दाजी हमारे लिए एक ऐसी मार्गदर्शिका प्रस्तुत कर रहे हैं जो दैनिक जीवन में मनुष्य के रूपांतरण के लिए बहुत उपयोगी होगी। यह श्रृंखला श्री रामचंद्रजी द्वारा 75 वर्ष से भी पहले लिखी गई पुस्तक, ‘सहज मार्ग के दस नियमों की व्याख्या’, पर आधारित है। यह उन लोगों के लिए बहुत ही उपयुक्त है जो आज के युग में अपने उच्चतम सामर्थ्य तक विकसित होना चाहते हैं।
उत्पत्ति
लगभग 75 वर्ष पहले उत्तरी भारत के राज्य ‘उत्तर प्रदेश’ के एक दूरस्थ शहर में एक संत ने प्रत्यक्ष बोध द्वारा जो दिव्य अद्भुत सत्य जाने थे, उन्हें लिपिबद्ध करने का निश्चय किया। परिणामस्वरूप उन्होंने एक ऐसी पद्धति सबके सामने प्रस्तुत की जिसके द्वारा लोग स्वयं को पूरी तरह रूपांतरित करके चेतना के उच्चतम स्तर तक पहुँच सकते हैं और उसके परे भी जा सकते हैं। यह पद्धति प्राचीनकाल के राजयोग के अभ्यासों के सार-तत्व पर आधारित थी जिसमें आधुनिक युग की मानवता को ध्यान में रखकर कुछ संशोधन किए गए थे। उन संत का नाम श्री रामचंद्र था और आज हम उन्हें बाबूजी के नाम से जानते हैं।

उनकी पहली पुस्तक, ‘सहज मार्ग के दस नियमों की व्याख्या’, की भूमिका यहाँ प्रस्तुत है। यह मूलतः उर्दू भाषा में लिखी गई थी और अब विश्व की 30 से अधिक भाषाओं में अनुवादित हो चुकी है।
चंद शब्द
मैंने उन आध्यात्मिक रहस्यों को जो अब तक सिर्फ़ हृदय से हृदय तक ही उतरते रहे, शब्दों में बाँधकर इस पुस्तक के रूप में पेश करने की कोशिश की है। लेकिन चूँकि इनका संबंध प्रत्यक्ष-बोध से है जो ईश्वर के अध्ययन पर निर्भर है और जिसका ज्ञान केवल स्पंदनों के माध्यम से ही हो सकता है, इसलिए इन्हें शब्दों में अभिव्यक्त करना सिर्फ़ कठिन ही नहीं बल्कि लगभग असंभव है।
मुहब्बत मानिए अल्फ़ाज़ में लाई नहीं जा सकती। यह ऐसी हक़ीकत है जो समझाई नहीं जा सकती।।
इस संदर्भ में यही उचित होगा कि पाठक अभिव्यक्ति या भाषा संबंधी कमियों की ओर ध्यान न देकर इसके सत्व को समझने की कोशिश करें, इससे खुद लाभान्वित हों और दूसरों को भी लाभ पहुँचाने में सहायक बनें।
रामचंद्र
8 दिसंबर 1946
चेतना के जिन उच्च स्तरों का उन्होंने अनुभव किया था, उनको वे सबके साथ साझा करने के लिए उत्सुक थे ताकि हम सब भी उन स्तरों का अनुभव कर पाएँ। एक गृहस्थ होने के नाते वे जानते थे कि भौतिकता और आध्यात्मिकता पक्षी के दो पंखों के सामान हैं और कोई भी एक पंख से उड़ान नहीं भर सकता। वे सीधा-सादा जीवन जीने वाले अत्यंत विनम्र व्यक्ति थे लेकिन अध्यात्म के क्षेत्र में वे इतने महान थे कि उनके जैसा व्यक्ति किसी ने पहले कभी नहीं देखा था। उन्हें केवल अपनी या समस्त मानवता की ही नहीं बल्कि पूरे ब्रह्मांड की परवाह थी। वे जानते थे कि पीड़ित मानवता में सकारात्मक परिवर्तन, शांति और विकास लाने के लिए आंतरिक रूपांतरण की ज़रूरत है। उन्होंने एक सरल पद्धति विकसित की जिसका अभ्यास करना आसान था और जो संस्कृति, जाति, आयु, वर्ग, धार्मिक मान्यता और लिंग पर आधारित किसी भी भेदभाव से परे हर एक के लिए उपलब्ध थी।
परम चेतना के माध्यम से
प्रत्यक्ष बोध
