टेक्सास के ऑस्टिन शहर में रहने वाली मीरा माधव एक प्रेरित लेखिका हैं। कान्हा शांतिवनम् के बारे में एक बिलकुल अलग परिप्रेक्ष्य में लिखा गया यह लेख इस ज़मीन से हमारे रिश्ते के बारे में एक नई समझ पैदा करता है।

 

हाँ तक मुझे याद है, लंबे समय तक मुझ पर न तो ज़्यादा लोग खड़े हुए और न ही मुझसे मिलने आए। मैं उन्हें दोष नहीं दे सकती। क्या आप भी किसी धूलभरी, छाँव रहित, कठोर सतह वाली बंजर भूमि पर कदम रखना पसंद करेंगे या उसे देखने आएँगे? अनगिनत सूर्योदय और सूर्यास्त होते रहे और मुझे सिर्फ़ कुछ नीम के पेड़ों का ही साथ मिला।

कभी-कभी मुझे धुंधली-सी याद आती है कि किसी समय कुछ लोग यहाँ सब्ज़ियाँ उगाते थे और ठंडे जल से भरी नहर बहती थी। लेकिन बार-बार यहाँ सूखा पड़ने के कारण लोग पलायन के लिए विवश हो गए और मैं नीम के पेड़ों के साथ अकेली रह गई।

सदियों से तपते सूरज ने मुझे सुखाकर बंजर कर दिया। मुझ में दरारें पड़ गईं और मैं हर दिन सिर्फ़ धूप सहन करती और हर रात को सितारों से भरे आकाश और ठंडक का आनंद लेती। हर दिन धैर्य और सपनों के साथ गुज़रता गया। मेरा सपना था कि किसी दिन मेरी सतह पर नाग रेंगते हुए जाएँगे, अनगिनत पेड़ होंगे और उन पर चहचहाते पंछी होंगे, वर्षा की टप-टप बूँदें पेड़ों के पत्तों से छनती हुई मुझ पर आ गिरेंगी। अहा, ऐसे ही विचारों से मेरा दिल झूम उठता था।

मैं दक्कन के पठार का एक हिस्सा हूँ जो मध्य भारत का दूसरा सबसे शुष्क क्षेत्र है। मैं इसका लगभग 300 एकड़ हिस्सा हूँ। मानविकी ब्रिटानिका के अनुसार हम समुद्र तट से 300 से 750 मीटर की ऊँचाई पर स्थित भूगर्भीय दृष्टि से सबसे स्थिर व सबसे प्राचीन क्षेत्र हैं। हमारे पश्चिम में अरब सागर के तटीय क्षेत्र से लगे हुए हरे-भरे पहाड़ी क्षेत्र और पर्वतों की श्रृंखलाएँ हैं। उत्तर से भारत के दक्षिणी छोर तक फैला हुआ यह भूभाग पश्चिमी घाट कहलाता है। इस क्षेत्र में वर्षा अच्छी होती है और यह कई प्रमुख नदियों, जैसे कृष्णा, कावेरी और गोदावरी का उद्गम स्थल भी है। ये नदियाँ हमारे बीच से गुज़रते हुए पश्चिम से पूर्व की ओर बहती हैं। वहाँ की हरियाली आँखों को कितनी ठंडक देती होगी तथा पंछियों के गीतों और पर्वतों व पहाड़ियों से नीचे गड़गड़ाते व झरझराते पानी की आवाज़ से कानों को ज़रूर सुख मिलता होगा।

इनमें से कुछ नदियों के पानी का उपयोग दक्षिणी पठार के कुछ भागों में सिंचाई के लिए होता है। अभी भी कुछ उपजाऊ खेत मुझसे कुछ ही दूरी पर हैं। इसलिए मुझे पता है कि मैं भी उपजाऊ धरती बन सकती हूँ यदि लोग मुझमें निवेश करना चाहें।

मेरे क्षेत्र की ढलान पश्चिमी घाट की सीमाओं से पूर्व की ओर है, जहाँ पहाड़ियों की छोटी-छोटी श्रृंखलाएँ उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर, बंगाल की खाड़ी के तटीय क्षेत्र के साथ-साथ फैली हुई हैं। कृष्णा और गोदावरी नदियाँ इन पहाड़ियों की श्रृंखला से होकर गुज़रती हैं, जो पूर्वी घाट कहलाता है, और बंगाल की खाड़ी में मिल जाती हैं।

