गए काम और बोले हुए शब्द ही हैं।

हमारी मान्यताएँ गहराई से जमी योजनाएँ हैं। इन योजनाओं की नियम पद्धति मुख्यतः पसंद-नापसंद पर आधारित होती है और हमारी नापसंद प्रायः हमारे भय से संबंधित होती है। सभी भय की भावनाओं का मूल कारण हमारे अपने केंद्र या स्रोत से अलग होने का एहसास होता है। जब हम भूल जाते हैं कि हम कहाँ से आए हैं और वास्तव में हम कौन हैं तब अहम् बाहरी चीज़ों से जुड़ने लगता है।

इसके परिणामस्वरूप हम अपने माता-पिता, अपनी देखभाल करने वालों, अपने शिक्षकों, अपने मित्रों, सामाजिक नियमों और उनकी मान्यताओं के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। हम सीखते हैं कि सफलता धन-दौलत, ताकत, लोकप्रियता, ज्ञान, ख्याति, जूनून या ओहदे आदि से मापी जाती है। पहचान पाने के इन बाह्य प्रतीकों को पाने की हमारी तड़प ही इच्छा होती है। जैसे ही अहम् बाहरी चीज़ों के साथ तादात्म्य स्थापित करने लगता है, हम अपने सच्चे स्व को भूलकर विभिन्न प्रकार की छवियाँ ग्रहण कर लेते हैं। अंततः इन छवियों की परतें हमारी व्यक्तिगत वास्तविकता यानी हमारा व्यक्तित्व बन जाती हैं। ये परतें जितनी अधिक जटिल होती जाती हैं, उतना ही अधिक हम मानसिक संपूर्णता व स्वास्थ्य से दूर होते चले जाते हैं जिससे हमारा मन अनेक दिशाओं में जाने लगता है और परेशान रहता है।

मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि धन-दौलत, ताकत, लोकप्रियता, ज्ञान, ख्याति, जूनून या ओहदा गलत हैं। केवल जब अहम् अपनी पहचान को इनके साथ जोड़ लेता है, तभी सब गलत हो जाता है। सभी गलतियों का मूल कारण पहचान के बारे में गलत समझ है यानी वह मूलभूत गलतफ़हमी जो इस बात को लेकर है कि हम असल में कौन हैं।

अहम् को प्रायः निम्नतर स्व माना जाता है, यद्यपि यह बात केवल तभी सही है जब अहम् हृदय द्वारा मार्गदर्शित नहीं होता है, जब हम भूल जाते हैं कि वास्तव में हम कौन हैं। और ये 10 नियम दैनिक चक्र के चौबीसों घंटे हमें यह याद रखने में सहायता करते हैं कि हम कौन हैं। वास्तव में ये ब्रह्मांडीय हृदय के ऐसे रहस्य हैं जो प्रकृति के साथ सामंजस्य में हैं। जब अहम् हृदय की नैतिक बुद्धिमत्ता द्वारा मार्गदर्शित नहीं होता है तब यह दिशाहीन हो जाता है और आसानी से गलत दिशा में जा सकता है। जब हम गुमराह अहम् को संतुष्ट करने का प्रयास करने लगते हैं तब हमारी इच्छाएँ हावी हो जाती हैं, हम स्वार्थी बन जाते हैं और अपना सच्चा स्वरूप भूल जाते हैं। तब हम सार्वभौमिक नियमों को भूल जाते हैं और अपने कर्तव्यों व प्रतिबद्धताओं की उपेक्षा करने लगते हैं। जब हम अपने कर्तव्यों का तिरस्कार करते हैं तब हम स्वयं के विरुद्ध, दूसरों के विरुद्ध, मानवता के विरुद्ध, वातावरण के विरुद्ध और सभी प्राणियों के विरुद्ध गलत काम करते हैं। लेकिन, चूँकि आमतौर पर हम यह जानते ही नहीं हैं कि हमारा अहम् गुमराह हो गया है, हम अपने आपको कभी भी गलत नहीं मानते हैं और गलती के लिए प्रायश्चित करना तो दूर हम गलतियों को स्वीकार भी नहीं करते हैं।

इसका उपाय बहुत ही सरल है - हृदय के माध्यम से अपने अस्तित्व के स्रोत के साथ प्रार्थनापूर्ण भाव से जुड़ें और अपने उच्चतम स्व, अर्थात् आंतरिक गुरु के साथ तालमेल बैठाएँ। यहाँ हमें परम गुरु, हमारा नैतिक दिशा-सूचक मिलता है। यह स्वाभाविक रूप से हमें अपने दोष व गलतियाँ अंदर से महसूस करवाता है और हम आसानी से उनके लिए पश्चाताप कर सकते हैं। इस क्षेत्र में अहम् शक्तिहीन होता है।