बाबूजी ने जो खोजें कीं, वे सरल होते हुए भी चेतना के क्षेत्र में उसी प्रकार क्रांतिकारी थीं जिस प्रकार आइंस्टाइन की कुछ वर्ष पूर्व भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में की गई खोजें थीं। कुछ बातों में ये दोनों व्यक्ति एक समान थे। दोनों को महानतम विचार प्रत्यक्ष बोध या प्रेरणा द्वारा प्राप्त हुए। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि एक-दूसरे से अनजान वे दोनों एक जैसे विषयों के बारे में अन्वेषण कर रहे थे - एक अध्यात्म के नज़रिए से तो दूसरा विज्ञान के। अपने प्रसिद्ध समीकरण, E = mc2 के द्वारा आइंस्टाइन ने पदार्थ और ऊर्जा की एक-दूसरे में परिवर्तित हो सकने की प्रकृति को प्रस्तुत किया था जिससे विज्ञान जगत में खलबली मच गई थी। लेकिन आइंस्टाइन प्रत्यक्ष भौतिक जगत तक ही सीमित थे। बाबूजी अव्यक्त को व्यक्त करने में सक्षम थे और उन्होंने हमें वह ज्ञान दिया जो पदार्थ और ऊर्जा की परस्पर परिवर्तनीयता के पहलू से भी परे है। इस ज्ञान को उन्होंने अपने एक साथी को पत्र में लिखा -
“एक समय के बाद ऊर्जा स्वयं ही परमतत्व में लौट जाती है जो शक्ति का मूल स्रोत है। सारा पदार्थ, शरीर का हर एक कण, ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है और परमतत्व में लौट जाता है। आइंस्टाइन केवल पदार्थ को ऊर्जा में बदलने की प्रक्रिया जानते थे, उससे आगे नहीं। संक्षेप में, मैं यह कह सकता हूँ कि ऊर्जा को भी पदार्थ में बदला जा सकता है और यह बहुत आसान काम है।”
ग्रामीण भारत से सिर्फ़ हाई-स्कूल तक पढ़े बाबूजी को क्वांटम-भौतिकी के विकसित होते हुए क्षेत्र के वैज्ञानिकों ने चाहे गंभीरता से न लिया हो, तो भी उन्होंने अपने प्रत्यक्ष बोध के द्वारा जो खोजें कीं, वे अत्यंत विस्मयकारी थीं। उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से न केवल यह देखा कि पदार्थ और ऊर्जा एक ही अभिव्यक्ति की अलग-अलग स्पंदनीय अवस्थाएँ हैं, बल्कि यह भी जाना कि चेतना ही सृष्टि का मूल तत्व है और ‘बिग-बैंग’ के बाद रचित हर वस्तु चेतना से ही उत्पन्न हुई है।
सन् 1972 में लंदन में हुई बाबूजी और एक भौतिकविद, जिसे उसके मित्र ने बाबूजी से मिलवाया था, की मुलाकात की एक प्यारी सी कहानी है। जब तक बाबूजी ने अणु के भीतर के कणों की जटिल बनावट और उनकी हरकत के बारे में बताना शुरू नहीं किया तब तक उस भौतिकविद ने उन्हें ग्रामीण भारत का साधारण-सा अशिक्षित व्यक्ति सोचकर सुनने लायक नहीं समझा। वह भौतिकविद हैरान रह गया और उसने बाबूजी से पूछा कि वे यह सब कैसे जानते हैं। बाबूजी ने उत्तर दिया, “मैंने पदार्थ के भीतर प्रवेश करके जो देखा, वही आपको बताया है।”

लगभग उन्हीं दिनों क्वांटम वैज्ञानिक प्रेक्षक-प्रभाव (observer effect) से घबराए हुए थे, इस तथ्य से कि प्रेक्षक किसी प्रयोग के परिणाम को प्रभावित कर सकता है। कुछ लोगों की धारणा थी कि चूँकि मूलतः हर वस्तु में चेतना है, इसलिए प्रेक्षक की चेतना प्रयोग की वस्तु की चेतना पर असर डालती है। आरंभ में इस धारणा से वैज्ञानिकों का समुदाय सहमत नहीं था। आज भी वैज्ञानिक इस मुद्दे पर एकमत नहीं हैं।
अब तो केवल वैज्ञानिक ही नहीं बल्कि जीवन के हर क्षेत्र से जुड़े लोग चेतना के विषय पर शोध भी कर रहे हैं और तर्क-वितर्क भी। तो हम वापस वहीं आ पहुँचे हैं जो वास्तव में प्राचीन काल की अनेक सभ्यताओं में पहले ही हो चुका है।