मेरा अतीत कलह से भरा है। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी से वर्ष 1947 तक दक्कन के पठार ने अनेक राजवंशों को यहाँ की खनिज संपदा के लिए परस्पर युद्ध करते देखा है। मेरा बंजर होना क्या इन युद्धों का परिणाम था? मुझे पता नहीं। भारत को अंग्रेज़ी साम्राज्य से आज़ादी मिलने के एक वर्ष पश्चात मैं हैदराबाद राज्य का हिस्सा बन गई। यह वर्ष 1948 था और कुछ वर्षों के बाद वर्ष 1956 में मेरे राज्य ने आंध्रप्रदेश में विलय होने का निर्णय लिया। इससे मेरे लिए कुछ नहीं बदला हालाँकि मुझसे 48 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में हैदराबाद शहर बहुत फला-फूला। अलग-अलग राजवंशों के अधीन यह पहले से ही एक फलता-फूलता शहर था और बाद में यह सूचना प्रौद्योगिकी (IT) और दवाइयों की कंपनियों के केंद्र के रूप में विकसित हो गया। धन-संपत्ति बढ़ने से इस क्षेत्र में ऊँची-ऊँची इमारतें और एक अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा भी बना। उनसे बहुत दूर होने के कारण मुझे वहाँ की अधिक जानकारी नहीं है।

 

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लेकिन लड़ाई-झगड़े इस क्षेत्र के प्रारब्ध में लिखे हैं। तेलुगू भाषी लोग आंध्र के अन्य लोगों के साथ मिलकर नहीं रह पाए और इसलिए सन् 2014 में जिस क्षेत्र में प्रमुख भाषा तेलुगु थी, वह हिस्सा तेलंगाना यानी भारतवर्ष का 29वाँ राज्य बन गया। अब मैं तेलंगाना का भाग हूँ जिसकी सीमाएँ उत्तर में महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ से, दक्षिण और पूर्व में आंध्र प्रदेश से तथा पश्चिम में कर्नाटक से लगती हैं।

यह वर्ष मेरे लिए भी कोशित (pupa stage) अर्थात रूपांतरण के प्रारंभ की अवस्था थी ताकि मैं कान्हा शांतिवनम् यानी ‘शांति के वन’ के रूप में उभर सकूँ जो हार्टफुलनेस संस्था का वैश्विक मुख्यालय है।

मुझे नहीं पता कि वे कैसे आए लेकिन एक दिन मैंने देखा कि कुछ लोग मुझ पर चल रहे थे। लड़ाई-झगड़ों की पुरातन धुंधली यादें मेरे मन में ताज़ा हो गईं लेकिन जैसे-तैसे मैंने अपनी सिहरन पर काबू पाया। जहाँ तक मुझे पता है, मुझमें कोई हीरे या कीमती पत्थरों की खदानें नहीं हैं, इसलिए मैंने अपने डर को शांत किया।

लंबी बाहों के हलके रंग के सूती कुर्ते पाजामे पहने वे लोग अपने ही खयालों में खोए हुए, आसपास घूमते रहे। उनकी आँखों और खामोशी ने मुझे शांत कर दिया और मुझे सुख का अनुभव होने लगा।

आवाज़ में करुणा के साथ एक गोल चेहरे के व्यक्ति ने कहा, “डॉक्टर रमाकांत, मैं चाहता हूँ कि यहाँ एक वर्षावन हो।”

एक वर्षावन! क्या उन्होंने वर्षावन कहा? मुझे यकीन नहीं था कि मैंने सही ध्वनि कंपन महसूस किए थे यानी सही शब्द सुने थे। इन शब्दों ने मेरे सपनों को जगा दिया - हवा के झोंकों से पत्तों में होने वाली सरसराहट, वर्षा की बूंदों की टप-टप और पंछियों के कलरव के सपने। मैं हरे-भरे घने वृक्ष और उनके चारों ओर लिपटी हुई बेलें, उनकी शाखाओं पर उगे ऑर्किड के फूल और उन पर कूदते हुए बंदरों की कल्पना करने लगी। मैं नमी और शांति महसूस करने लगी और खुद को जीवंत महसूस करने लगी।

महोदय, वर्षावन की प्रजातियाँ हैदराबाद में नहीं उगतीं। वे मर जाती हैं।”

