चारीजी महाराज

1927 A.D – 2014 A.D.

श्री पार्थसारथी राजगोपालाचारी का जन्म दक्षिण भारत में (चेन्नई के पास) वयलुर में हुआ। वे चारीजी के नाम से भी जाने जाते हैं।

चारीजी जब अठारह साल के थे, तब उन्होंने भगवद् गीता पर एक उपदेश सुना था और तभी से उनकी चेतना में आध्यात्म की आकांक्षा जाग उठी, मगर उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी तथा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की | उनकी पहली नौकरी रासायनिक अभियांत्रिकी में थी | जिसके पश्चात उन्होंने यूगोस्लाविया में दो साल रहकर प्लास्टिक उत्पादन की तकनीकों के विषय पर पढ़ाई की | 

उनका विवाह सन्1955 में हुआ तथा उसी साल वे टी.टी. कृष्णमाचारी ग्रुप ऑफ़ कम्पनीज़ की सेवा में नियुक्त हुए, तथा जल्द ही उसी ग्रुप की एक कम्पनी में कार्यकारी निदेशक बन गए | उनके काम की वजह से उन्हें पूरे भारत तथा विदेशों में बहुत यात्राऐं करनी पड़ती थीं और विश्व भ्रमण का यह सिलसिला इसी प्रकार उनके व्यावसायिक जीवन में और बाद में एक हार्टफुलनेस मार्गदर्शक की भूमिका में भी जारी रहा |

सन्1964 में चारीजी हार्टफुलनेस पद्धति में दाख़िल हुए तथा कई महीनों के बाद वे बाबूजी से मिले | बाबूजी के साथ उनकी पहली मुलाक़ात में ही जैसा कि उन्होंने अपनी पुस्तक “मेरे गुरुदेव ” में लिखा है, “मैं अपने अन्तर्ज्ञान से तुरंत जान गया कि मैं जिनसे मिल रहा हूँ केवल वे हीं मेरे गुरु हो सकते हैं एवं मुझे मेरे लक्ष्य तक ले चल सकते हैं |”

पारिवारिक एवं व्यावसायिक दायित्व निभाने के साथ-साथ चारीजी अपनी आध्यात्मिक साधना के प्रति बहुत ही तत्पर थे तथा बाबूजी के प्रति उनमें उत्कट निष्ठा थी | उन्होंने बाबूजी के सपने को कार्यान्वित करने के लिए स्वयं को इस कार्य के लिए समर्पित कर दिया |

चारीजी ने बाबूजी के साथ व्यापक भारत भ्रमण किया | बाबूजी तथा उनकी शिक्षाओं से आकर्षित होकर यूरोपवासियों के भारत में आने के बाद सन्1972 में चारीजी यूरोप एवं अमेरिका के पहले अन्तराष्ट्रीय दौरे में बाबूजी के साथ रहे | वे दोनों वहाँ जिज्ञासुओं से मिले, ध्यान के सत्र संचालित किये ,वार्ताएँ दीं तथा प्रश्नों के उत्तर भी दिए | उस दौरान उन दोनों के बीच परस्पर निर्भरता का एक प्यार भरा सम्बन्ध स्थापित हुआ | 

बाबूजी ने अपने जीवनकाल में ही चारीजी को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत का दिया था तथा सन्1983 में बाबूजी के देहान्त के बाद चारीजी ने उनके आध्यात्मिक प्रतिनिधि का भार सम्भाला | बाबूजी द्वारा मानवता के लिए आरम्भ किए गए कार्य को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने स्वयं को इस काम में पूर्ण रूपेण समर्पित कर दिया | चारीजी के नेतृत्व में बाबूजी द्वारा स्थापित की गयी इस संस्था का, भारत तथा पूरे विश्व भर में सौ से भी अधिक देशों में प्रसार हुआ | चारीजी के कार्यकाल में संस्था की सदस्यता 5,000 से बढ़ कर 5,00,000 हो गयी | यह संस्था प्रारम्भ से ही स्वयंसेवकों एवं संदान के आधार पर क्रियाशील रही है |

चारीजी ने स्वयं को एक आदर्श व्यक्ति के रूप में प्रमाणित किया, जो बाबूजी के अनुसार ‘पश्चिमी सोच एवं पूर्वी हृदय’ का सही मिश्रण है|

एक उत्कृष्ट वक्ता होने के साथ-साथ उनके काम करने की क्षमता लगभग अतिमानवीय थी | बावजूद इसके कि अनेकों लोग उनसे मिलने आते तथा अपनी यात्राओं के दौरान भी वे कई लोगों से मिलते, वे इस बात के लिए जाने जाते हैं कि वे सभी से मिलने के लिए बहुत उत्सुक रहते थे | ऐसे लाखों लोग हैं जिनके पास चारीजी के साथ व्यक्तिगत मुलाकातों की यादें हैं जिसकी वजह से उनका जीवन ही रूपांतरित हो गया |

उन्होंने सौ से भी अधिक पुस्तकें लिखीं तथा प्रकाशित कीं | उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तक “मेरे गुरुदेव ” जो उनके प्रिय बाबूजी को समर्पित है, का 20 भाषाओं में अनुवाद किया गया है | उनकी अन्य पुस्तकों में, उनका बाबूजी के साथ विदेश-यात्राओं के दैनिक अनुभवों का लेखा-जोखा, एक आत्मकथा और अपने गुरु की शिक्षा का विस्तार व प्रसार करते हुए भारत तथा विदेशों में दी गई अनेक वार्ताओं के असंख्य संस्करण सम्मिलित हैं | 

सन् 2008 से चारीजी खराब स्वास्थ्य जूझते रहे तथा सन् 2010 में उन्होंने आधुनिक तकनीक की मदद से अपने अनुयायियों में श्री कमलेश डी. पटेल के इस पद्धति के भावी उत्तराधिकारी होने की घोषणा की| इस तरह से चारीजी ने यह सुनिश्चित किया कि प्रारम्भ से ही कमलेश जी को इस बृहत कार्य में अपने अनुयायियों का पूर्ण सहयोग मिले | उस दिन से लेकर चारीजी के जीवन के अंतिम दिन तक, वे दोनों प्रायः हमेशा साथ हीं रहे | 

चारीजी ने श्री कमलेश डी. पटेल, जो प्रेम से दाजी कहलाते हैं; को हार्टफुलनेस के वैश्विक मार्गदर्शक की भूमिका का भार सौंप कर, 20 दिसम्बर सन् 2014 को इस संसार से विदा ली।