बाबूजी महाराज

1899 A.D.– 1983 A.D.

बाबूजी का जन्म 30 अप्रैल सन् 1899 में उत्तरी भारत के शाहजहाँपुर शहर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था | बहुत छोटी उम्र से ही उनमें साक्षात्कार की ललक थी जो उनकी बाक़ी सभी रुचिओं को ढांक देती थी |

उन्होंने शाहजहाँपुर के ज़िला न्यायलय में एक लिपिक की हैसियत से तीस साल से अधिक समय तक काम किया | उन्नीस वर्ष की उम्र में उनका विवाह भगवती से हुआ। जिनसे उन्हें दो पुत्रियां एवं चार पुत्र हुए | उनकी पत्नी का सन् 1949 में देहान्त हो गया |

जून सन् 1922 में ,बाईस साल की उम्र में उनकी भेंट लालाजी से हुई। वर्षों पूर्व लालाजी ने एक सपने में बाबूजी को अपने उत्तराधिकारी के रूप में देखा था | 

हालाँकि सन् 1931 में लालाजी के पार्थिव शरीर त्यागने से पहले गुरु-शिष्य बहुत हीं कम बार मिल पाए थे ; बाबूजी सतत् लालाजी की याद में डूबे रहते तथा यह आग्रह किया करते कि उनके आन्तरिक मार्गदर्शन के बिना वे एक क्षण भी जीवित नहीं रह पाएँगे | बाबूजी यह मानते थे कि चेतना का क्रमिक विकास हर मनुष्य का जन्म-सिद्ध अधिकार है तथा हर सच्चे जिज्ञासु को इसे निःशुल्क प्रदान करना चाहिए | उनका मानना था कि एक सच्चा गुरु वास्तव में एक परम सेवक होता है। वे किसी भी तरह के ज़ात-पात, धर्म, राष्ट्रीयता अथवा स्त्री-पुरुष का भेद-भाव किए बग़ैर आजीवन मानव जाति की सेवा करते रहे | उनका कहना था कि भौतिक और आध्यात्मिक जीवन, पक्षी के दो पंखों की तरह हैं जो साथ-साथ चलते हैं एवं गृहस्थ जीवन प्रेम तथा त्याग जैसे गुणों को सीखने के लिए सबसे उपयुक्त वातावरण प्रदान करता है | अपने आदर्श को ध्यान में रखते हुए उन्होंने राज योग पद्धति को सरलीकृत व परिष्कृत किया जिससे हर एक व्यक्ति इसका अभ्यास करके इसका लाभ उठा सके |

वे अपने अनुयायियों को सलाह देते थे कि अपनी अक्षमताओं एवं ख़ामियों से हतोत्साहित न होकर अपनी ग़लतियों को दोबारा न दोहराने का संकल्प लेकर आगे बढ़ें | वे उन्हें याद दिलाते कि हम वर्तमान में रहकर हीं अपने चरित्र का विकास कर सकते हैं और इस तरह एक उज्जवल भविष्य का निर्माण कर पाते हैं |

बाबूजी बहुत ही विनम्र स्वभाव के व्यक्ति थे तथा उन्हें अपने गुरु पर असीम श्रद्धा थी | उन्हें पूरा विशवास था कि उनके द्वारा प्रस्तुत की गयी इस प्रभावशाली पद्धति को प्रत्येक संस्कृति एवं राष्ट्रीयता के साधक खुले दिल से अपनाएंगे | सन्1972 में वे अपने सहायक, चेन्नई के श्री पार्थसारथी राजगोपालाचारी के साथ इस हार्टफुलनेस पद्धति को अमेरिका एवं यूरोप में ले कर गए | पार्थसारथी , जो अपने सहयोगियों में चारीजी के नाम से जाने जाते थे , बाद में बाबूजी के उत्तराधिकारी के रूप में चुने गए, जो हार्टफुलनेस परम्परा के तीसरे गुरु बने |