जब वे वहाँ से चल दिए तो मेरी उम्मीदें थोड़ी टूट गईं। लेकिन फिर भी भरोसा कायम रहा। मुझे भरोसा था कि गोल चेहरे वाला वह शांत व्यक्ति मुझ पर वर्षावन अवश्य उगाएगा। उस रात सितारों से सजे आसमान का आनंद लेते हुए ये शब्द मेरे मन में बार-बार आते रहे।

 

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वर्षावन, वर्षावन, वर्षावन का राज है। पेड़, ऑर्किड, पंछी और हलकी-हलकी बारिश है। हरियाली, नमी, शीतलता और नीलिमा सब कुछ सुखद है। वर्षावन, वर्षावन, वर्षावन, वर्षावन का राज है।

कुछ दिनों के बाद वे लोग वापस आए।

यदि मैं रो सकती तो मेरे खुशी के आँसू अवश्य बहने लगते। मेरा हृदय ऐसे सौहार्द व प्रेम से भर गया था जिसे मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकती। और यह प्रेम कहाँ से आया? इन मनुष्यों से? उनकी आवाज़ का लहज़ा, उनकी आँखें, उनके कदम, सभी में दयालुता व परवाह का गहरा एहसास था। लगता था जैसे वे अपने दिलों से जुड़े हुए थे।

गोल चेहरे वाले व्यक्ति ने फिर कहा, “डॉक्टर रमाकांत मुझे यहाँ एक अमेज़न वन चाहिए।”

वे यहाँ एक अमेज़न वन चाहते थे। वे इस बात को लेकर गंभीर थे, बहुत ही गंभीर और मेरा उन पर भरोसा सही था कि वे मुझ पर एक वर्षावन उगा देंगे। मेरा संपूर्ण अस्तित्व खुशी के मारे फूला नहीं समा रहा था।

हलके भूरे रंग के कपड़े और गहरे रंग की जैकेट पहने व्यक्ति अपना सर खुजलाते हुए बोला, “सर, अमेज़न के वन यहाँ नहीं उग सकते।”

यह सुनकर मेरा जोश ठंडा पड़ने लगा लेकिन मैंने अपना भरोसा बनाए रखा।

उसने कहना जारी रखा, “लेकिन मैं पश्चिमी घाट की कुछ विलुप्तप्राय प्रजातियों के पौधे यहाँ लगा सकता हूँ।”

मुझे अपने कानों, जो वास्तव में हैं भी नहीं, पर भरोसा नहीं हो रहा था। वे हरे-भरे पश्चिमी घाट से पेड़-पौधे लाकर यहाँ लगाएँगे! मेरा दिल चाह रहा था कि मैं खुशी से गोल-गोल घूमूँ, गुलाटियाँ लगाऊँ और उछल-कूद करूँ। लेकिन मुझे अपने उत्साह को शांत करना पड़ा। मैं नहीं चाहती थी कि वे सोचें कि मैं भूकंप का क्षेत्र हूँ।

आखिरकार मुझ पर पेड़ लहलहाएँगे। लेकिन मेरे मिट्टी बहुत सूखी व सरंध्री है और उपजाऊ भी नहीं है। यहाँ बारिश भी मुश्किल से होती है, तो वे पेड़-पौधे जीवित कैसे रहेंगे?

 

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मुझे पता चला कि वे महापुरुष जो मुझ पर वर्षावन उगाने के लिए आमादा थे और जिन्हें मेरा सर्वेक्षण करने वाले लोग दाजी के नाम से जानते थे, वे एक वैज्ञानिक हैं। जिन दूसरे व्यक्ति को दाजी ने डॉ. रमाकांत कहा, वे भारतीय वन सेवा के सेवानिवृत्त प्रमुख वन संरक्षक हैं।

यह जानकर मैं समझ गई कि एक महान रूपांतरण होने जा रहा है। और जब बड़ी संख्या में स्वयंसेवक गेती, फावड़े और ट्रकों में भर कर काली मिट्टी लेकर आने लगे तो मुझे डर नहीं लगा। मेरे प्रति आदर भाव रखते हुए उन्होंने अपने पूरे दिल से काम किया और ज़मीन में समान दूरी पर बहुत सारे गोल-गोल गड्ढे बनाए।