जब हम एक रिक्त और प्रार्थनामयी हृदय के माध्यम से सार्वभौमिक चेतना से जुड़ते हैं तब हमारी जागरूकता बढ़ती है और हम बिना किसी धारणा के स्वयं को एक उच्चतर परिप्रेक्ष्य से देखते हैं। आत्म-स्वीकार्यता और आत्म-सहानुभूति के होने पर हम अपने दोषों और कमियों के बारे में जान पाते हैं। आंतरिक ‘स्व’ की कोमलता के कारण हमारा हृदय विनम्र होकर पिघल जाता है और हम अपनी गलतियों के लिए पश्चाताप करके उन्हें न दोहराने का संकल्प लेते हैं।

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हम किस तरह की गलतियाँ करते हैं?

क्या आपको ‘व्यवहार’ का विचार याद है? जब हम अपने कर्तव्य, अपने व्यवहार का पालन करते हैं तब हम स्वतः ही दूसरों और प्रकृति के साथ सामंजस्य में होते हैं। जब हम अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते तब हम अक्सर गलतियाँ करते हैं, भले ही हम उन्हें जान-बूझकर न करें। ऐसी गलतियाँ इसलिए होती हैं क्योंकि हम प्रकृति के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं चलते हैं - हम विपरीत दिशा में चलते हैं। इन गलतियों को अकर्मण्यता की गलतियों और कृत्य की गलतियों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

अकर्मण्यता की गलतियाँ - ये गलतियाँ हमारे किसी काम को न करने के कारण होती हैं जो सामान्यतः भय, स्वार्थ या निष्क्रियता की वजह से होती हैं - परिणामों व प्रभावों का भय, असफलता का भय, राज़ खुल जाने का भय, आलोचना का भय, अस्वीकार किए जाने का भय, अपेक्षाओं को पूरा न कर पाने का भय, बदलाव का भय और अज्ञात का भय। स्वार्थ गुमराह अहम् का परिणाम है; और निष्क्रियता में आलस्य, यथापूर्व स्थिति बनाए रखना तथा परिवर्तन का विरोध होता है। अपना कर्तव्य पूरा न करना ‘अकर्मण्यता की गलती’ की श्रेणी में आता है।

उदाहरण के लिए, एक कर्मचारी के रूप में अगर आप जानते हैं कि एक सहकर्मी कंपनी के धन का गबन कर रहा है तो आपको क्या करना चाहिए? क्या उसकी शिकायत करना आपका कर्तव्य है, चाहे इसमें जोखिम हो? अकर्मण्यता के अन्य उदाहरणों में सत्य का समर्थन न कर पाना, अपने बच्चे को सही न कर पाना जिसमें बुरी आदतें विकसित हो रही हैं और अपने परिवार या समाज में किसी ज़रूरतमंद व्यक्ति की सहायता न कर पाना शामिल हैं।

कृत्य की गलतियाँ - ये गलतियाँ हमारे कर्मों से होती हैं। उदाहरण के लिए, जब हम किसी को शारीरिक रूप से या भावनात्मक रूप से आहत करते हैं, जब हम बेईमानी करते हैं या धोखा देते हैं, किसी ऐसी चीज़ को चाहते हैं जिस पर किसी और का अधिकार है, जब हम विषयासक्त होते हैं या कुछ प्राप्त करना चाहते हैं और जब हम एकता, प्रेम, सत्य और सहजता जैसे प्रकृति के मूलभूत आदर्शों के विरुद्ध काम करते हैं।