केंद्र की खोज एवं
चेतना का मानचित्रण
इसी बीच 1940 के दशक में, बाबूजी ने न सिर्फ़ यह बतलाया कि प्राणाहुति के साथ हृदय पर ध्यान करने से हम अपनी चेतना को परिवर्तित कर सकते हैं, बल्कि उन्होंने चेतना के विभिन्न बदलते स्तरों की तथा चेतना के परे क्या है, इसकी खोज की एवं इसका मानचित्र भी बनाया।
प्राचीन भारत में आध्यात्मिक विज्ञान के जानकार ऊर्जा संबंधी चेतना के सात चक्रों की व्यवस्था से परिचित थे और अधिकांश का विचार था कि सहस्रार चक्र ही आध्यात्मिक पहुँच का अंतिम शिखर है। बाबूजी को यह सब बदलना था। अपने गुरु, 19वीं और 20वीं शताब्दी के एक और महान संत, लालाजी के साथ मिलकर उन्होंने एक और अधिक संपूर्ण चक्र प्रणाली को खोजा जिसका चरमबिंदु 16वाँ चक्र है। इस 16वें चक्र को, जो हर वस्तु का स्रोत है, बाबूजी ने केंद्रीय क्षेत्र नाम दिया। उन्होंने अस्तित्व के एक बिलकुल अलग आयाम तक मानवीय जागरूकता का विस्तार किया।



लालाजी ने केंद्रीय क्षेत्र का ज्ञान बाबूजी को संप्रेषित किया और उन्हें उस क्षेत्र पर प्रभुत्व पाने की विधि भी सिखाई। तब अपने व्यक्तिगत शोध और अनुभव के आधार पर बाबूजी ने पदार्थ के स्थूलतम स्तर से लेकर केंद्र यानी स्रोत तक, चेतना के विभिन्न स्तरों का मानचित्रण किया। मानवता के इतिहास में पहली बार कोई इतना महान कार्य सफलतापूर्वक पूरा कर सका।
ध्यान एक क्वांटम प्रयोग है
बाबूजी ने हृदय पर ध्यान करने की एक सरल विधि सिखाई जो प्राचीन काल के राजयोग की परंपरा पर आधारित थी, लेकिन उसे आधुनिक जीवन की आवश्यकताओं के अनुसार और अधिक सरलीकृत और परिवर्तित किया गया था। उन्होंने समझाया कि चेतना के रूपांतरण और विस्तार के लिए ध्यान क्यों सर्वोत्तम तरीका है। योग की पारंपरिक विधियों के विपरीत, जिनमें मन को संयमित करने के लिए वर्षों के कठिन अभ्यास की ज़रूरत पड़ती थी, अब हार्टफुलनेस ध्यान, प्राणाहुति के क्रांतिकारी उपयोग के कारण, तत्काल परिणाम देता है।

ध्यान में क्या होता है? पिछले पचास वर्षों में वैज्ञानिकों ने यह समझने में काफ़ी प्रगति की है कि ध्यान हमारे शरीर, विशेषकर हमारे मस्तिष्क को कैसे प्रभावित करता है। यह मापने की तकनीकों के विकास से संभव हो सका, जैसे मस्तिष्क की स्कैनिंग और इसके द्वारा यह चिह्नित करना कि ध्यान से मस्तिष्क की कौन सी क्रिया बेहतर हो जाती है। इससे सामने आए कुछ निष्कर्ष थे - ध्यान तनाव को कम करता है, नींद को बेहतर करता है, रक्तचाप को कम करता है, सीखने की क्षमता व स्मरणशक्ति को बेहतर करता है और खुशी बढ़ाता है। मनुष्य का मस्तिष्क अत्यधिक जटिल तंत्र है और इसे समझने में विज्ञान ने अभी शुरुआती कदम ही उठाए हैं।
प्राचीन काल से ही योग के गुरु ध्यान का महत्व जानते आए हैं। वे विज्ञान के प्रयोगों से बहुत पहले से ही प्रेक्षक-प्रभाव के बारे में जानते थे। वस्तुतः वेद और उपनिषद् जैसे प्राचीन शास्त्र, ध्यान में प्राप्त होने वाले चेतना के उन विभिन्न स्तरों का वर्णन करने में सक्षम थे जो आजकल ई.ई.जी. मशीनों द्वारा मस्तिष्क में उठने वाली तरंगों के रूप में पहचाने जाते हैं। उदाहरण के लिए, ध्यान की गहराई की चरम अवस्था, जिसे योग में समाधि कहते हैं, गहरी नींद में मस्तिष्क द्वारा उत्पन्न की जाने वाली बहुत धीमी डेल्टा तरंगों से मेल खाती है। यह गहरी डेल्टा अवस्था प्राप्त करने में वर्षों ध्यान करने की ज़रूरत पड़ती है। लेकिन बाबूजी ने प्राणाहुति के उपयोग से अपने शिष्यों को ध्यान करने के पहले ही दिन समाधि का अनुभव करने योग्य बना दिया।