दाजी ने मेरी अनुपजाऊ और सरंध्र मिट्टी का समाधान खोज लिया था - कपास की काली मिट्टी। यह मिट्टी नमी को सोख कर रखती है। इसलिए उन्होंने उन गड्ढों को काली मिट्टी से भरने का सुझाव दिया। उनका दूसरा महत्वपूर्ण सुझाव था कि बायोचार यानी जैविक चारकोल का उपयोग किया जाए जो यहीं की सूखी डंडियों व टहनियों को मिट्टी के अंदर गड्ढों में जलाकर बनाया गया था। हालाँकि बायोचार बहुत हल्का, काला और भुरभुरा होता है लेकिन यह पोषक द्रव्यों से युक्त जल को सोखने, नमी बनाए रखने और धीरे-धीरे मिट्टी में छोड़ने में अत्यंत प्रभावी है। मुझे लगता है कि इन द्रव्यों को पानी में छोड़ने की दर उतनी है जिस दर पर जड़ें नमी को अवशोषित करती हैं। वे गड्ढे अब वृक्षारोपण के लिए तैयार थे।

 

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निकटवर्ती राज्यों जैसे केरल और कर्नाटक से ट्रकों में भरकर पेड़ आने लगे। वे सभी पात्रों के अंदर लगे छोटे-छोटे पौधे थे। वे पौधे इतने नन्हे और नाज़ुक थे कि यह विश्वास करना कठिन था कि वे यहाँ जीवित रह पाएँगे। जब पौधे आए तो साथ ही अनेक स्वयंसेवक भी आ गए। पूरी दुनिया से स्वयंसेवक आ रहे थे और वे इतने सारे थे कि गिनती करना भी मुश्किल था। वे अपने साथ पानी की बोतलें भी लाए ताकि उन पौधों की पानी की ज़रूरत पूरी की जा सके।

पानी की ज़रूरत बहुत अधिक होने वाली थी और मेरे भूगर्भ में जल का तल सतह से 183 मीटर नीचे था। इसलिए ये स्वयंसेवक वर्षा के जल को संरक्षित करने के लिए नालियाँ खोदकर उन्हें जलाशय से जोड़ने के उपाय करने में भी व्यस्त थे। पहला जलाशय जो उन्होंने खोदा उसकी क्षमता मानसून के वर्षा जल की दस लाख लीटर मात्रा को संरक्षित करने की थी। वे भूल गए थे कि मैं कितनी सरंध्री थी या फिर कहूँ कि मेरी प्यास कितनी अधिक थी। इसलिए वर्षा का पहला संचित जल मेरे भूमिगत जलस्तर को भरने की वजह से पूरा का पूरा खत्म हो गया। दाजी की टीम जल्दी ही समझ गई कि उन्हें तालाबों को पक्का करना होगा ताकि जल उनमें रुक सके। और अब वे तालाब वर्षा के जल को रोके रखते हैं। उन्होंने मुझमें पहले से मौजूद कई जलमार्गों का उपयोग किया जिनमें कभी जल हुआ करता था लेकिन अनेक दशकों में उनमें गाद भर गई थी। यहाँ तक कि जल को संचित करने वाले मार्ग को बनाते समय उन्हें गाद से भरी एक सीढ़ीदार बावड़ी भी मिली जिसे उन्होंने सुधारकर उपयोग योग्य बनाया।

जब टीम के कुछ सदस्य जल संरक्षण का कार्य कर रहे थे, डॉक्टर रमाकांत के नेतृत्व और दाजी के मार्गदर्शन में अन्य स्वयंसेवक वृक्षारोपण के काम में जुटे थे। हरेक पौधे के स्वस्थ विकास के लिए प्रार्थना करके उन्हें अत्यंत प्रेम सहित इतने अंतर पर रोपित किया गया ताकि मेरे अंदर उनकी जड़ें अच्छे से फैल पाएँ।

खुशी से, उन्होंने पेड़ लगाए हँसते, गाते और बतियाते भेजे उन्होंने स्पंदन समरसता के जो मेरे ऊपर ही फैले थे

 

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उन्होंने ये पेड़ लगाए –

कैनेरियम स्ट्रिक्टम अर्थात काला डामर, जो इसके औषधीय गुणों के कारण अनाधिकृत रूप से काटने के कारण एक विलुप्तप्राय प्रजाति बन गई है।

सरका असोका, स्थानीय लोग इसे सीता-अशोक वृक्ष कहते हैं और यह भी खतरे में है।

आर्टोकार्पस हिर्सुटस, स्थानीय भाषा में इसे जंगली कटहल कहते हैं। इसकी लकड़ी की अवैध कटाई के कारण यह भी विलुप्तप्राय प्रजाति बन गया है।