जानबूझकर की जाने वाली गलतियाँ बनाम अनजाने में हुई गलतियाँ

यद्यपि हम कुछ गलतियाँ जानबूझकर करते हैं लेकिन आमतौर पर दूसरों को चोट पहुँचाने का हमारा कोई इरादा नहीं होता है। अधिकतर हमारी गलतियाँ हमारे दृष्टिकोण और हमारे व्यवहार के तरीकों में अंतर के कारण होती हैं। एक्हार्ट टोले ने अपनी पुस्तक ‘ए न्यू अर्थ’ (एक नई धरती) के अध्याय ‘द पेन बॉडी’ (दर्द का शरीर) में इस बात को बहुत अच्छे से लिखा है। हम प्रायः बिना सोच-विचार किए परिस्थितियों और लोगों के प्रति उन तरीकों से प्रतिक्रियाएँ करते हैं जिन्हें हमारे अवचेतन में दृढ़ता से स्थापित योजनाएँ निर्धारित करती हैं। इतना ही नहीं, हम दूसरों के तौर-तरीकों से अनभिज्ञ और उनकी भावनाओं के प्रति असंवेदनशील हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, सांस्कृतिक असंवेदनशीलताएँ और गलतफ़हमियाँ लोगों को बुरी तरह से आहत कर सकती हैं। अन्य लोग उनके प्रति की या कही गई किसी बात के लिए संवेदनशील हो सकते हैं जिसका कारण उनका अपना अतीत हो।

यहाँ व्यक्तित्व की बात भी आती है क्योंकि कुछ लोग अपनी उपस्थिति, लहज़े और हाव-भाव से ही भयभीत कर देते हैं, जिसके बारे में वे जानते भी नहीं हैं। वे अनजाने में दूसरों को आहत कर देते हैं। गलतियाँ इरादे, विचार, शब्द और कर्म के स्तर पर होती हैं। यदि हमारे इरादों में शुद्धता है तो हमारे विचारों में भी शुद्धता होगी। ऐसे मामले में, चाहे हम अपने व्यक्तित्व के कारण कठोर नज़र आएँ, फिर भी यह अनजाने में हुई गलती ही है।

कभी-कभी हम गलतफ़हमियों की वजह से गलतियाँ करते हैं। अन्य समय पर हम अपने कर्मों के परिणामों को पहले से देख नहीं पाते या हम व्यवहार में शिष्टाचार के नियमों को नहीं जानते। उदाहरण के लिए, आपका मित्र आपको किसी कार्य से संबंधित मीटिंग का समय पूछता है और आप कहते हैं सुबह 9 बजे क्योंकि आपको यही याद है। वास्तव में वह मीटिंग सुबह 8 बजे होती है और आप दोनों उससे चूक जाते हैं। यह सच्च में गलती है। कुछ गलतियाँ आवेगी होती हैं - कोई आपके चेहरे से मक्खी उड़ाने की कोशिश कर रहा है और आपको लगता है कि वह आपको मारने की कोशिश कर रहा है और इसलिए आप आत्म-रक्षा में वापस उसे मारने लगते हैं। यह एक अनैच्छिक प्रतिक्रिया है लेकिन यदि आप किसी को जानबूझकर घूँसा मारें तो यह एक अलग तरह की गलती होगी। कुछ गलतियाँ एक ही बार होती हैं जबकि कुछ आदतन होती हैं और आपको उनकी लत लग सकती है। कुछ लोग पहली बार के अपराधी होते हैं और कुछ अभ्यस्त अपराधी होते हैं।

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गलतियों का प्रभाव क्या होता है?

जब आपसे कोई गलती होती है आपको कैसा लगता है? प्रायः हमें बहुत बुरा लगता है - हमारी गलती दूसरों को आहत करने साथ-साथ हमें भी उतना ही आहत करती है। अक्सर अपराध-बोध और पछतावे के कारण हमें कई दिन तक बुरा लगता है। इसलिए प्रतिदिन सोते समय एक ऐसा अभ्यास करने की कल्पना करें जो हमारा ध्यान पुनः रचनात्मक परिप्रेक्ष्य की ओर ले जाता है और इस प्रकार उस बुरी भावना को हटा देता है।

इसके अतिरिक्त, जब हम अच्छी बातों को नज़रअंदाज़ करते हैं जैसे हमारा आध्यात्मिक अभ्यास या हमारा स्वास्थ्य - जब हम व्यायाम नहीं करते या पर्याप्त नींद नहीं लेते या आवश्यकता से अधिक खाते हैं - तब हम स्वयं को आहत करते हैं। जब हम पढ़ते नहीं हैं या जब हम आलस्य या लापरवाही के कारण अच्छा प्रदर्शन नहीं करते हैं तब हम स्वयं को आहत करते हैं। किसी भी तरह का व्यसन भी अंततः हमें आहत करता है।