हम सभी अपने स्पंदनों को ब्रह्मांड में संप्रेषित करते हैं। एक पूर्ण विकसित समर्थ गुरु, जो ब्रह्मांड के केंद्र के साथ तारतम्य में है, उस केंद्र के सार-तत्व, प्राणाहुति, को शिष्य के हृदय में संप्रेषित कर सकता है और इस तरह शिष्य को अधिक तेज़ी से एवं प्रभावी रूप से प्रगति करने की क्षमता देता है। हार्टफुलनेस परंपरा में यही होता है।
योग के गुरुओं ने जान लिया था कि केंद्रीय तंत्रिका-तंत्र का कार्य-क्षेत्र केवल मस्तिष्क ही नहीं, उससे कहीं अधिक व्यापक है। हृदय, रीढ़, चेतना के वर्णक्रम के दो पहलुओं के रूप में हृदय और मस्तिष्क का संबंध और कोशकीय व आणविक स्तर पर चेतना, सभी योग-विज्ञान में शरीर-तंत्र के महत्वपूर्ण अंग रहे हैं और इन्हें आधुनिक वैज्ञानिक अब समझने लगे हैं।
बाबूजी ने हार्टफुलनेस पद्धति और योगिक प्राणाहुति के विज्ञान को मनुष्यों की चेतना के विभिन्न स्तरों से गुज़रते हुए विकसित होने में, मदद के एक साधन के रूप में संपूर्णता प्रदान की। लेकिन उन्हें यह स्पष्ट रूप से पता था कि यही काफ़ी नहीं है। अपने व्यक्तिगत विकास और चरित्र पर कार्य किए बिना इसका कोई लाभ नहीं है क्योंकि तब मनुष्य के भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक शरीरों में समन्वय या एकत्व नहीं होगा। आध्यात्मिक रूपांतरण चेतना के स्पंदन-क्षेत्र का आंतरिक रूपांतरण है और इसकी पूर्णता के लिए व्यक्तित्व का रूपांतरण भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
इसीलिए उनकी पहली पुस्तक, ‘सहज मार्ग के दस नियमों की व्याख्या’, इन दोनों के लिए एक व्यावहारिक निर्देशिका है - प्रतिदिन हर तरह से सामंजस्य में रहते हुए अपने जीवन को कैसे जिएँ। ये नियम सुबह जागने से शुरू होकर रात को सोने के समय तक लागू होते हैं और इस तरह 24 घंटे के दैनिक चक्र में जीवन के हर क्षेत्र में हमारा मार्गदर्शन करते हैं। इसी कारण इस श्रृंखला को ‘हृदयपूर्ण जीवन’ कहा गया है।
हम सभी अपने स्पंदनों को ब्रह्मांड में संप्रेषित करते हैं। एक पूर्ण विकसित समर्थ गुरु, जो ब्रह्मांड के केंद्र के साथ तारतम्य में है, उस केंद्र के सार-तत्व, प्राणाहुति, को शिष्य के हृदय में संप्रेषित कर सकता है और इस तरह शिष्य को अधिक तेज़ी से एवं प्रभावी रूप से प्रगति करने की क्षमता देता है। हार्टफुलनेस परंपरा में यही होता है।
आपको शायद यह जानकर आश्चर्य होगा कि सन् 1940 के दशक में जिस समय बाबूजी ने दस नियमों पर अपनी पुस्तक लिखी थी, उस समय आत्म-प्रगति के विषय पर कुछ गिनी-चुनी पुस्तकें ही प्रकाशित हुई थीं, जिनमें सॅम्युल स्माइल्स की प्रसिद्ध पुस्तक ‘सेल्फ़-हेल्प,’ नेपोलियन हिल की ‘थिंक एंड ग्रो रिच’, जेम्स एलन की ‘एज़ ए मैन थिंकेथ’ और डेल कारनेजी की ‘हाऊ टू विन फ्रेंड्स एंड इंफ़्लुएन्स पीपल’ शामिल थीं। बाबूजी उस युग के ऐसे पहले लेखक थे जिन्होंने आत्म-विकास के इन पाँच मुख्य तत्वों को शामिल करते हुए जीवन जीने की एक विस्तृत मार्गदर्शिका दी - एक दैनिक अभ्यास, आवश्यक नैतिक मूल्य, नियमित व्यवहार, नेतृत्व और सतत सुधार (चित्र 1 देखें)। इन पाँच तत्वों के भीतर ही दस नियम भी हैं। आज भी कुछ ही ऐसी पुस्तकें हैं जो परिपूर्ण जीवन के लिए ऐसी संपन्न और व्यापक रूपरेखा प्रस्तुत करती हैं।