मधुका बौर्डिलोनी अर्थात महुआ जो एक और विलुप्तप्राय प्रजाति है।

सिज़ीजियम ट्रावनकोरिकम, लोग इसे केरल जामुन कहते हैं। जंगल में इसके सिर्फ़ 25 वृक्ष बाकी हैं।

इन पेड़ों के बीच-बीच में उन लोगों ने विटेस ट्राईफ़ोलिया यानी अमलाबेल लगाए जो वनीय क्षेत्र को ठंडक प्रदान करते हैं।

चतुराई से, उन्होंने सेस्बेनिया ग्रैंडिफ़्लोरा के पौधे लगाए जिन्हें अगाती वृक्ष भी कहते है। ये पौधे बीज से तेज़ी से उग जाते हैं और विलुप्तप्राय प्रजातियों के पौधों के लिए नाइट्रोजन और छाया प्रदान करते हैं ताकि वे शीघ्र बढ़ सकें।

और वे सब बढ़ भी रहे हैं। यही नहीं, वे अब फल भी दे रहे हैं। हालाँकि कुछ पौधे ज़्यादा बढ़े नहीं लेकिन जितनी भिन्न-भिन्न प्रजातियों के पौधे लगाए गए वे सभी जीवित रहे।

 

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इन पौधों को पानी देने के लिए इन लोगों ने अनोखे तरीके अपनाए ताकि यहाँ तैयार हो रहे वन को आवश्यकतानुसार जल मिल सके। उन्होंने रेत से भरे पीवीसी पाइप्स का उपयोग किया जिसमें भरी हुई रेत जल को सोख कर उसे धीरे-धीरे पौधों के लिए उनकी जड़ों की आवश्यकतानुसार छोड़ती रहती है। जब वन क्षेत्र बढ़ने लगा तब उन्होंने फव्वारे लगी पाइपों (rain guns) का उपयोग किया जो एक ऐसी प्रणाली है जिससे वृक्षों की छतरी के ऊपर पानी की धार छोड़ी जाती है।

पानी की धार बहुत शीतलता देती थी। फव्वारे लगी पाइपों में से तेज़ी से निकलते पानी की आवाज़ से मुझे बहते झरने की याद आने लगती थी। अक्सर जल का छिड़काव मेरी सतह तक पहुँच जाता था जिससे मुझे लगता था मानो मेरी सफ़ाई हो रही हो।

सावधानी से हिसाब लगाकर बनाया गया पोषक तत्वों का मिश्रण वृक्षों को उनकी आवश्यकतानुसार दिया जाता था। ऐसा इस बात को सुनिश्चित करने के लिए किया जाता था कि मेरी मिट्टी के सरंध्री होने के कारण मेरे माध्यम से पोषक तत्व और जल बर्बाद न हो जाएँ। परिश्रमी और आनंद से भरे स्वयंसेवकों ने इस कठिन कार्य को प्रसन्नता से किया।

प्रकृति माता भी उनके निस्स्वार्थ परिश्रम से प्रसन्न हुईं और उन्हें वर्षा से पुरस्कृत किया। उनके इस कार्य के पहले मुझ पर 600 से 550 मिली मीटर वर्षा होती थी लेकिन अब मानसून के दौरान मुझे 2300 मिली मीटर वर्षा भिगो देती है। उन्हें दो छोटे-छोटे तालाब और खोदने पड़े ताकि वर्षा के जल को बह जाने से रोका जा सके। मेरे भूगर्भीय जल का स्तर अब काफ़ी बढ़ चुका है, इसलिए पानी रोकने के लिए इन तालाबों को पक्का नहीं करवाना पड़ा।

जब यह सब काम मेरे 5 से 6 एकड़ क्षेत्र में हो रहा था तब अन्य जगहों पर उन लोगों ने बड़े-बड़े पेड़ पुनर्स्थापित किए। जो पेड़ राजमार्ग या रहवासी मकान आदि बनाने के लिए गिराए जाने के लिए चिह्नित थे, उन्हें उन स्थानों से उखाड़ कर, बड़े-बड़े ट्रकों में यहाँ लाकर लगाया गया। भारी-भारी वज़न उठाने वाले उपकरणों की मदद से, स्वयंसेवकों ने ये पेड़ उस मार्ग पर लगाए जिस पर से होकर वे लोग मेरे दूसरे क्षेत्रों में जाते हैं। इस पहल से लगभग 1000 वृक्षों को बचाया गया जिनमें से 15 बरगद के थे और कुछ तो लगभग 150 वर्ष पुराने थे। उन्होंने 20 पीपल के पेड़ जिनकी आयु 20 से 30 वर्ष होगी और लगभग 60 नारियल के पेड़ भी बचाए।