कई गलतियाँ दूसरों को आहत करती हैं। जब हम किसी सहकर्मी की क्षति करते हैं, हम उसे चोट पहुँचाते हैं। जब हम सही बात के लिए आवाज़ नहीं उठाते या जब हम शांति व सामंजस्य को विकसित नहीं करते तब हम लोगों को आहत करते हैं। जब हम चुगली करते हैं, अफ़वाहें फैलाते हैं, हिंसा करना सिखाते हैं या युवाओं को भ्रष्ट करते हैं, तब भी हम लोगों को आहत करते हैं। जब हम पृथ्वी या इसके किसी भी संसाधन का आवश्यकता से अधिक उपभोग करते हैं, उसे प्रदूषित करते हैं या बर्बाद करते हैं तब हम वातावरण को आहत करते हैं।

ये सभी बातें इन सार्वभौमिक नियमों के अनुसार प्रकृति के साथ तालमेल में न रहने से उत्पन्न होती हैं।


यह शुद्धतम अवस्था भक्तिपूर्ण संबंध द्वारा ही प्राप्त होती है और इससे आप वहाँ पहुँचते हैं जो वास्तव में इस अभ्यास का मूल उद्देश्य है - गुरु के साथ साधक का संबंध।


सतत सुधार के कदम

प्रायः एक प्रश्न पूछा जाता है - किन गलतियों के लिए हम पश्चाताप कर रहे हैं? क्या केवल उन्हीं के लिए जिन्हें हम जानते हैं? क्या केवल आज की गलतियों के लिए? इसका सरल सा उत्तर है - सभी गलतियों के लिए, विशेषकर जो अनजाने में हुईं। वास्तव में, पश्चाताप करते समय किसी विशेष गलती पर ध्यान देना आवश्यक नहीं है। यदि उसके लिए जागरूक होने की आवश्यकता होगी तो किसी न किसी तरह वह मन में आ ही जाएगी।

पश्चाताप की प्रक्रिया में पाँच मुख्य चरण हैं। यह पूरी प्रक्रिया हृदय के माध्यम से केंद्र के साथ जुड़कर प्रार्थनामय होकर की जाती है।

  1. स्वीकार करें - स्वीकार करें कि आपने गलती की है। यह विनम्रता की स्वाभाविक अवस्था है जिसमें दोष-मुक्त होने की अपेक्षा नहीं होती। यह अपने आप में मुक्तिदायक कार्य है। 

इसके बाद, प्रार्थनापूर्ण भाव से अपने हृदय में दिव्य उपस्थिति के साथ जुड़ने से आपको स्पष्ट हो जाता है कि आप लक्ष्य से कितने दूर हैं। इस प्रकार की प्रबुद्ध जागरूकता केवल दिव्य उपस्थिति में ही संभव है, जहाँ आप सच में विनम्र महसूस करते हैं। इसकी मदद से आप चीज़ों को बिना बढ़ा-चढ़ा कर उस तरह से देख पाते हैं, जैसी वे सच में हैं। आपको किसी विशेष गलती के बारे में सोचने की आवश्यकता नहीं है। आप बस यह सोचें कि आप स्वयं को सुधारने का प्रयास कर रहे हैं और आप में सुधार की गुंजाइश है। कुछ विशेष गलतियों से संबंधित जागरूकता तो वैसे भी उभर आएगी।

  1. जिम्मेदारी लें - अगला चरण है अपनी गलतियों को स्वीकार करके उनकी जिम्मेदारी लेना। यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है - अपने अंतःकरण को रूपांतरण के स्थान के रूप में देखें तथा किसी अन्य व्यक्ति या परिस्थिति को दोष न दें। जिम्मेदारी लेने के लिए नैतिक साहस और आत्म-सहानुभूति की आवश्यकता होती है।
  2. पश्चाताप महसूस करें - जब आपको किसी गलती के लिए सच में बुरा लगता है तो इसका अर्थ है कि आपने इस चरण में प्रवेश कर लिया है। यहाँ आपको सहज-अवस्था की अनुभूति होती है जो प्रकृति का सारतत्व है। इस अवस्था में आपकी गलतियों में कोई शक्ति नहीं रहती। वे निष्प्राण हो जाती हैं।
  3. क्षमा माँगें - इस चरण में दिल की गहराई से पुकारते हुए, की गई गलतियों के लिए माफ़ी माँगी जाती है। इस चरण में आपमें इतनी अधिक विनम्रता होती है कि आपकी गलतियाँ साफ़ हो जाती हैं और आप पुनः अबोधता की अवस्था प्राप्त करते हैं।
  4. संकल्प लें - अबोधता की इस पुनः प्राप्त अवस्था में आप उसी गलती को न दोहराने का दृढ़ संकल्प लें। यहाँ रिक्त व प्रार्थनापूर्ण हृदय बार-बार की जाने वाली प्रार्थना के रूप में भक्ति से भर जाता है जो आपको गलतियों को दोहराने से बचाता है।
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पश्चाताप के इस अभ्यास के अंत में आपको अत्यधिक अबोधता, विनम्रता, शुद्धता और सहजता की अनुभूति होगी। बाबूजी हमें बताते हैं, “जो व्यक्ति यह प्राप्त कर लेता है, एक तरह से वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है।” बाधाएँ निकाल दी जाती हैं और उनका भारीपन हटा दिया जाता है। तब अत्यधिक कोमलता होती है, आप तरोताज़ा और सुधरा हुआ महसूस करते हैं। आप दिव्य प्रवाह की अवस्था के समान परमशुद्ध अवस्था प्राप्त कर लेते हैं। यह शुद्धतम अवस्था भक्तिपूर्ण संबंध द्वारा ही प्राप्त होती है और इससे आप वहाँ पहुँचते हैं जो वास्तव में इस अभ्यास का मूल उद्देश्य है - गुरु के साथ साधक का संबंध।