आत्म-विकास के पाँच तत्व और दस नियम
जीवन जीने के दस नियम एक दिनचर्या और अंतर्निहित अनुक्रम पर आधारित हैं जो किसी फूल के खिलने की तरह प्रकट होता है। इस प्रकटीकरण के केंद्र में दैनिक अभ्यास है। यह अभ्यास ही है जिसके कारण चेतना का विकास शुरू होता है। यही वह पहला कार्य है जिसे हम सुबह सबसे पहले करते हैं। अभ्यास हमें पूरे दिन के लिए तैयार करता है, हमारा मनोभाव निर्धारित करता है और जो होने वाला है उसके लिए हमें केंद्रित करता है। जैसे-जैसे चेतना विस्तारित होती जाती है तथा शुद्धता और सरलता उभरने लगती हैं, हम अपने मूल स्वरूप की झलक प्राप्त करते हैं और अपने आंतरिक अस्तित्व में आराम महसूस करने लगते हैं। उसके बाद हमारे विचार और कर्म हृदय के इन आवश्यक नैतिक मूल्यों से मार्गदर्शित होते हैं।
इस प्रकटीकरण का अगला भाग है - व्यवहार। जब हम अस्तित्व की उस अवस्था में स्थित हो जाते हैं तब हमारा व्यवहार उस अवस्था के अनुरूप होता है। जैसे ही हमारा अस्तित्व और कर्म एक-दूसरे को सुदृढ़ करते हैं, हमारी चेतना स्वाभाविक रूप से एक ऐसे स्तर तक विकसित हो जाती है कि हम दूसरों की सहायता करना चाहते हैं। अतः नेतृत्व की योग्यताएँ और गुण स्वाभाविक रूप से उजागर होते हैं। इस प्रकटीकरण का आखिरी भाग है सतत सुधार जिसमें दैनिक समीक्षा और सुधारात्मक कार्य किया जाता है, विशेषकर रात को सोने से पहले। यह रूपरेखा गतिशील और परिवर्तनशील है। ये सभी भाग एकसाथ उत्पन्न होते हैं और निर्बाध होते हैं। यह एक समग्र व पूर्ण पद्धति और एक क्रियाशील मार्गदर्शन है। जैसे-जैसे हम प्रगति करते जाते हैं, हमारा कार्य ही हमारा शिक्षक बन जाता है।

इन पाँच तत्वों के भीतर ही दस सार्वभौमिक नियम हैं -
अभ्यास
- सुबह का दैनिक ध्यान-अभ्यास विकसित करें
- सुबह ध्यान शुरू करने से पहले और रात को सोने से पहले अपने हृदय को प्रेम से भर दें।
- अपना लक्ष्य निर्धारित करें और जब तक आप उसे प्राप्त न कर लें, चैन से न बैठें।
आवश्यक नैतिक मूल्य
- प्रकृति से मेल खाने के लिए सरल जीवन जिएँ।
- हमेशा सच बोलें और चुनौतियों को अपनी भलाई के लिए मानते हुए उन्हें स्वीकार करें।
व्यवहार होने से करने तक
- सभी को एक समान समझें और उनके साथ एक जैसा एवं सामंजस्यपूर्ण व्यवहार करें।
- दूसरों द्वारा की गई गलतियों के लिए उनसे बदला लेने की भावना न रखें, इसकी बजाय हमेशा कृतज्ञ बने रहें।
- आपको दिए गए संसाधनों को पवित्रता के भाव के साथ, पावन जानकर उनकी कदर करें, यह भाव भोजन और पैसों के लिए भी होना चाहिए।
नेतृत्व
- दूसरों में प्रेम और पवित्रता को प्रेरित करते हुए, एक आदर्श बनें। हम सभी एक ही हैं- यह बात स्वीकारते हुए उनकी विविधता की प्रचुरता को भी स्वीकारें।
सतत सुधार
- रात को सोने से पहले प्रतिदिन आत्मावलोकन करें ताकि आप अपनी गलतियों को सुधार सकें और वही गलती न दोहराएँ।