अब हर दिन मैं पहले से अधिक हरी-भरी दिखाई देती हूँ।

गत सात वर्षों में मेरा रूपांतरण अनेक भवनों और वृक्षों से भरे जीवंत हरे-भरे स्थान के रूप में हो गया है।

इन सभी भवनों में प्रमुख स्थल यहाँ का ध्यान केंद्र है।

मेरे 30 एकड़ में फैला हुआ यह स्थान भव्य है। इसमें एक केंद्रीय हॉल है जिसके चारों ओर छोटे-छोटे हॉल हैं। इन ध्यान कक्षों की गुंबद के आकार की छत 24 मीटर ऊँची है और इनके तल को इनके नीचे जल प्रवाहित करके ठंडा किया जाता है। इनके किनारे खुले हैं जिनसे होकर हवा बहती है। ये गुंबद आरामदायक तापमान में बने रहते हैं, भले बाहर कितनी भी गर्मी हो। इनमें से कुछ छोटे हॉलों का सभा भवनों और सम्मेलन केंद्रों के रूप में उपयोग किया जाता है। सब मिलाकर, इनमें एक साथ एक लाख लोग बैठ सकते हैं।

 

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इन सभी लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था भी करनी होती है। मेरे कुछ एकड़ भाग में जैविक खेती की जाती है जहाँ स्थानीय फल और सब्ज़ियाँ उगाई जाती हैं। वर्ष भर खाद्य सामग्री की उपलब्धता बनाए रखने के लिए सात हाइड्रोपोनिक फ़ार्म भी स्थापित किए गए हैं।

लोगों को रहने की जगह भी चाहिए और अब यहाँ आने वाले आगंतुकों के लिए मुझ पर कई विकल्पों की व्यवस्था है जैसे – एक होटल, कई शयनगृह यानी डॉरमेट्रीज़ और कई आवासीय मकान हैं।

आगंतुकों द्वारा अपशिष्ट तथा भूरा और काला व्यर्थ जल भी उत्पन्न होता है। कान्हा शांतिवनम् का आदर्श वाक्य है ‘हरित कान्हा’ और लोग इसे हरा-भरा ही रखना चाहते हैं। उन्होंने इस भूरे और काले पानी को शुद्ध करने के लिए कुछ आर्द्रभूमियाँ (wetlands) बनाई हैं। इसके बारे में मुझे ठीक से पता नहीं है कि यह सब कैसे काम करता है। लेकिन इस पानी को साफ़ करके इसका सिंचाई के लिए उपयोग किया जाता है।

मेरी भूमि को उपजाऊ बनाए रखने के लिए आगंतुकों द्वारा उत्पन्न खाद्य अपशिष्ट का उपयोग खाद बनाने के लिए किया जाता है।

मुझे स्वीकार करना होगा कि हालाँकि मुझपर अनेक आधुनिक भव्य व टिकाऊ इमारतें खड़ी हैं और मुझे हरा-भरा बनाने वाली कई विचारपूर्ण विधियाँ अपनाई गई हैं लेकिन मुझे सबसे ज़्यादा यहाँ के वर्षावन पर गर्व है।

भूमिगत जल के और वर्षा के जल के निकासी पाइप और भूमिगत विद्युत् ग्रिड होने पर भी मुझे अनगिनत वृक्षों की भूमिगत जड़ों के जाल से बहुत राहत मिलती है। मुझे ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि यह एक बहुत ही जीवंत व जीवनदायी जाल है जो अपने तंतुओं को निरंतर नीचे और बाहर फैला रहा है। इससे होने वाली गुदगुदी मुझे याद दिलाती है कि अब मैं भी एक जीवन संरक्षक स्थान हूँ।