सफ़ाई एवं पश्चाताप के पूरक अभ्यास

मैं तो यह कहूँगा कि हार्टफुलनेस सफ़ाई और पश्चाताप का अभ्यास एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। जहाँ सफ़ाई का अभ्यास उन एकत्रित छापों को हटाता है जो हमारे भावी कर्मों के बीज हैं, वहीं पश्चाताप का अभ्यास उन बीजों को पनपने से रोकता है जो हमारे मन की उपजाऊ भूमि में पहले से ही बोए जा चुके हैं। हम कभी भी गलतियों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकते लेकिन बाबूजी के शब्दों में, “वे निष्प्राण हो जाती हैं।”

इसके आगे वे कहते हैं, “इच्छा शक्ति के प्रबल दबाव से अब वे पश्चाताप की भावना में परिवर्तित हो जाती हैं। पश्चाताप और कुछ नहीं, विचार तरंगों को झटका देना ही है जो कुछ हद तक हमारे अंदर एक शून्यता पैदा करता है। ऊपर से होने वाला दिव्य प्रवाह इसकी ओर मुड़ जाता है ताकि यह प्रकृति से अपनी समरूपता बना ले। इस प्रकार आने वाली यह दिव्यता हमारे पूर्ववर्ती प्रभाव की सफ़ाई में सहायता करती है। इसी को पश्चाताप का सही स्वरूप कहा जा सकता है।”

 

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गलतियाँ करने से बचना

मैंने पहले यह कहा था कि हम अक्सर गुमराह अहम् को संतुष्ट करने में लगे रहते हैं। हम अपनी छवि के साथ इस हद तक तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं कि हम वास्तव में सोचते हैं कि हम वही हैं। हम उन कहानियों पर विश्वास करते हैं जो हम स्वयं को सुनाते हैं और उस बाह्य व्यक्तित्व को बार-बार सत्यापित करते रहते हैं। बाबूजी ने बार-बार कहा है कि अध्यात्म सत्य का विज्ञान है। जीवन का उद्देश्य उस अपरिवर्ती सत्य को देखना है जो सभी बाह्य आवरणों से परे है।

जैसे-जैसे हम आध्यात्मिक यात्रा में आगे बढ़ते जाते हैं, हमें आंतरिक सत्य की झलक मिलती रहती है। जागरूकता के इन दुर्लभ क्षणों में ही हमें अनुभव होता है कि हम वो नहीं हैं जो हम सोचते हैं कि हम हैं। जैसे-जैसे हम अपने अभ्यास में प्रगति करते जाते हैं और हमारी चेतना का विस्तार होता जाता है, हम उस सत्य अर्थात् ईश्वर की आंतरिक उपस्थिति के प्रति और अधिक जागरूक होते जाते हैं। हार्टफुलनेस में हम इसे आंतरिक गुरु भी कहते हैं। यह आंतरिक गुरु हमारा उच्चतम स्व है जो हमेशा हमें अंदर से राह दिखता रहता है। और यदि हम सौभाग्यशाली हैं तो हमारे अंदर का यही गुरु बाह्य जीवित गुरु से मिलने में हमारी सहायता करता है, एक ऐसे मार्गदर्शक से जो पहले ही आत्म-प्रभुत्व प्राप्त कर चुका है और इस राह में हमारी सहायता करना चाहता है। वह हमारी प्रगति का दर्पण बन जाता है।

जब हम गुरु को अपने उच्चतर स्व के बराबर मान लेते हैं तब हमें अपने निम्नतर स्व की प्रवृत्तियाँ उसी तरह से दिखने लगती हैं जैसी वे हैं। हमें एहसास होता है कि गुरु जैसा बनने में ही हमारा विकास है। हमारा अहम् उस उच्चतर लक्ष्य की ओर निर्देशित हो जाता है। इससे हम में निषेध की अवस्था पैदा हो जाती है जिससे उनका ध्यान हमारी ओर आकर्षित होता है और उनके साथ हमारा संबंध जुड़ जाता है। हमारे लिए अपने कर्तव्यों का पालन करना आसान हो जाता है और हम स्वाभाविक रूप से किसी भी ऐसी चीज़ से दूर रहते हैं जो इन सार्वभौमिक नियमों के अनुरूप नहीं होती। बाबूजी के शब्दों में, “ऐसा तभी हो सकता है जब हम अपने और मालिक के बीच दूरी को अधिकतम सीमा तक घटा लें। अपने विचारों में उनकी उपस्थिति को सतत बनाए रखें। यही इसके लिए सर्वोत्तम विधि होगी।”

नियम 10 का सार

वास्तव में, इस नियम का वास्तविक सार है ‘ईश्वर की उपस्थिति को महसूस करना।’ जब हम अपने सच्चे स्व की उपस्थिति को पहचान लेते हैं, केवल तभी हम अपने अहम् को उस तरह से देख पाते हैं जो वह है - यानी मात्र एक पहचान। गलती को जान लेने से पश्चाताप की प्रक्रिया शुरू होती है और इसके साथ-साथ अनचाही प्रवृत्तियों के निवारण यानी ‘यम’ की और अच्छे गुणों को विकसित करने यानी ‘नियम’ की प्रक्रियाएँ शुरू होती हैं। दोनों के एकसाथ होने से सतत आत्म-सुधार होने लगता है और शुद्धता, अबोधता, विनम्रता व हल्केपन का एहसास होने लगता है।

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इस नियम के आधारभूत सिद्धांत को जीवन के सभी पहलुओं में सतत आत्म-सुधार प्राप्त करने के लिए लागू किया जा सकता है। ‘काइज़न’ (एक जापानी शब्द जिसका अर्थ है, बेहतरी के लिए बदलाव) का अभ्यास ऐसा ही एक उदाहरण है। काइज़न का अर्थ है - जो कुछ भी हम करें उसमें पूर्णता लाने के लिए अंतहीन प्रयास। काइज़न प्राप्त करने के लिए हमें उस अभ्यास को अपनाना होगा जिसे जापानी लोग ‘हंसेई’ अर्थात् ‘अपनी आलोचना करने का अभ्यास’ कहते हैं। इसका अर्थ है स्वयं को उत्तरदायी मानकर सुधार करने की गुंजाइश ढूँढना, चाहे सब कुछ योजना के अनुसार हो रहा हो। इस मानसिकता को अपनाने से पूर्व-स्थिति से उबरकर आगे बढ़ा जा सकता है। यह हमें इन दो स्थितियों में एक विशेष अंतर बनाए रखने में मदद करता है - जो हम अब हैं और जो हम बन सकते हैं। इससे प्रगति जारी रह सकती है। ‘लीन मैनेजमेंट’ में एक और अभ्यास है जिसे ‘पोका-योके’ कहते हैं जिसका अर्थ है ‘गलतियों से सुरक्षित रहना’ या गलतियाँ करने से बचना। यह उच्चतर स्व के परिप्रेक्ष्य से जीवन जीने के समान है।

इस नियम की सहायता से हम व्यवहार के सूक्ष्मतर से सूक्ष्मतर स्तरों तक पहुँचते हैं, जब तक कि वह स्तर प्राप्त न हो जाए जिसमें गलतियाँ बहुत कम होती हैं। और जब हम उन्हें करते भी हैं तो हम जान लेते हैं और इस संकल्प के साथ पश्चाताप भी कर लेते हैं कि उन्हें फिर नहीं दोहराएँगे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गुरु के साथ हमारा जुड़ाव और उनका स्मरण ही है जो इस अभ्यास को प्रभावी बनाता है।

संबंधित वीडियो देखने के लिए: 

https://www.youtube.com/watch?v=ZHgSkYt60f8&list=PL1QpxVYcCuCYtRiUo4AoWOZALqkwZUNhT&index=10

 


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दाजी

दाजी हार्टफुलनेसके मार्गदर्शक

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