मनुष्यों का यह समूह वृक्षों के विकास को बढ़ावा देता है। मेरे कुछ एकड़ हिस्से में उन्होंने हार्टफुलनेस वृक्ष संरक्षण केंद्र (Heartfulness Tree Conservation Center) की स्थापना की है। यहाँ वे लुप्तप्राय प्रजातियों के पौधों के ऊतकों का उपयोग करके पौधे उगाते हैं। यह प्रक्रिया बीज से पौधे उगाने की तुलना में कहीं अधिक तेज़ है। ये पौधे सारे भारत वर्ष में अलग-अलग स्थानों पर फ़ॉरेस्ट बाई हार्टफुलनेस द्वारा लगाए जाते हैं जो कान्हा शांतिवनम् का एक अन्य केंद्र है।

एक सवाल अक्सर मेरे मन में आता है कि आखिर दाजी ने वर्षावन उगाने का आग्रह क्यों किया? वृक्ष उनके लिए इतना महत्व क्यों रखते हैं?

 

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डॉक्टर रमाकांत भी उनकी वर्षावन उगाने की इच्छा से हैरान थे और उन्होंने जो स्पष्टीकरण दिया वह इस प्रकार है, “वर्षावन का अर्थ है प्रचुर प्रजातियों के पौधे - सबसे अधिक प्रजातियों के पौधों वाला लौकिक पारितंत्र। उनमें से अनेक प्रजातियाँ खत्म हो रही हैं और जब आप वर्षावन बनाते हैं तो यह नूह की नाव बन जाता है।”

दाजी के लिए वृक्षों का महत्व इतना अधिक क्यों है, इसके बारे में वे कहते हैं, “पृथ्वी पर हमारे जीवन के लिए वृक्ष आवश्यक हैं। उनकी भूमिका और उपयोगिता का आकलन नहीं किया जा सकता और अक्सर यह हमारी समझ के परे होता है। स्पष्ट दिखाई देने वाले उपहारों - जीवनदायी ऑक्सीजन, भोजन, आश्रय और औषधियों - के अलावा वृक्ष अधिकांश मनुष्यों की तुलना में आध्यात्मिक ऊ

र्जा को लंबे समय तक संरक्षित रखते हैं। इस प्रकार वे पर्यावरण में सुंदर आध्यात्मिक वातावरण बनाए रखते हैं और एक सूक्ष्म आंतरिक स्तर पर संतुलन बनाए रखने में हमारी मदद करते हैं। वृक्ष हमारे संपूर्ण स्वास्थ्य एवं कल्याण के लिए आवश्यक हैं और हमारा कर्तव्य है कि वृक्षों के विनाश को रोकने का यथासंभव प्रयास करें। एक वृक्ष की रक्षा सौ नए पौधे लगाने के बराबर है।”

अब सवाल यह पैदा होता है कि दाजी हैं कौन? उनके मन में पर्यावरण और सभी प्राणियों के प्रति इतना अधिक प्रेम है और वे हमेशा धैर्य व दयालुता से बात करते हैं।

जितना मैं समझ सकती हूँ, दाजी उन सब लोगों के मार्गदर्शक हैं जिन्होंने मेरा रूपांतरण करने में मदद की और संसार के कई अन्य लोगों की सहायता की। दाजी के मार्गदर्शन ने उन लोगों को ज़्यादा संतुष्ट होने तथा अपने अंतरतम और बाह्य संसार में सामंजस्य स्थापित करने में मदद की है।

 

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दाजी ने मेरी उपयोगी बनने, जीवन को पोषित करने, सर्प द्वारा सहलाए जाने, बंदरों के मेरे ऊपर कूदने और पक्षियों के गीत सुनने की अभिलाषा को पूरा किया है। मेरी मिट्टी जाग उठी है और मैं अब छोटी नूह की नाव की तरह बन गई हूँ।

सूचना के स्रोत -

संतोष खानजी से चर्चा, इस परियोजना के प्रमुख सलाहकार

रागिनी खानजी से चर्चा, हार्टफुलनेस संस्था की सदस्य

https://www.britannica.com/place/India/The-Deccan

https://www.britannica.com/place/Deccan

https://www.britannica.com/place/Hyderabad-India

https://www.telangana.gov.in/about/state-profile/

https://www.heartfulness.org/kanha

https://www.youtube.com/watch?v=F_03SIa0Rpk

https://www.iamrenew.com/green-transportation/translocation-successstory-kanha-shanti-vanam/

https://www.daaji.org/about


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मीरा माधव

मीरा पहले यू.के. में रहती थीं और अब ऑस्टिन, टेक्सास में खुशी से रह... और पढ़ें

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